राजनीतिक दल-बदल क्या है ?

प्रश्न 07. राजनीतिक दल-बदल क्या है ? इसके कौन-कौन से प्रमुख कारण हैं तथा इसे किस प्रकार रोका जा सकता है?

अथवा ''भारत में दल-बदल की राजनीति पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।

उत्तर-

दल-बदल का अर्थ

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता और दोष दल-बदल है। राज्यों की राजनीति व शासन में दल-बदल ने इतनी अस्थिरता उत्पन्न कर दी है कि संसदीय लोकतन्त्र का अस्तित्व ही खतरे में दिखाई देता है। अगस्त, 1984  में आन्ध्र प्रदेश तथा अक्टूबर, 1997  में उत्तर प्रदेश में जो कुछ हुआ, वह इसका उदाहरण है।

चहाण समिति ने दल-बदल की परिभाषा इस प्रकार की है, "यदि कोई व्यक्ति किसी राजनीतिक दल के सुरक्षित चुनाव चिह्न पर संसद के किसी सदन अथवा किसी राज्य या संघ शासित क्षेत्र की विधानसभा या विधान परिषद् का सदस्य निर्वाचित होने के पश्चात् स्वेच्छा से उस राजनीतिक दल के प्रति अपनी निष्ठा का परित्याग करता है या उस राजनीतिक दल से सम्बन्ध तोड़ता है और उसका यह कार्य उसके दल के किसी सामूहिक निर्णय का परिणाम नहीं है, तो ऐसा करना दल-बदल कहलाएगा।"

राजनीतिक दल-बदल क्या है ?

सुभाष कश्यप ने दल-बदल की परिभाषा अपनी पुस्तक दल-बदल और राज्यों की राजनीति' में इस प्रकार दी है, "जब कोई विधायक व्यक्तिगत रूप से अथवा सैद्धान्तिक मतभेदों के कारण अपने दल से त्याग-पत्र दे देता है या नया राजनीतिक दल बना लेता है या दल की सदस्यता का त्याग किए बिना ही उस दल के विरुद्ध सदन में मतदान करता है, तो उसे राजनीतिक दल-बदल कहते हैं।"

जयप्रकाश नारायण के अनुसार, "विधानमण्डल के लिए निर्वाचित कोई भी सदस्य, जिसे किसी राजनीतिक दल का सुरक्षित चुनाव चिह्न मिला था, यदि वह चुने जाने के पश्चात् उस राजनीतिक दल से अपने सम्बन्ध तोड़ लेने या उसमें अपनी आस्था समाप्त करने की घोषणा करता है, तो उसे दल-बदल ही समझा जाना चाहिए, बशर्ते उसकी कार्यवाही सम्बद्ध पार्टी के फैसले के अनुसार न हो।"

इस प्रकार राजनीतिक दल-बदल का अर्थ है  -

(1) किसी विधायक द्वारा उस पार्टी को छोड़ देना जिसके टिकट पर वह चुना गया है और दूसरे दल में चला जाना।

(2) किसी दल को छोड़कर विधायक का निर्दलीय हो जाना।

(3) निर्दलीय रूप में विधायक बनना और बाद में किसी दल की सदस्यता ग्रहण कर लेना।

(4) किसी विधायक का मूल सिद्धान्तों पर अपने दल की नीतियों के विरुद्ध मतदान करना।

चौथे आम चुनावों के पश्चात् दल-बदल

वैसे तो भारतीय राजनीति में सन् 1952 से ही दल-बदल की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई थी जब मद्रास के राज्यपाल ने कांग्रेसी नेता राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया और उन्होंने 16 विधायकों को कांग्रेस में मिलाकर सरकार बनाई। परन्तु सन् 1967 के आम चुनावों के बाद से तो दल-बदल अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई। मार्च, 1967 से दिसम्बर, 1970 तक 4,000 विधायकों में से 1,400 विधायकों ने दल बदले, फलस्वरूप प्रान्तों में नई सरकारें बनती रहीं, टूटती रहीं और राष्ट्रपति शासन लागू होता रहा। कारण यह था कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् पहली बार सन् 1967 में कई राज्यों में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला। अत: सत्ता प्राप्ति के लिए कांग्रेस तथा संविद, दोनों ने ही दल-बदल को प्रोत्साहन दिया और फिर तो जैसे राजनीतिक दल-बदल को मानो राजनीतिक मान्यता ही मिल गई हो।

