आन्तरिक प्रबन्ध का सिद्धान्त

प्रश्न 5. "कम्पनी का पार्षद सीमानियम तथा अन्तर्नियम सार्वजनिक प्रलेख है।" इस कथन को समझाइए तथा आन्तरिक प्रबन्ध के सिद्धान्त की इस सम्बन्ध में व्याख्या कीजिए।

अथवा "आन्तरिक प्रबन्ध के सिद्धान्त" (Doctrine of Indoor Management) का क्या आशय है ? इस सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए तथा इसके अपवादों का वर्णन कीजिए।

उत्तर- पार्षद सीमानियम तथा अन्तर्नियम सार्वजनिक प्रलेख-

किसी भी कम्पनी का पार्षद सीमानियम और अन्तर्नियम जब रजिस्ट्रार के यहाँ रजिस्टर्ड हो जाता है, तो यह दोनों प्रलेख सार्वजनिक प्रपत्र हो जाते हैं और  जनसाधारण निर्धारित शुल्क देकर इन प्रलेखों की प्रतिलिपि ले सकता है। सार्वजनिक प्रपत्र होने के कारण कम्पनी के साथ व्यवहार करने वाले प्रत्येक व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि उसने न केवल इन प्रपत्रों को पढ़ा है बल्कि उसके प्रावधानों को सही अर्थों में समझ भी लिया है। ऐसी स्थिति को सीमानियम तथा अन्तनियमों की रचनात्मक सचना कहते हैं। इसका आशय यह है कि यदि कोई व्यक्ति कम्पनी के साथ व्यवहार करने के बाद यह स्पष्ट करता है कि उसे कम्पनी के सीमानियम एवं अन्तर्नियमों का ज्ञान नहीं था तब इस अज्ञानता के कारण होने वाली हानि के लिए कम्पनी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है और न ही उस पर दावा कर सकता है बल्कि वह व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी होगा। इस सिद्धान्त का एक अपवाद है जिसे आन्तरिक प्रबन्ध का सिद्धान्त कहते हैं।

Doctrine of Indoor Management

आन्तरिक प्रबन्ध का सिद्धान्त-
(Doctrine of Indoor Management)

 यह सिद्धान्त इन लोगों को संरक्षण प्रदान करता है जो कम्पनी के साथ व्यवहार करते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार कम्पनी से व्यवहार अथवा अनुबन्ध करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह मान लेने का अधिकार है कि जहाँ तक कम्पनी की आन्तरिक , कार्यवाहियों का सम्बन्ध है,समस्त कार्य नियमित रूप से किये गये हैं। बाहरी व्यक्ति को यह कदापि नहीं है कि वह यह देखे कि कम्पनी की अपनी आन्तरिक कार्यवाहियाँ नियमानुसार चल रही हैं, किन्तु उसका यह उत्तरदायित्व अवश्य है कि वह इस बात का पता अवश्य लगाए कि प्रस्तावित व्यवहार अथवा अनुबन्ध कम्पनी के सार्वजनिक प्रलेखों (पार्षद सीमानियम एवं अन्तर्नियम) के असंगत या विरोधाभास तो नहीं है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1856 में रायल ब्रिटिश बैंक बनाम C2 क्वाण्ड के मामले में किया गया था। इस विवाद में कम्पनी के अन्तर्नियमों में संचालकों को बॉण्ड निर्गमन करने का अधिकार था बशर्ते कि इसके लिए सदस्यों की सभा में सामान्य प्रस्ताव पारित कर दिया जाय। संचालकों ने C2 क्वाण्ड को बॉण्ड निर्गमित कर दिये, किन्तु उसके लिए कम्पनी के सदस्यों की सभा में निर्धारित प्रस्ताव पारित नहीं कराया । न्यायालय द्वारा यह निर्णय लिया गया कि C2 क्वाण्ड को यह मान लेने का अधिकार था कि संचालकों ने जो बॉण्ड निर्मित किये हैं उनके लिए वह साधारण प्रस्ताव द्वारा अधिकृत है । अतएव C2 क्वाण्ड उक्त बॉण्डों के आधार पर कम्पनी से रुपया पाने का अधिकार है । इस विचार का समर्थन पेरुविल इण्डस्टियल बैंक लि. बनाम कास्टन मैन्यूफैक्चरिंग कम्पनी लि. के विवाद में भी किया गया। इस विवाद यह निर्णय लिया गया कि कम्पनी से व्यवहार करने वाले व्यक्ति का यह कार्य नहीं कि वह यह पता लगाये कि उक्त व्यवहार के सम्बन्ध में संचालकों ने निर्धारित औपचारिकताएं पूरी कर ली हैं। उसे यह मान लेने का अधिकार है कि संचालक नियमानुसार कार्य कर रहे हैं।

आन्तरिक प्रबन्ध के सिद्धान्त के अपवाद

 इस सिद्धान्त के निम्नलिखित अपवाद हैं-

(1) अनियमितता का ज्ञान-

 यह कम्पनी के साथ व्यवहार करने वाले व्यक्ति को अनियमितता की वास्तविक अथवा रचनात्मक सूचना है एवं इस बात का भी पता है कि अन्तर्नियमों द्वारा निर्धारित कार्यविधि का पालन नहीं किया है तो वह आन्तरिक प्रबन्ध के सिद्धान्त का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता।

(2) जाँच-पड़ताल आयोजित करना-

यदि परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि कम्पनी से व्यवहार करने वाले व्यक्ति ने उचित पूछताछ की होती तो उक्त अनियमितता का पता चल जाता, तो ऐसी लापरवाही के कारण आन्तरिक प्रबन्ध का सिद्धान्त लागू नहीं होता।

(3) जालसाजी-

यदि कम्पनी ने व्यवहार करने वाला व्यक्ति किसी प्रलेख पर "निर्भर रहा है जिसमें कि जालसाजी की गयी है, तो आन्तरिक प्रबन्ध सिद्धान्त लागू नहीं होता क्योंकि कम्पनी कभी भी अपने अधिकारियों द्वारा की गयी जालसाजी के लिये उत्तरदायी नहीं होती।

(4) अन्तर्नियमों की अज्ञानता-

यदि किसी व्यक्ति ने कम्पनी से व्यवहार करते समय कम्पनी के सीमानियम और अन्तर्नियमों को नहीं देखा है तो उसे अन्तरित प्रबन्ध के सिद्धान्त का लाभ नहीं मिलेगा। इस सम्बन्ध में लक्ष्मी रतनलाल कॉटन मिल्स बनाम जे. के. जूट मिल्स कम्पनी का विवाद महत्वपूर्ण है।

(5) प्रत्यक्ष अधिकार के बाहर के कार्य-

यदि कम्पनी के किसी अधिकारी का कोई कार्य इस प्रकार का है जो प्रत्यक्षता उसकी अधिकार सीमा से बाहर है तो आन्तरिक प्रबन्ध का सिद्धान्त लागू नहीं होगा। इस सम्बन्ध में आनन्द बिहारी लाल बनाम दिनशा एण्ड कम्पनी का मामला महत्वपूर्ण है।

(6) महत्वपूर्ण तथा व्यर्थ कार्य-

यदि कम्पनी के नाम में किया जाने वाला कार्य कपटपूर्ण एवं व्यर्थ है, तो आन्तरिक प्रबन्ध का सिद्धान्त लागू नहीं होता।

 

 

 

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