हीनार्थ प्रबन्धन/घाटे की वित्त व्यवस्था क्या है ?
प्रश्न 5. हीनार्थ प्रबन्धन अथवा घाटे की वित्त व्यवस्था से क्या आशय है ? इसके दुष्परिणामों को दूर करने के लिए आप किन उपायों को उपयुक्त समझते
अथवा ''घाटे की वित्त व्यवस्था का क्या
अभिप्राय है ? इसके प्रमुख उद्देश्यों एवं प्रभावों की विवेचना
कीजिए।
अथवा ''भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में
घाटे की वित्त व्यवस्था के औचित्य को समझाइए। इसकी सीमाएँ क्या हैं?
अथवा '' हीनार्थ प्रबन्धन से आप क्या
समझते हैं ? इसके प्रमुख उद्देश्यों की विवेचना करते हुए
हीनार्थ प्रबन्धन की विधियाँ बताइए।
उत्तर–सामान्य
बोलचाल की भाषा में जब सरकार का व्यय उसकी आय से अधिक हो जाता है, तो
उसका बजट घाटे का होता है। इस घाटे को पूरा करने के लिए जो व्यवस्था की जाती है,
उसे 'हीनार्थ प्रबन्धन' अथवा 'घाटे की वित्त यवस्था' कहते हैं। पश्चिमी देशों में यदि सरकार ऋणों द्वारा अपने बजट के घाटे को परा
करती है तो उसे घाटे की वित्त व्यवस्था कहते हैं, जबकि भारत
में घाटे हैं?
की वित्त व्यवस्था तभी होती है जब सरकार
अपने नकद कोषों में कमी करके अथवा केन्द्रीय बैंक से ऋण लेकर अपने घाटे को पूरा
करती है। इस प्रकार भारत में घाटे की वित्त व्यवस्था का आशय बजट के घाटे की पूर्ति
हेतु अतिरिक्त मुद्रा का निर्गमन करने से है।
डॉ. वी. के. आर. वी. राव के अनुसार, "जब सरकार जान-बूझकर किसी उद्देश्य से अपनी आय से अधिक व्यय करे और इस घाटे की पूर्ति किसी भी ऐसी विधि से करे जिससे देश में धातु, पत्र या साख मुद्रा की मात्रा बढ़े, तो उसे हीनार्थ प्रबन्धन कहना चाहिए।"
आर. जी. कुलकर्णी के अनुसार, "हीनार्थ प्रबन्धन वाक्यांश का प्रयोग सार्वजनिक आय और सार्वजनिक व्यय के
मध्य जान-बूझकर उत्पन्न किए गए अन्तर की वित्त व्यवस्था को सूचित करने के लिए किया
जाता है।"
योजना आयोग के अनुसार, "हीनार्थ प्रबन्धन शब्द का प्रयोग बजट के घाटे द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्रीय
व्यय में प्रत्यक्ष वृद्धि के लिए किया जाता है, चाहे यह कमी
आयगत खाते से हो अथवा पूँजीगत खाते से।"
हीनार्थ प्रबन्धन की विधियाँ-
सरकार बजट के घाटे की पूर्ति हीनार्थ
प्रबन्धन के अन्तर्गत निम्नलिखित तीन प्रकार से करती है-
(1) संचित कोषों के माध्यम से-
यदि सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में बचत
के बजट बनाए हों, तो सरकार के पास उन बचतों के रूप में पर्याप्त कोष
एकत्रित हो जाते हैं। यदि सरकार के पास इस प्रकार के संचित कोष हों, तो इनका प्रयोग वर्तमान अथवा आगामी वर्षों के बजट घाटों को पूरा करने के
लिए किया जा सकता है।
(2) केन्द्रीय बैंक से ऋण लेकर-
दूसरे उपाय के रूप में सरकार द्वारा बजट
घाटे के बराबर केन्द्रीय बैंक से ऋण लेकर घाटे की पूर्ति की जा सकती है। किन्तु
केन्द्रीय बैंक से ऋण लेते समय सरकार को सरकारी प्रतिभूतियों को जमानत के रूप में
केन्द्रीय बैंक के पास जमा करना पड़ता है।
(3) बैंकों द्वारा साख का सृजन करके-
विकसित देशों में इस प्रक्रिया का अधिक