यद्यपि दल-बदल विदेशों में भी होता है, वहाँ केवल विधायक के राजनीतिक विचारों में परिवर्तन व दल से मौलिक मतभेद के कारण दल-बदल होता है। भारत की तरह केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ या कुर्सी पाने के लिए 'दल-बदल' नहीं होता है।

भारत में राजनीतिक दल-बदल के कारण

भारत में राजनीतिक दल-बदल के कारण निम्नलिखित हैं  -

(1) कांग्रेस के एकाधिकार की समाप्ति  -

चौथे आम चुनावों (1967) में 4 राज्यों में कांग्रेस का बहुमत समाप्त हो गया था, परन्तु विरोधी दलों को भी बहुमत नहीं मिला। सन् 1967 के आम चुनावों ने तो स्थिति में एकदम परिवर्तन ला दिया। कोई-कोई विधायक तो एक दिन में कई-कई बार दल-बदल करने लगा।

(2) राजनेताओं में परस्पर मतभेद व कांग्रेस में गुटबन्दी

सन् 1967 के चुनावों के पश्चात् भारत में दल-बदल का जो दौर आरम्भ हुआ, उसके लिए  विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं में प्रतिद्वन्द्विता तथा आपसी मतभेद उत्तरदायी थे। उत्तर प्रदेश में श्री चन्द्रभान गुप्त के नेतृत्व में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल का पतन चौ. चरणसिंह द्वारा दल बदलने के कारण हुआ। चुनावों के पूर्व चौ. चरणसिंह भी मुख्यमन्त्री पद के प्रत्याशी थे, परन्तु चुनावों के पश्चात् चन्द्रभान गुप्त ही कांग्रेस विधायक दल के नेता निर्वाचित हए। संयुक्त विधायक दल (संविद) की ओर से चौ. चरणसिंह को मुख्यमन्त्री बनाने की पेशकश की गई। अत: चौ. चरणसिंह ने सदन में राज्यपाल के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर मतदान के समय ही कांग्रेस से त्याग-पत्र देकर 'जन कांग्रेस' नामक नये दल की स्थापना की घोषणा की। चौ. चरणसिंह के इस ऐतिहासिक दल-बदल के पश्चात् उत्तर प्रदेश में गुप्त मन्त्रिमण्डल का पतन हुआ तथा श्री सिंह के नेतृत्व में संविद सरकार बनी।

(3) सत्ता एवं मन्त्री पद का प्रलोभन

दल-बदल की घटमाओं के पीछे एक महत्त्वपूर्ण कारण राजसत्ता तथा मन्त्री पद का आकर्षण था। सन् 1967 के आम चनावों के पश्चात प्रथम वर्ष में हुई दल-बदल में लगभग 215 दल-बदल विधायकों को विभिन्न सरकारी आयोगों तथा निगमों का अध्यक्ष बनाया गया। इस दौरान विधायकों में प्रबल राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएँ जाग्रत हो गई थीं। अतः दल-बदल का सिलसिला चलता रहा।

(4) राज्यों में स्थिर सरकार का होना  -

दल-बदल की घटनाओं के लिए एक महत्त्वपूर्ण कारण सन् 1967 के चुनावों के पश्चात् राज्यों में स्थिर सरकार का न बनना था। अधिकांश राज्यों में कांग्रेस अथवा गैर-कांग्रेस सरकारें एक या दो विधायकों के बहुमत से चल रही थीं। इस राजनीतिक अनिश्चितता की स्थिति ने भी दल-बदल की घटनाओं को बढ़ावा दिया।

(5) गैर-कांग्रेसी संविद सरकारों का संगठन राजनीतिक ध्रुवीकरण के आधार पर न होना  -

इस दौर में राजनीतिक दल-बदल के लिए संविद सरकारों में सम्मिलित घटकों के राजनीतिक विचार में विरोधाभास पाया जाना भी उत्तरदायी था। कांग्रेस के विकल्प के रूप में जहाँ-जहाँ संविद सरकारें बनीं, वहाँ उनमें एक ओर तो जनसंघ तथा स्वतन्त्र पार्टी जैसे कट्टर दक्षिणपंथी दल और दूसरी ओर भारतीय साम्यवादी दल जैसे वामपंथी दल भी सम्मिलित थे, जिनके फलस्वरूप दल-बदल को प्रोत्साहन मिला।

(6) शक्तिशाली लॉबियों तथा दबाव गुटों की भी भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका  -

