सेण्ट ऑगस्टाइन के राजनीतिक विचार

प्रश्न 1. राजनीतिक विचारों के इतिहास में सेण्ट ऑगस्टाइन का स्थान निर्धारित कीजिए।

अथवा "सेण्ट ऑगस्टाइन के सर्वोत्तम राजनीतिक विचार वे हैं जो दो नगरों तथा ईश्वर का नगर, के चारों ओर केन्द्रित हैं और जिनमें न्याय तथा शान्ति के महत्त्व का प्रतिपादन है।" इस कथन की व्याख्या कीजिए।

अथवा ''सेण्ट ऑगस्टाइन के 'दो नगरों के सिद्धान्त' की विवेचना कीजिए।

अथवा ''राजनीतिक विचारों के क्षेत्र में सेण्ट ऑगस्टाइन के योगदान का उल्लेख कीजिए।

उत्तर- मध्य युग के विचारकों में सेण्ट ऑगस्टाइन का नाम विशेष महत्त्व रखता है। उसका जन्म 354 ई. में अफ्रीका के टैगस्टे नामक नगर में हुआ था। उसके पिता का नाम पैट्रोसिक्स तथा माता का नाम मोनिका था। उसकी माँ ईसाई धर्म में विश्वास रखती थी, किन्तु पिता का इस धर्म में विश्वास न था। इस प्रकार सेण्ट ऑगस्टाइन सेण्ट ऐम्ब्रीज के प्रभाव से ईसाई बना था और अपने ही प्रान्त हितों का बिशप भी बन गया। उसके विचार उसकी पुस्तक 'City of God' में संकलित हैं।

augustine ke do nagro ka sidhant

पृष्ठभूमि-

जिस समय सेण्ट ऑगस्टाइन का प्रादुर्भाव हुआ उस समय रोम साम्राज्य नष्ट हो चुका था। मूर्तिपूजक ईसाइयत पर आरोप लगा रहे थे और कह रहे थे कि यही रोम के पतन का कारण है। उनका मत था कि प्राचीन देवता रोम को विजय दिलाते थे, ईसाइयत रोम का पतन कर रही है। 

ईसाई धर्म में भी कलह-उत्पन्न हो गई थी। सिद्धान्तों पर विभिन्नता का झगड़ा उठ रहा था। पदलोलुपता,  सम्पत्ति लालसा, अनुशासनहीनता आदि लोगों में बढ़ रही थी। अतः इन समस्याओं के समाधान की बात सेण्ट ऑगस्टाइन के ध्यान में थी। उसे तीन प्रकार के कार्य करने पड़ते थे

(1) उसे यह सिद्ध करना था कि रोम के पतन का कारण ईसाई धर्म नहीं वरन् ऐतिहासिक तथ्य है।

(2) ईसाई धर्म के विरोधियों से सामना करना।

(3) ईसाई धर्म को सर्वव्यापी और शक्तिशाली बनाना।

इन कार्यों को उसने भली प्रकार किया तथा सफलता भी प्राप्त की। इन उद्देश्यों की प्राप्ति में उसने कुछ ऐसे सिद्धान्तों की रचना कर डाली जो मध्य युग में तथा आधुनिक काल में प्रयोग में लाए गए।

सेण्ट ऑगस्टाइन का राजनीतिक चिन्तन

सेण्ट ऑगस्टाइन के प्रमुख राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं  -

(1) दो नगरों का सिद्धान्त-

सेण्ट ऑगस्टाइन के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति दो नगरों (राज्यों) का सदस्य होता है, पहला हैसांसारिक नगर और दूसरा हैईश्वरीय नगर। सांसारिक नगर नश्वर और अस्थायी है तथा ईश्वरीय नगर सनातन, स्थायी व शाश्वत है। ये दोनों नगर मनुष्य स्वभाव की दोहरी प्रकृति से सम्बन्धित हैं, जो शरीर और आत्मा के रूप में प्रकट हैं । सांसारिक नगर का सम्बन्ध उसके शरीर से है और ईश्वरीय नगर का सम्बन्ध उसकी आत्मा से है। मनुष्य की वासनाएँ, पद प्राप्ति की आकांक्षाएँ सांसारिक नगर से सम्बन्धित हैं और उसकी आध्यात्मिक और नैतिक उत्थान की भावनाओं का आधार उसकी ईश्वरीय नगर को सदस्यता है। सांसारिक नगर शैतान से प्रशासित है, जबकि ईश्वरीय नगर ईश्वर द्वारा संचालित है।

