कम्पनी के ऋण लेने के क्या अधिकार हैं ?
प्रश्न 14. कम्पनी के ऋण लेने के अधिकारों (Borrowing Powers) की व्याख्या कीजिए। एक कम्पनी वैधानिक रूप से कब ऋण ले सकती है ? कम्पनी के ऋण लेने के अधिकारों पर क्या प्रतिबन्ध है ?
अथवा '' कम्पनी के ऋण लेने के क्या अधिकार
हैं ? इन पर क्या प्रतिबन्ध है ? यदि
कम्पनी अपने अधिकारों के बाहर ऋण लेती है, तो ऐसे ऋणदाताओं
के क्या उपचार (Remedies) हैं।
उत्तर-प्रत्येक कम्पनी को अपने व्यापारिक कार्यों के सम्पादन के लिए ऋण लेने तथा ऋण के लिए अपनी सम्पत्ति की प्रतिभूति देने का गर्भित अधिकार होता है। प्राय: आन्तरिक साधनों की सीमितता के कारण बाहरी साधनों से धन जुटाना होता है। यदि किसी कम्पनी के सीमानियम में ऋण लेने के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा है तब भी कम्पनी अपने कार्यों के संचालन के लिए ऋण ले सकती है। व्यापारिक कम्पनी के ऋण लेने के अधिकारों का वर्णन जनरल ऑक्शन स्टेट कम्पनी बनाम स्मिथ के विवाद में किया गया है। किन्तु गैर-व्यापारिक कम्पनी को ऋण लेने का गर्भित अधिकार प्राप्त नहीं होता वह अपने सीमानियम में स्पष्ट उल्लेख होने पर ही ऋण ले सकती है ।
एक
व्यावसायिक कम्पनी किस सीमा तक ऋण ले सकती है, यह
उसके. सीमानियम में निर्दिष्ट होता है जबकि अन्तर्नियमं वह विधि बताता है जिसके
अधीन ऋण प्राप्त किया जा सकता है । एक कम्पनी का संचालक अपने सीमानियम में
निर्दिष्ट सीमा तक ही ऋण ले सकता है। यदि सीमानियम में इस प्रकार की सीमा नहीं है
तो वह किसी भी सीमा तक ऋण ले सकता है ।
एक कम्पनी वैधानिक रूप से कब ऋण ले सकती है-
एक कम्पनी वैधानिक रूप से निम्नलिखित
दशाओं में ऋण ले सकती है-
1. एक व्यावसायिक कम्पनी को ऋण लेने का गर्भित
अधिकार है इसलिये वह सीमानियम में व्यवस्था न होने पर भी ऋण ले सकती है।
2. एक गैर-व्यावसायिक संस्था को ऋण लेने का गर्भित
अधिकार नहीं है। अतः जब तक उसका सीमानियम अधिकृत न करे वह ऋण नहीं ले सकती है
अर्थात् सीमानियम में स्पष्ट उल्लेख पर ही वह ऋण ले सकती है।
3. ऋण लेते समय सीमानियम तथा अन्तर्नियमों की व्यवस्था के अतिरिक्त कम्पनी अधिनियम व राजनियम के प्रावधानों का पालन करना अनिवार्य है। इन नियमों का उल्लंघन करने पर ये ऋण 'अधिकृत' तथा 'अधिकार’ से बाहर कहलाते हैं।
कम्पनी द्वारा ऋण लेने के अधिकारों पर प्रतिबन्ध-
एक कम्पनी के ऋण लेने के अधिकारों पर
निम्नलिखित प्रतिबन्ध हैं-
1. व्यापार प्रारम्भ करने से पूर्व ऋण-लेने का
अधिकार-
एक सार्वजनिक कम्पनी व्यापार प्रारम्भ
करने का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के बाद तथा निजी कम्पनी समामेलन के प्रमाण-पत्र
को प्राप्त करने के तुरन्त बाद ही ऋण प्राप्त कर सकती है पहले नहीं।
2. ऋण की वैधानिक सीमा-
कम्पनी अधिनियम की धारा 291 (1) के अनुसार,ऋण लेने की अधिकतम वैधानिक सीमा कम्पनी की दत्त
पूँजी तथा उसके स्वतन्त्र कोषों के योग के बराबर हैं।
3. सामान्य व्यापक सभा की सहमति से ऋण लेना-
यदि कुल ऋण की राशि कम्पनी की चुकता
पूँजी तथा मुक्त कोष के योग से अधिक है तो इसके लिए कम्पनी की सामान्य व्यापक सभा
में प्रस्ताव पारित कराकर सदस्यों की सहमति लेना आवश्यक है।
4. सीमानियम व अन्तर्नियम के अधीन ऋण-
यद्यपि व्यावसायिक कम्पनी को ऋण लेने का
गर्भित अधिकार है किन्तु सीमानियम व अन्तर्नियम के नियमों के विरुद्ध कम्पनी ऋण
नहीं ले सकती है यदि लेती है तो ऐसा ऋण अधिकारों के बाहर माना जायेगा।
5. प्रभार पर प्रतिबन्ध-
कम्पनी द्वारा ऋण लेने पर उसकी
सम्पत्तियों पर प्रभाव उत्पन्न हो जाता है । सीमानियम व अन्तर्नियम की विपरीत
व्यवस्था के अभाव में कम्पनी अपनी न माँगी गयी पूँजी पर प्रभाव उत्पन्न कर सकती है
किन्तु वह सुरक्षित पूँजी की प्रतिभूति पर कोई ऋण नहीं ले सकती।
कम्पनी द्वारा अधिकारों के बाहर ऋण लेने पर ऋणदाता को प्राप्त उपचार-
यदि कोई ऋणदाता कम्पनी को उसकी अधिकार
सीमा से अधिक ऋण देता है तो ऐसा ऋण अधिकार सीमा से बाहर ऋण कहलाता है एवं ऐसे ऋण
का ठहराव व्यर्थ तथा अपरिवर्तनीय है तथा उसके लिए कम्पनी के विरुद्ध ऋणदाता द्वारा
माँग नहीं की जा सकती है। परन्तु ऐसी दशा में ऋणदाता को अग्रलिखित उपचार प्राप्त
हैं-
(A) कम्पनी के विरुद्ध अधिकार-ऋणदाता को
कम्पनी के विरुद्ध अग्र अधिकार प्राप्त हैं-
1. कम्पनी के विरुद्ध निषेधाज्ञा-
यदि अधिकार से बाहर दिये गये ऋण की राशि
अथवा उक्त राशि से क्रय की गई सम्पत्ति जिसे कि पहचाना जा सकता है कम्पनी के पास
है, तो ऋणदाता कम्पनी के विरुद्ध न्यायालय से यह निषेधाज्ञा प्राप्त कर सकता
है कि कम्पनी उसे पृथक् रखे और उसका प्रयोग न करे व उसे ऋणदाता को वापस किया जाये।
2. ऋणदाताओं का स्थान ग्रहण-
यदि ऋण का उपयोग किसी पुराने ऋण का
भुगतान करने में किया गया है तब यह ऋणदाता पुराने ऋणदाताओं का स्थान ग्रहण कर सकता
है।
(B) संचालकों के विरुद्ध अधिकार-
यदि कम्पनी के संचालकों ने अपनी शक्ति
से बाहर ऋण लिया है तो ऋणदाता ऐसे संचालकों के विरुद्ध अधिकार सम्बन्धी गर्भित
आश्वासन को भंग करने के आधार पर क्षतिपूर्ति का वाद प्रस्तुत कर सकता है।
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