सर्वोच्च न्यायालय - कार्य एवं शक्तियां

BA-I,Political Science II

प्रश्न 13. संविधान के संरक्षक के रूप में भारत के सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका का परीक्षण कीजिए।

अथवा '' भारत के सर्वोच्च न्यायालय की संरचना तथा क्षेत्राधिकार की विवेचना कीजिए।

अथवा  ''भारत के सर्वोच्च न्यायालय के कार्यों एवं शक्तियों का परीक्षण कीजिए।

अथवा ''भारत के उच्चतम न्यायालय की संरचना एवं शक्तियों का परीक्षण कीजिए।

उत्तर

सर्वोच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय का गठन (संरचना)

सर्वोच्च न्यायालय भारतीय संविधान और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष प्रहरी होने के साथ-साथ देश का सर्वोच्च एवं अन्तिम न्यायालय है। इसके अधीन भारतीय संघ के विभिन्न राज्यों में उच्च न्यायालय स्थापित हैं। इन उच्च न्यायालयों के अधीन अन्य न्यायालय हैं। इस प्रकार देश के समस्त न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन हैं।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के कार्य एवं शक्तियां

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के गठन को निम्नलिखित शीर्षकों के आधार पर स्पष्ट कर सकते हैं

(1) न्यायाधीशों की संख्या -

संविधान के अनुच्छेद 124(1) के अनुसार संसद सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या में कानून पारित करके परिवर्तन कर सकती है। संविधान द्वारा न्यायाधीशों की संख्या निश्चित नहीं की गई है। संसद विभिन्न अधिनियमों द्वारा न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि कर चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या के सम्बन्ध में अधिनियम 1985 द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और 25 अन्य न्यायाधीश होंगे। देश के शीर्ष न्यायालय पर लगातार बढ़ते मामलों के बोझ को देखते हुए केन्द्र सरकार ने 21 फरवरी, 2008 को न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने का निर्णय लिया। सरकार के इस निर्णय के बाद सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश सहित न्यायाधीशों की संख्या 31 हो गई है।

(2) न्यायाधीशों की नियुक्ति

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इन न्यायाधीशों की नियुक्ति करने से पूर्व राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श अवश्य लेता है। इस सम्बन्ध में वरिष्ठता क्रम का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है। विशेष परिस्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की अनुमति से 'तदर्थ न्यायाधीशों' (Adhoc Judges) की नियुक्ति भी कर सकता है। किन्तु तदर्थ नियुक्तियाँ करते समय भारत के मुख्य न्यायाधीश को उच्च न्यायालय के उन मुख्य न्यायाधीशों से परामर्श लेना होता है जिनमें से तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति की जानी है।

(3) न्यायाधीशों की योग्यताएँ 

संविधान के अनुच्छेद 124(3) के अनुसार उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निर्धारित की गई हैं

(i) वह भारत का नागरिक हो।

(ii) वह किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो से अधिक न्यायालयों में लगातार कम-से-कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका हो।

अथवा किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो से अधिक न्यायालयों में लगातार 10 वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका हो।

(iii) राष्ट्रपति की दृष्टि में कानून का उच्च कोटि का ज्ञाता हो।

(4) न्यायाधीशों का कार्यकाल तथा महाभियोग -

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर कार्य कर सकते हैं, परन्तु इससे पूर्व भी यदि कोई न्यायाधीश चाहे तो अपने पद से त्याग पत्र सकता है। इसके अतिरिक्त यदि संसद के दोनों सदन अलग-अलग, संसद के एक ही सत्र में अपने उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित प्रस्ताव द्वारा किसी न्यायाधीश को दुराचारी या अयोग्य घोषित कर दें तथा राष्ट्रपति से प्रार्थना करें कि उसे उसके पद से हटा दिया जाए, तो राष्ट्रपति उस न्यायाधीश को अपने पद से त्याग-पत्र देने का आदेश दे सकता है और उस न्यायाधीश को त्याग-पत्र देना पड़ता है।

(5) न्यायाधीशों का वेतन, भत्ता एवं पेंशन-

 सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन तथा भत्ते संसद द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। संसद द्वारा मुख्य न्यायाधीश का वेतन 1,00,000 प्रतिमाह तथा अन्य न्यायाधीशों का वेतन 90,000 प्रतिमाह निर्धारित किया गया है। प्रत्येक न्यायाधीश को नि:शुल्क सरकारी आवास तथा अपने कर्त्तव्यों के पालन के लिए यात्रा सम्बन्धी सुविधाएँ भी प्राप्त हैं। सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को वार्षिक पेंशन भी मिलती है। उसके वेतन एवं भत्ते भारत सरकार की संचित निधि से दिए जाते हैं। संसद द्वारा उनकी स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है।