उपयोग हो सकता है। इस प्रक्रिया के माध्यम से बैंक नई साख का सृजन करके अथवा अपने
पास नकद रूप में रखे जाने वाले कोषों के प्रतिशत में कमी करके निष्क्रिय पड़े हुए
कोषों को सक्रिय कर देते हैं।
हीनार्थ प्रबन्धन के उद्देश्य-
हीनार्थ प्रबन्धन के निम्नलिखित प्रमुख
उद्देश्य होते हैं-
(a) मन्दी को दूर करना -
प्रो. कीन्स के अनुसार,मन्दी
काल में प्रभावपूर्ण माँग में कमी आती है, जिससे उत्पादन,
विनियोग और रोजगार की मात्रा भी घटती है। इसके परिणामस्वरूप
व्यक्तियों की क्रय-शक्ति भी कम होने लगती है। अतः इस स्थिति से निपटने का एकमात्र
उपाय सार्वजनिक व्यय के रूप में देखने को मिलता है। इसके लिए सरकार द्वारा विकास
एवं निर्माण कार्यों में व्यय एवं विनियोग किया जाता है, जिसके
परिणामस्वरूप रोजगार की मात्रा तथा व्यक्तियों की क्रय-शक्ति में वृद्धि होती है,
क्रय-शक्ति में वृद्धि वस्तुओं की मांग में भी वृद्धि लाती है।
वस्तुओं की माँग में वृद्धि उत्पादन और रोजगार की मात्रा में वृद्धि उत्पन्न कर
देती है तथा मन्दी की दशा समाप्त होने लगती है अर्थात् मन्दी काल में घाटे की
वित्त व्यवस्था से मुद्रा प्रसार तो होता है, किन्तु मुद्रा
स्फीतिक दशाएँ उत्पन्न नहीं होती।
(2) निजी विनियोगों की कमी को दूर करना-
यदि देश में पर्याप्त मात्रा में निजी
विनियोग न किया जा रहा हो, जिसके फलस्वरूप उत्पादन प्रक्रिया मन्द गति से चल
रही हो, तो सरकार केन्द्रीय बैंक से अथवा अन्य माध्यमों से
ऋण लेकर अथवा नये नोट छापकर स्वयं अपनी आय से अधिक व्यय करती है, जिससे निजी विनियोगों में होने वाली कमी को दूर किया जा सके और उत्पादन प्रक्रिया
में तीव्रता लाई जा सके।
(3) युद्धकालीन व्ययों की पूर्ति करना-
कभी-कभी सरकार को असाधारण अथवा आकस्मिक
व्यय (जैसे युद्धकाल में किए जाने वाले व्यय) करने पड़ते हैं और इन व्ययों की
पूर्ति देश की जनता पर कर लगाकर नहीं की जा सकती, क्योंकि इन व्ययों की
राशि इतनी अधिक होती है कि केवल करों में वृद्धि करके इन व्ययों की पूर्ति नहीं की
जा सकती। दूसरे विकासशील देशों में व्यक्तियों की करदान क्षमता भी कम होती है और
वे पहले से ही कर के रूप में सरकार को अपनी आय का पर्याप्त भाग दे रहे होते हैं,
अतः उनसे और अधिक आशा नहीं की जा सकती। इस प्रकार की स्थितियों से
निपटने के लिए सरकार प्रायः हीनार्थ प्रबन्धन का सहारा लेती है।
(4) आर्थिक विकास के लिए साधन जुटाना-
अधिकांशतया अर्द्ध-विकसित देशों में देश
के आर्थिक विकास के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रम और परियोजनाएँ बनाई जाती हैं, जिन
पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं । इतनी बड़ी राशि की पूर्ति करों
अथवा ऋण के माध्यम से होना सम्भव नहीं
होता। अतः ऐसी स्थिति में इन विकास परियोजनाओं के अर्थ प्रबन्धन के लिए सरकार
हीनार्थ प्रबन्धन का सहारा लेती है।
हीनार्थ प्रबन्धन के लाभ
हीनार्थ
प्रबन्धन के प्रमुख लाभ निम्न प्रकार हैं-
(1) भौतिक साधनों का सदुपयोग अल्प-
विकसित देशों में भौतिक अथवा प्राकृतिक