सन् 1967 के आम चुनावों के पश्चात् राजनीतिक अस्थिरता के दौर से भारतीय राजनीति में विभिन्न लॉबियों तथा दबाव गुटों का महत्त्व बढ़ गया। इन लॉबियों के दबाव के कारण विधायकों को भी विवश होकर अपनी राजनीतिक निष्ठा में परिवर्तन करना पड़ा। कोई विधायक इन लॉबियों तथा दबाव गुटों को नाराज करके अपने भविष्य को असुरक्षित नहीं करना चाहता था।

(7) राष्ट्रीय स्तर के नेता का अभाव

दल-बदल की घटनाओं में वृद्धि का एक उल्लेखनीय कारण एक ऐसे राष्ट्रीय स्तर के नेता का अभाव था जो विभिन्न घटकों में समन्वय रख सकता। इसी प्रकार कांग्रेस के अन्दर भी गुटबन्दी को नियन्त्रित करने के लिए नेहरू की मृत्यु के पश्चात् राष्ट्रीय स्तर का व्यक्तित्व नहीं था। इस समय तक श्रीमती गांधी का राजनीतिक व्यक्तित्व पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाया था।

(8) चुनाव के लिए पार्टी का टिकट न मिलना  -

जब किसी दल के किसी सदस्य को या उसके साथी को पार्टी टिकट नहीं मिलता है, तो वह उस दल को छोड़ देता है।

दल-बदल रोकने के लिए प्रयास

सन् 1968  में कांग्रेसी संसद सदस्य बैंकट सुबैय्या द्वारा लोकसभा में एक गैर-सरकारी प्रस्ताव प्रस्तुत किया मया। 24 नवम्बर को इस विधेयक को लोकसभा द्वारा पारित किया गया। फरवरी, 1969 में लोकसभा ने दल-बदल की समस्या का अध्ययन करने, इसे रोकने एवं सुझाव देने के लिए तत्कालीन गृह मन्त्री श्री वाई. बी. चह्वाण की अध्यक्षता में एक समिति गठित की, जिसने निम्नलिखित सिफारिशें प्रस्तुत की  है।  -

(1) सभी राजनीतिक दल आम सहमति से एक ऐसी संहिता बनाएँ जो लोकतान्त्रिक तथा नैतिक मूल्यों पर आधारित हो। सभी राजनीतिक दल स्वेच्छा से इसका पालन करें।

(2) चह्वाण समिति की दूसरी महत्त्वपूर्ण सिफारिश यह थी कि जो विधायक दल-बदल करें, उन्हें मन्त्री न बनाया जाए। अतः जब विधायकों के सामने सत्ता तथा मन्त्री पद का आकर्षण नहीं होगा, तो दल-बदल के लिए उन्हें प्रोत्साहन नहीं मिलेगा।

(3) समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि प्रधानमन्त्री अथवा मुख्यमन्त्री को निचले सदन का प्रतिनिधित्व करना चाहिए।

(4) चह्वाण समिति की एक सिफारिश यह थी कि मन्त्रिमण्डल का आकार सीमित किया जाना चाहिए।

(5) समिति की एक सिफारिश यह भी थी कि देश के राजनीतिक संगठनों तथा प्रतिनिधि संस्थाओं का मार्गदर्शन करके समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए तथा इसके लिए निर्देशक सिद्धान्त निश्चित किए जाने चाहिए।

(6) समिति ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि मन्त्रिपरिषद को । विधानसभा भंग करने की सिफारिश करने का अधिकार प्राप्त करना चाहिए, ताकि दल-बदलुओं की सरकार के निर्माण तथा पतन में कोई भूमिका न रहे।

(7) इस समिति ने यह भी सुझाव दिया कि जनता द्वारा मनोनीत प्रतिनिधियों को यदि आवश्यक हो तो निर्वाचन द्वारा प्रत्यावर्तन की व्यवस्था की जाए।

(8) समिति ने दल-बदल को रोकने के लिए यह सिफारिश की थी कि दल-बदलुओं को विधानमण्डल की सदस्यता के लिए अयोग्य ठहरा दिया जाए। इसके लिए 'जनप्रतिनिधित्व कानून' में आवश्यक संशोधन भी किया जाए।

(9) निर्वाचित विधायकों को तब तक उसी दल से सम्बन्धित माना जाए जिसके चुनाव चिह्न पर उन्होंने चुनाव जीता है, जब तक कि वे विधानसभा की सदस्यता से त्याग-पत्र देकर दोबारा चुनाव नहीं लड़ते।