(6) न्यायाधीशों की उन्मुक्तियाँ -

किसी भी व्यक्ति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के कार्यों की सार्वजनिक आलोचना या चर्चा नहीं की जा सकती है। न्यायालय की मानहानि (अवमानना) करने वाले किसी भी व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दण्डित किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन मामलों या उसके निर्णयों की संसद में कोई आलोचना नहीं की जा सकती। संसद केवल किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाने के लिए उसके आचरण के सम्बन्ध में विचार कर सकती है।

 सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार

अथवा

उच्चतम न्यायालय की शक्तियाँ एवं कार्य

भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली सर्वोच्च न्यायालयों में से एक है। इसका कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारत होने के कारण इसकी शक्तियाँ बहुत अधिक विस्तृत एवं व्यापक हैं। इसके निर्णय देश के समस्त न्यायालयों को मान्य होते हैं। इसकी शक्तियों एवं कार्यों को निम्नलिखित शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है

(1) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार - सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार को दो भागों में बाँटा जा सकता है

(1) प्रारम्भिक एकमेव क्षेत्राधिकार -

सर्वोच्च न्यायालय के इस क्षेत्राधिकार में वे विवाद आते हैं जिनका निर्णय सर्वोच्च न्यायालय के अतिरिक्त देश का कोई अन्य न्यायालय नहीं कर सकता। इसमें

(i) संघ सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच के विवाद,

(ii) संघ सरकार तथा एक या अनेक राज्यों का एक पक्ष हो और एक या एक से अधिक राज्यों का दूसरा पक्ष हो,

(iii) दो या दो से अधिक राज्यों के बीच के विवाद।

सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में दो राज्यों के बीच नदियों के जल बँटवारेनदियों की घाटियों से सम्बन्धित विवाद नहीं आते हैं। इसके अतिरिक्त वित्त आयोग को निर्णय हेतु सौंपे गए विवाद भी इसके क्षेत्राधिकार में नहीं आते

(2) समवर्ती प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार-

संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ उच्च न्यायालयों को भी अधिकार प्रदान किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 32(1) द्वारा विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय को उत्तरदायी ठहराया गया है कि वह मौलिक अधिकारों को लागू करने के सम्बन्ध में आवश्यक कार्यवाही करे। मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पाँच प्रकार के लेख या आदेश जारी किए जा सकते हैं; जैसेबन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण तथा अधिकार-पृच्छा। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की भी रक्षा करता है। -

(II) अपीलीय क्षेत्राधिकार-

सर्वोच्च न्यायालय देश का सबसे बड़ा तथा अन्तिम अपीलीय न्यायालयं है। इस क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय को उच्च न्यायालय के विरुद्ध निम्न प्रकार की अपीलें सुनने की शक्ति प्राप्त है

(1) संवैधानिक अपीलें -

संविधान के अनुच्छेद 132 की व्यवस्था के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के किसी निर्णय के संवैधानिक मामलों में अपील उस समय सुनता है जब उच्च न्यायालय इस बात का प्रमाण-पत्र दे दे कि इस विवाद में संविधान के किसी अनुच्छेद या धारा की व्याख्या से सम्बन्धित प्रश्न निहित है। सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी अपनी ओर से ऐसे मामलों की अपील सुनने की व्यक्ति को अनुमति दे सकता है, बशर्ते कि न्यायालय यह अनुभव करे कि मामले में कोई संवैधानिक प्रश्न निहित है।

(2) दीवानी अपीलें-

संविधान के अनुच्छेद 133 की व्यवस्था के अनुसार ऐसे दीवानी विवाद की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा की जा सकती है जिसमें उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रमाणित किया गया हो कि विवादग्रस्त विषय का मूल्य 20,000 से अधिक है। परन्तु सन् 1973 में किए गए 30वें संविधान संशोधन द्वारा यह सीमा समाप्त कर दी गई है। अब यह व्यवस्था कर दी गई है कि सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे समस्त दीवानी विवादों की अपील की जा सकती है जिनके विषय में उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि इन विवादों में सामान्य महत्त्व के कानून की व्याख्या सम्बन्धी सार्थक प्रश्न निहित हैं।

(3) फौजदारी अपीलें -

संविधान के अनुच्छेद 134 की व्यवस्था के अनुसार उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में निम्नांकित फौजदारी मामलों की अपील की जा सकती है