फोस्टर के अनुसार,राजनीतिक विचारधाराओं के सन्दर्भ में सेण्ट ऑगस्टाइन के सबसे महत्त्वपूर्ण विचार वे हैं जो उसकी दो राज्यों की धारणा में केन्द्रीभूत होते हैं।"

(2) ईश्वरीय नगर

सेण्ट ऑगस्टाइन ने ईश्वरीय नगर की कल्पना की थी। यह विचारधारा स्टोइक विचारधारा से काफी कुछ प्रभावित है। ऑगस्टाइन इस नगर की कल्पना कहीं स्वर्ग में न करके इस पृथ्वी पर ही करता है। उसके अनुसार इसे पाने के लिए ईसाई होना आवश्यक है, अतः इसमें व्यक्ति का प्रवेश चर्च के माध्यम से ही हो सकता है। इसके सदस्य ईश्वर की कृपा करने वाले  फरिश्ते और मृत व्यक्ति भी होते हैं। इस प्रकार ईश्वरीय नगर उन सब व्यक्तियों से मिलकर बनता है जो या तो वर्तमान में चर्च के सदस्य हैं या अतीत में उसके सदस्य रह चके हैं। अत: चर्च ईश्वरीय राज्य का एक अंश मात्र है, जिसमें वे सदस्य सम्मिलित हैं जो उच्च ईश्वरीय नगर में पहुँचने की यात्रा पर हैं ।

सेण्ट ऑगस्टाइन के अनुसार चर्च और ईश्वरीय नगर के मध्य जो सम्बन्ध है उसके बारे में फोस्टर ने लिखा है, "यह ईश्वरीय नगर का वह भाग है जिसमें वे सब सदस्य सम्मिलित हैं जो सभी अपनी विश्व यात्रा ही कर रहे हैं और वे सब जो ईश्वरीय राज्य के सदस्य हैं, इससे गुजर चुके हैं।"

इस प्रकार चर्च वह मार्ग है जिसका अनुसरण करके ईश्वरीय नगर की सदस्यता को प्राप्त किया जा सकता है।  संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि सेण्ट ऑगस्टाइन द्वारा प्रतिपादित दो राज्यों की धारणा दो प्रकार की जीवन-पद्धतियों की प्रतीक है। ईश्वरीय राज्य ईसाई चर्च व्यवस्था एवं आध्यात्मिक जीवन-पद्धति का प्रतीक है, जो शाश्वत है और सांसारिक राज्य और ईसाइयों द्वारा संगठित, बौद्धिक, लौकिक एवं भौतिक जीवन-पद्धति का परिचायक है।

ईश्वरीय नगर की विशेषताएँ-

सेण्ट ऑगस्टाइन ने अपने ईश्वरीय नगर की निम्न विशेषताओं का उल्लेख किया है   -

(1) न्याय-

सेण्ट ऑगस्टाइन की न्याय सम्बन्धी विचारधारा बहुत कुछ प्लेटो की भाँति है। उसके मतानुसार व्यवस्था के प्रति अनुकूलता और इससे उत्पन्न होने वाले कर्तव्यों का पालन न्याय है। यदि मनुष्य इन कर्त्तव्यों का पालन, करता है तो यह न्यायी है।

(2) शान्ति-

सेण्ट ऑगस्टाइन के ईश्वरीय राज्य का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व शान्ति है। उसके मतानुसार वास्तविक शान्ति उस व्यवस्था को प्रतीक है जिसमें समाज के प्रत्येक भाग में सद्भावनापूर्ण सामंजस्य का भाव विद्यमान होता है और जिसके फलस्वरूप व्यक्ति का जीवन पूर्णतया सुखमय और सन्तोषप्रद होता है। इस प्रकार उसके मत में शान्ति एक भावात्मक विचार है, जो शाश्वत शान्ति का प्रतीक है। उसने दो प्रकार की शान्ति का वर्णन किया है-

सांसारिक शान्ति तथा आध्यात्मिक शान्ति

उसने समाज में प्रत्येक प्रकार की शान्ति की स्थापना में निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक माना है  -