राजनीतिक दल-बदल के प्रभाव

इसके अनेक दूषित प्रभाव निम्न प्रकार दृष्टिगोचर हुए हैं। -

(1) राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हुई है।

(2) नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है।

(3) छोटे-छोटे दलों का उदय हुआ है।

(4) मन्त्रिमण्डलों का अनावश्यक विस्तार होता रहता है।

(5) जन-कल्याण की उपेक्षा की जाती रही है।

(6) प्रजातान्त्रिक आस्थाओं में जनता का विश्वास कम हुआ है।

जनता पार्टी सरकार द्वारा दल-बदल रोकने का प्रयास

जनता पार्टी की सरकार ने दल-बदल को रोकने के लिए एक विधेयक (48वाँ संशोधन विधेयक) 1978 में रखा, परन्तु जनता पार्टी में ही सदस्यों के परस्पर विरोधी विचारों के कारण यह विधेयक वापस ले लिया गया। इस विधेयक का विरोध जनता पार्टी के महासचिव श्री मधु लिमये द्वारा प्रमुख रूप से किया गया।

मई, 1982  में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री श्यामलाल शकधर ने दल-बदल रोकने के लिए सुझाव दिया कि ऐसे सदस्य जो दल-बदल करते हैं, उनकी विधायक पद से सीट रिक्त घोषित कर दी जानी चाहिए।

दल-बदल रोकने हेतु 52वाँ संविधान संशोधन अधिनियम

संसद ने दल-बदल पर रोक लगाने के लिए 52वाँ संविधान संशोधन अधिनियम सन् 1985  में सर्वसम्मति से पारित कर दिया। इसकी प्रमुख व्यवस्थाएँ निम्नलिखित हैं  -

(1) निम्न परिस्थितियों में संसद/विधानसभा की सदस्यता की समाप्ति हो  I

(i) यदि वह स्वेच्छा से अपने दल से त्याग-पत्र दे दे।

(ii) यदि वह अपने दल या उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति की अनुमति के बिना सदन में उसके निर्देश के प्रतिकूल मतदान करे या मतदान में अनुपस्थित रहे, परन्तु यदि 15 दिन के अन्दर दल उसे इस उल्लंघन के लिए क्षमा कर दे, तो उसकी सदस्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

(iii) यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाए।

(iv) यदि कोई मनोनीत सदस्य शपथ लेने के 6 माह बाद किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाए।

(2) किसी राजनीतिक दल के विघटन पर सदस्यता समाप्त नहीं होगी, यदि मूल दल के एक-तिहाई सांसद/विधायक दल छोड़ दें।

(3) इसी प्रकार विलय की स्थिति में भी दल-बदल नहीं माना जाएगा, यदि किसी दल के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य उसकी स्वीकृति दें।

(4) दल-बदल पर उठे किसी भी प्रश्न पर अन्तिम निर्णय सदन के अध्यक्ष का होगा और किसी भी न्यायालय को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा।

(5) सदन के अध्यक्ष को इस विधेयक को कार्यान्वित करने के लिए नियम बनाने का अधिकार होगा।

निष्कर्ष-विगत कुछ वर्षों में दल-बदल विरोधी कानून के प्रयोग और व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और विधायिका के मध्य संघर्ष की घटनाएँ सामने आई हैं। फरवरी, 1992 में तत्कालीन लोकसभा स्पीकर शिवराज पाटिल ने एक सर्वदलीय बैठक बुलाई, जिसमें इस प्रश्न पर आम सहमति थी कि दल-बदल विरोधी कानून में उपयुक्त संशोधन किए जाएँ, ताकि न्यायपालिका और विधायिका के मध्य टकराव की स्थिति न आए। अक्टूबर, 1997 में उत्तर प्रदेश में होने वाली दल-बदल की घटनाओं ने दल-बदल विरोधी कानून की खामियों को उजागर कर दिया है। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, जनता दल और बहुजन समाज पार्टी जैसे राजनीतिक दलों को दल-बदल के कारण बिखराव की स्थिति का सामना करना पड़ा है। परिणामतः विभिन्न राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दलों की ओर से यह माँग की जा रही है कि दल-बदल विरोधी कानून की व्यवस्थाओं को और कठोर बनाया जाए तथा व्यक्तिगत और सामूहिक, सभी प्रकार के दल-बदल के परिणामस्वरूप सदन की सदस्यता समाप्त की जानी चाहिए। अक्टूबर, 1997 में शिमला में आयोजित विधानमण्डलों के स्पीकरों के सम्मेलन में सभी प्रकार के दल-बदल को रोकने के लिए कानून बनाए जाने के सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित किया गया।

 

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