Doctrine of Ultra Vires का सिद्धान्त
प्रश्न 6. अधिकारों के बाहर सिद्धान्त (Doctrine of Ultra Vires) की व्याख्या कीजिए। अधिकारों के बाहर (Ultra vires Acts) कार्यों का प्रभाव समझाइए।
अथवा ‘’कम्पनी
के 'शक्ति से परे' (Ultra vires) और 'शक्ति के अन्दर' (Intra vires) व्यवहारों को समझाइए।
अथवा ‘’कम्पनी के अधिकारों
के बाहर' तथा 'अधिकारों के अन्तर्गत'
('Ultra vires' and 'Intra vires') व्यवहारों से आप क्या समझते हैं ?
पार्षद सीमानियम तथा पार्षद अन्तर्नियम के सन्दर्भ में उदाहरण देते
हए इस सिद्धान्त को समझाइए।
उत्तर-पार्षद सीमानियम कम्पनी के अधिकारों एवं उद्देश्यों को निर्धारित करता है तथा कम्पनी के कार्य क्षेत्र की सीमा निश्चित करता है। कोई भी कम्पनी पार्षद सीमानियम द्वारा प्रदत्त अधिकारों के बाहर कोई भी काम नहीं कर सकती । यदि कम्पनी ऐसा करती है तो उसके 'अधिकार के बाहर’ होगा अतः व्यर्थ होगा, इसी सिद्धान्त को 'अधिकारों का बाहर' का सिद्धान्त (Doctrine of Ultra vires) कहते है।
इस सम्बन्ध में Ashbury Railway Carriage and Iron Co. Vs. Riche का मामला (Case) महत्वपूर्ण है। वास्तव में इसी मामले के सम्बन्ध में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया।
'अधिकारों के बाहर' व्यवहार (Ultra vires' Transactions)
अधिकारों के बाहर का आशय कम्पनी द्वारा ऐसे कार्य करना जो कम्पनी को प्रदत्त वैधानिक अधिकारों से बाहर है । कम्पनी को अधिनियम द्वारा प्रदत्त अधिकार और सीमानियम द्वारा प्रदत्त अधिकार प्राप्त हैं। यदि कम्पनी इन दोनों या इनमें किसी एक की सीमा के बाहर कार्य करती है तो यह कार्य अधिकारों के बाहर कहलाता है जो व्यर्थ होता है और कम्पनी उस कार्य के लिए किसी भी दशा में बाधित नहीं होगी। अधिकारों को बाहर किये गये कार्यों को किसी भी प्रकार वैध नहीं बनाया जा सकता है चाहे कम्पनी के सभी सदस्यगण एकमत से प्रस्ताव पारित करके उसी की पुष्टि करें। । अधिकारों के बाहर किये गये कार्य निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-
(1) सीमानियम के अधिकारों के बाहर कार्य-
इसका आशय कम्पनी के ऐसे कार्यों से है
जो कि सीमानियम में प्रदान किये हुए अधिकारों के बाहर हैं; जैसे-कोई
ऐसा कार्य करना जो कि सीमानियम के उद्देश्य वाक्य के अन्तर्गत नहीं
है।
ऐसे कार्य पूर्णरूपेण से व्यर्थ हैं और
प्रवर्तनीय नहीं कराये जा सकते। ऐसे कार्य सभी सदस्यों की सहमति कराये जाने पर भी
प्रवर्तनीय नहीं कराये जा सकते। कम्पनी के उद्देश्यों का परिवर्तन करने के लिये
कम्पनी अधिनियम के अधीन बहत मित अधिकार हैं। सलिए सामान्य नियम यह है कि ऐसे
कार्यों का पष्टीकरण भी ही किया जा सन । जो कि सीमानियम के अधिकारों के बाहर है।
यहाँ इस सिद्धान्त का उद्देश्य अंशधारियों की रक्षा करना है जिससे