(i) सभी मनुष्यों को प्रेम व सद्भाव के साथ रहना चाहिए।

(ii) सभी मनुष्य एक सार्वभौम व्यवस्था के अन्दर होने चाहिए।

(3) राज्य सम्बन्धी विचार

सेण्ट ऑगस्टाइन की मान्यता है कि मनुष्य को पापमय जीवन से मुक्त करने के लिए ईश्वर द्वारा राज्य की स्थापना की गई है। अतः राज्य की उत्पत्ति ईश्वरीय है और राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है। अतः प्रत्येक मनुष्य को राज्य की आज्ञा का पालन करना अनिवार्य है, लेकिन राज्य की उत्पत्ति का दैवीय उद्गम होते हुए यह ईश्वरीय राज्य नहीं है, क्योंकि इससे शैतान की सत्ता स्थापित होती है। अत: उसकी आज्ञा वहीं तक माननी चाहिए जहाँ तक वह धर्म सम्मत हो। यदि वह धर्म के विरुद्ध आज्ञा देता है, तो उसका पालन नहीं किया जाना चाहिए। सेण्ट ऑगस्टाइन ने चर्च को राजा से ऊँचा दर्जा दिया, क्योंकि उसके अनुसार न्याय चर्च द्वारा ही सम्भव है, राज्य द्वारा नहीं। उसके अनुसार राज्य और चर्च एक-दूसरे का साथ ही सम्भव हैं अर्थात् वह इन्हें एकदूसरे का पूरक मानता है।

(4) राज्य के कार्य-

सेण्ट ऑगस्टाइन पृथ्वी पर राज्य को शान्ति व व्यवस्था की स्थापना का साधन मानता है, अत: वह राज्य में शान्ति व व्यवस्था की स्थापना को प्रमुख कार्य मानता है। वह नागरिकों के प्रदत्त अधिकारों को महत्त्व नहीं देता, अपितु शासक की व्यवस्था को ही महत्त्व देता है। वे शासन तन्त्र जो प्रजातन्त्र को स्वीकार करते हैं, यदि शान्ति व सुरक्षा नहीं रख पाते तो वे बिल्कुल निरर्थक हैं। इसके विपरीत यदि निरंकुश तन्त्र शान्ति स्थापित कर लेता है, तो वही श्रेष्ठ है।

(5) सम्पत्ति व दासता सम्बन्धी विचार

सेण्ट ऑगस्टाइन व्यक्तिगत सम्पत्ति के अधिकार का समर्थन करता है। उसकी यह मान्यता है कि सम्पत्ति के अभाव में मनुष्य अपने लौकिक और आध्यात्मिक जीवन के उत्तरदायित्वों का निर्वाह नहीं कर सकता, लेकिन उसने यह मत व्यक्त किया कि मनुष्य को उतनी ही सम्पत्ति रखने का अधिकार है जितनी कि उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।

इसी तरह सेण्ट ऑगस्टाइन के द्वारा इस दास-प्रथा का भी समर्थन किया गया है, लेकिन इस सम्बन्ध में उसका विचार है कि दास-प्रथा मनुष्य द्वारा किए गए पापपूर्ण कार्यों का परिणाम है, जो दण्ड के रूप में अपनी आत्मा का परिष्कार करने के लिए ईश्वर द्वारा प्रदान किया गया है। दासता मनुष्य के पतन का फल है। वह उसके पापों का ईश्वरीय उपचार है।

सेण्ट ऑगस्टाइन का प्रभाव यद्यपि सेण्ट ऑगस्टाइन के विचार क्रमबद्ध नहीं हैं, फिर भी उसने पूर्व की विचारधाराओं का अध्ययन किया था। उसके विचारों का प्रभाव आगामी विचारकों पर भी पड़ा। 

प्रो. सेबाइन के अनुसार, "उसकी रचनाएँ विचारों का वह कोश थीं जिससे बाद में कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्टों ने अपने मतलब की बातों को निकाला।"

इस प्रकार हम देखते हैं कि उसके विचारों से न केवल इस प्रकार के लोग प्रभावित हुए वरन् आधुनिक युग की विचारधारा पर भी उनका गहरा प्रभाव पड़ा। पवित्र रोमन साम्राज्य का आधार स्तम्भ सेण्ट ऑगस्टाइन के ही विचार थे। त्रासीमैगन और ओटो महान् ऑगस्टाइन से ही प्रभावित थे। उसी के विचार से आगे आने वाले विचारकों ने चर्च की स्वतन्त्रता की बात की। मध्य युग के सार्वभौमिकवाद के आधार भी हमें उसकी विचारधारा से प्राप्त होते हैं। उसका प्रभाव बहुत अधिक समय तक रहा। साथ ही साथ हम यह भी कह सकते हैं कि वह एक नये युग का स्रष्टा भी था। उसने धर्म की आवाज को बुलन्द किया और उसके राजनीति में प्रवेश पर बल दिया। उसने अपनी वाणी द्वारा ईसाई मत को राजनीति में प्रतिष्ठा प्रदान की।

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