संसाधन तो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं, किन्तु पूँजी के अभाव
में उनका पूर्ण शोषण नहीं हो पाता। अत: हीनार्थ प्रबन्धन की सहायता से पूँजी
जुटाकर उनका पूर्ण शोषण किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में प्रो. शिनोय ने कहा भी है
कि "जब तक देश में अवशोषित भौतिक साधन उपलब्ध हैं,
तब तक होनार्थ प्रबन्धन द्वारा उत्पन्न नई मुद्रा से मुद्रा स्फीतिक
दबाव उत्पन्न नहीं हो सकते।"
(2) मुद्रा की माँग एवं पूर्ति में सन्तुलन-
विकासशील देशों में विकास कार्यक्रमों
के फलस्वरूप रोजगार बढ़ने से राष्ट्रीय आय में तो निरन्तर वृद्धि होती रहती है, किन्तु
यदि राष्ट्रीय आय में वृद्धि के साथ-साथ मुद्रा की पूर्ति न बढ़े, तो मन्दी की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। अत: मुद्रा की पूर्ति बढ़ाने के लिए
हीनार्थ, प्रबन्धन एक आवश्यक कदम है।
(3) अर्थव्यवस्था का अमौद्रिक क्षेत्र-
किसी भी विकासशील देश में अर्थव्यवस्था
का अधिकांश भाग गैर-मौद्रिक होता है, जो आर्थिक विकास के साथ-साथ मौद्रिक बनता जाता है,
जिससे मुद्रा की मांग में भी वृद्धि होती जाती है, जिसकी पूर्ति हीनार्थ प्रबन्धन के द्वारा की जा सकती है।
(4) तरलता पसन्दगी में वृद्धि-
आर्थिक विकास के साथ-साथ देश की जनता के
रहन-सहन के स्तर में वृद्धि होने लगती है, जिसके कारण जनता अपनी आय का अपेक्षाकृत बड़ा नकद
भाग क्रय-विक्रय हेतु रखना चाहती है अर्थात् उसके द्वारा की जाने वाली मुद्रा की
माँग बढ़ जाती है, जिसकी पूर्ति के लिए हीनार्थ प्रबन्धन
सहायक हो सकता है।
(5) आर्थिक नियोजन के लिए साधन-
देश के आर्थिक विकास के लिए तैयार किए
गए कार्यक्रमों एवं परियोजनाओं पर सरकार को भारी राशि व्यय करनी होती है, जिसकी
पूर्ति कर लगाकर अथवा ऋणों के माध्यम से करना सम्भव नहीं है। अत: इसकी व्यवस्था
हेतु सरकार को हीनार्थ प्रबन्धन का सहारा लेना पड़ता
है।
हीनार्थ प्रबन्धन के दोष-
हीनार्थ प्रबन्धन के प्रमुख दोष निम्न
प्रकार हैं-
(1) मुद्रा प्रसार का जन्म-
हीनार्थ प्रबन्धन मुद्रा प्रसार को जन्म
देता है,
क्योंकि हीनार्थ प्रबन्धन के कारण देश में चलन में तो अतिरिक्त
मुद्रा आ जाती है, किन्तु उस अनुपात में वस्तुओं का उत्पादन
नहीं बढ़ पाता।
(2) आर्थिक विकास पर विपरीत प्रभाव-
हीनार्थ प्रबन्धन के कारण देश में
वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य बढ़ने लगते हैं, जिसका देश के आर्थिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता
है।
(3) सामाजिक शक्ति का दुरुपयोग-
निरन्तर बढ़ते हुए मूल्यों के कारण
श्रमिकों द्वारा मजदूरी में वृद्धि की माँग की जाती है, जिसकी
उचित पूर्ति न होने पर श्रमिक वर्ग हड़ताल पर चला जाता है अथवा कारखाना मालिक
तालाबन्दी कर देता है, जिससे सामाजिक शक्ति का दुरुपयोग होता
है।
(4) भुगतान सन्तुलन पर प्रतिकूल प्रभाव-
निरन्तर बढ़ते हुए मूल्यों के कारण देश
के निर्यात कम हो जाते हैं तथा आयातों में वृद्धि हो जाती है। इसका देश के भुगतान
सन्तुलन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