कि उनकी पूँजी का प्रयोग उन कार्यों के अतिरिक्त किन्हीं अन्य कार्यों में न हो
जिसके लिए वह अंश खरीदते समय अभिप्राय रखते थे।
(2) अन्तर्नियमों के अधिकारों के बाहर' परन्तु सीमानियम के अधिकारों के अन्तर्गत कार्य-
इसका आशय ऐसे कार्यों से है जो कि कम्पनी
के अन्तर्नियमों के क्षेत्र से बाहर हैं परन्तु सीमानियम के आधीन अधिकारों के
अन्तर्गत है। उदाहरण के लिए, पहले से प्रदत्त मांगों पर अन्तर्नियमों की
व्यवस्थाओं की अपेक्षा अधिक दर से ब्याज़ देना।
ऐसे कार्य व्यर्थ हैं, परन्तु
कम्पनी व्यापक सभा में विशेष प्रस्ताव द्वारा अन्तर्नियमों का परिवर्तन कर सकती है
और किसी भी ऐसे अनाधिकृत कार्य का पुष्टीकरण कर सकती है।
(3) संचालकों को अधिकारों के बाहर' परन्त कम्पनी के अधिकारों के अन्तर्गत' कार्य-
इसका आशय ऐसे कार्यों से है जो कि
संचालकों के अधिकारों के, बाहर है परन्तु कम्पनी के अधिकारों के अन्तर्गत
है। उदाहरण के लिए, कम्पनी के किसी कर्मचारी को उपहार का
भुगतान करना जबकि संचालकों को ऐसा करने का अधिकार नहीं है, अथवा
अन्तर्नियमों में दी हुई सीमा से अधिक ऋण लेना। ऐसे कार्य यद्यपि संचालकों के
अधिकारों के बाहर हैं परन्तु कम्पनी के अधिकारों के अन्तर्गत, क्योंकि कम्पनी अधिनियम के अधीन ऐसे कार्यों के लिए व्यवस्था है।
कम्पनी व्यापक सभा में साधारण प्रस्ताव
द्वारा ऐसे अनाधिकृत कार्य का पुष्टीकरण कर सकती है। यदि कम्पनी संचालकों को
भविष्य के लिए ऐसे अतिरिक्त अधिकार देना चाहती है जिनकी व्यवस्था अन्तर्नियमों में
नहीं हैं तो अन्तर्नियमों का परिवर्तन करने के लिए विशेष प्रस्ताव स्वीकार किये
जाने की आवश्यकता होगी।
अधिकारों के बाहर' कार्यों के लिए दायित्व
(1) प्रधान रूप में कम्पनी किसी भी अधिकार के बाहर
अनुबन्धों के लिए बाध्य नहीं है और उसके लिए कम्पनी के विरुद्ध वाद प्रस्तुत नहीं
किया जा सकता। कुछ दशाओं में संचालकों का तीसरे पक्षकारों के प्रति हानि पूर्ति के
लिए वैयक्तिक दायित्व हो जाता है। ऐसा उस दशा में होता है जबकि संचालकों की ओर से
यह गर्भित आश्वासन था कि वह उन विशेष अनुबन्धों को करने के लिए अधिकृत थे जो कि
तीसरे पक्षकारों के साथ किये गये थे।
(2) अंशधारी भी संचालकों के विरुद्ध कार्यवाही कर
सकते हैं। यदि कम्पनी का धन अधिकारों के बाहर' कार्यों में
व्यय किया जा रहा है।
(3) जब कोई कम्पनी पार्षद सीमानियम के क्षेत्र से
बाहर कोई कार्य करना चाहती है, तो कम्पनी का कोई सदस्य
न्यायालय से निषेधाज्ञा प्राप्त कर सकता है। जब संचालकगण कोई ऐसा कार्य करना
प्रस्तावित करते हैं जो कि उनके अधिकारों के बाहर है, तब भी
किसी सदस्य द्वारा ऐसी निषेधाज्ञा प्राप्त की जा सकती है।
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