(i) जब किसी मुकदमे में उच्च न्यायालय के किसी अधीनस्थ न्यायालय ने अभियुक्त को निर्दोष मानकर रिहा कर दिया हो, परन्तु उच्च न्यायालय द्वारा उसे मृत्युदण्ड दिया गया हो।

(ii) जब उच्च न्यायालय ने किसी मुकदमे को अपने अधीनस्थ न्यायालय से अपने पास मँगवाकर अभियुक्त को मृत्युदण्ड दिया हो।

(iii) जब उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रमाणित कर दिया गया हो कि विवाद सर्वोच्च न्यायालय में अपील किए जाने योग्य है।

(4) विशेष अपीलें-

संविधान के अनुच्छेद 135 की व्यवस्था के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार दिया गया है कि सैनिक न्यायालय को छोड़कर भारत स्थित किसी भी न्यायालय द्वारा किसी भी विवाद में दिए गए निर्णय के विरुद्ध अपील करने की विशेष अनुमति प्रदान कर सकता है। यह. अनुमति केवल उन्हीं अभियोगों के सम्बन्ध में दी जा सकती है जिनके निर्णयों से सर्वोच्च न्यायालय को यह अनुभव हो कि एक पक्ष के साथ घोर अन्याय किया गया है और अभियोग पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।

(III) परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार

संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार भी प्रदान किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को प्रतीत हो कि विधि या तथ्य का ऐसा कोई प्रश्न उत्पन्न हुआ है जो सार्वजनिक महत्त्व का है, तो वह उक्त प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श माँग सकता है। किन्तु सर्वोच्च न्यायालय पर संवैधानिक दृष्टि से ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि उसे परामर्श देना ही पड़ेगा।

(IV) संविधान के संरक्षक या न्यायिक पुनरावलोकन सम्बन्धी क्षेत्राधिकार -

संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के संरक्षक का कार्य भी प्रदान किया है। इसका तात्पर्य यह है कि सर्वोच्च न्यायालय को कानूनों की वैधता की जाँच करने का अधिकार प्राप्त है। इसे ही 'न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार' कहते हैं। इस अधिकार के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय को संघ सरकार या राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित ऐसी विधियों की जाँच करने का अधिकार प्राप्त है जो संविधान के विरुद्ध हैं अर्थात् संविधान के विरुद्ध निर्मित विधियों को सर्वोच्च न्यायालय अवैध घोषित कर सकता है। इस प्रकार अपने इस अधिकार का प्रयोग कर सर्वोच्च न्यायालय संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करता है।

(V) पुनर्विचार सम्बन्धी क्षेत्राधिकार-

संविधान के अनुच्छेद 138 की व्यवस्था के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय अपने द्वारा दिए गए आदेशों एवं निर्णयों पर पुनर्विचार कर सकता है और आवश्यकतानुसार उनमें परिवर्तन या संशोधन भी कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसा तब ही किया जाता है जब उसे ऐसा प्रतीत हो कि उसके द्वारा दिए गए निर्णय से किसी पक्ष के प्रति अन्याय हुआ है अथवा उस विवाद के सम्बन्ध में अन्य कोई तथ्य प्रकाश में आए हों।

(VI) अभिलेख न्यायालय -

संविधान के अनुच्छेद 129 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय भी है। इसकी समस्त कार्यवाहियाँ व निर्णय लिखित रूप में होते हैं और प्रकाशित किए जाते हैं। इन्हें अभिलेख के रूप में रखा जाता है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय साक्ष्य के रूप में अत्यधिक मूल्यवान होते हैं, जिन्हें समस्त अधीनस्थ न्यायालय कानूनी मान्यता प्रदान करते

(VII) अन्य अधिकार-

सर्वोच्च न्यायालय को उपर्युक्त अधिकारों के अतिरिक्त अन्य अधिकार भी प्राप्त हैं, जो निम्न प्रकार हैं

(1) वह अपने अधीनस्थ न्यायालयों के कार्यों की जाँच कर सकता है।

(2) अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की नियुक्ति और सेवा सम्बन्धी शर्ते निर्धारित करने के अतिरिक्त उसे उनकी पदोन्नति एवं पदच्युत करने की शक्ति भी प्राप्त है।

(3) न्यायालय की अवमानना करने वाले किसी भी व्यक्ति को दण्डित करने की शक्ति भी सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है।

इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय को संघीय व्यवस्था और मौलिक अधिकारों के संरक्षक तथा भारतीय संघ के अन्तिम अपीलीय न्यायालय के रूप में व्यापक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं।

 

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