(5) आर्थिक विषमताओं में वृद्धि-
हीनार्थ प्रबन्धन से आर्थिक विषमताओं को
बढ़ावा मिलता है, क्योंकि हीनार्थ प्रबन्धन की सहायता से विनियोग
बढ़ते हैं, जिसके परिणामस्वरूप लाभ भी बढ़ते हैं, जिसका लाभ धनी वर्ग को अधिक मिलता है।
हीनार्थ प्रबन्धन के दोषों पर दृष्टिपात
करते हुए फिण्डले शिराज ने कहा था कि "जो देश घाटे के बजट को स्वीकार करता है, निःसन्देह
वह एक ऐसे फिसलन वाले मार्ग पर चल रहा है जिसका अन्तिम परिणाम सामान्य पतन है। अतः
इस रास्ते से बचने के लिए बड़े-से-बड़ा त्याग भी कम है।"
हीनार्थ प्रबन्धन के प्रभाव-
किसी भी देश में हीनार्थ प्रबन्धन को
अपनाने पर वह देश की अर्थव्यवस्था को निम्न प्रकार प्रभावित करता है I-
(1)साख के उपयोग में वृद्धि-हीनार्थ
प्रबन्धन हेतु केन्द्रीय बैंक से ऋण लेने से द्रव्य की मात्रा में वृद्धि हो जाती
है, जिससे साख को प्रोत्साहन मिलता है, परिणामस्वरूप देश
में स्फीतिक प्रभाव बढ़ जाते हैं।
(2)धन संचय-देश में धन संचय की
प्रवृत्ति कम होने पर हीनार्थ प्रबन्धन सफल नहीं होगा।
(3) मुद्रा का अनुपात-आय में
मुद्रा का अनुपात कम होने पर हीनार्थ प्रबन्धन का प्रभाव उतना ही कम हो जाएगा।
(4) साधनों का विदोहन-यदि मुद्रा
का उपयोग साधनों के विदोहन के लिए किया जाता है, तो उत्पादन में वृद्धि
होकर स्फीतिक प्रभाव कम हो जाएँगे।
(5) सरकारी नियन्त्रण-देश में
प्रभावपूर्ण सरकारी नियन्त्रण से हीनार्थ प्रबन्धन के कारण मूल्यों में होने वाली
वृद्धि पर सरलता से नियन्त्रण स्थापित किया जा सकता है।
(6) विदेशी मुद्रा की मात्रा-देश में
विदेशी मुद्रा की मात्रा अधिक होने पर हीनार्थ प्रबन्धन के प्रभाव कम हानिकारक
होंगे।
(7) घाटे का अनुपात-राष्ट्रीय
आय में घाटे का अनुपात जितना कम होगा, स्फीतिक प्रभाव भी उतने ही कम होंगे।
(8) उपभोग की प्रवृत्ति-देश में
उपभोग की प्रवृत्ति कम होने पर हीनार्थ प्रबन्धन का बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। इसके
विपरीत उपभोग की प्रवृत्ति अधिक होने पर
देश में स्फीतिक प्रभाव उत्पन्न हो जाते हैं।
हीनार्थ प्रबन्धन का औचित्य
अथवा
इसके दुष्परिणामों से बचने के उपाय-
प्राय: यह प्रश्न उठाया जाता है कि जब
हीनार्थ प्रबन्धन के कारण देश के कीमत-स्तर में वृद्धि हो जाती है, तब
ऐसी व्यवस्था को अपनाने का क्या औचित्य है ? वास्तव
में विकासशील देशों के पास विकास कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए वित्तीय साधनों
का अभाव होता है। अधिक मात्रा में करारोपण भी सम्भव नहीं होता, विदेशी ऋण एवं सहायता भी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाती। अतः ऐसी
स्थिति में देश की सरकार के पास अपने विकास कार्यक्रमों को. संचालित करने के लिए
केवल एक ही रास्ता शेष बचता है और वह है हीनार्थ प्रबन्धन।
अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना है कि
दीर्घकाल में हीनार्थ प्रबन्धन ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देता है जिससे इसकी आवश्यकता
स्वतः ही समाप्त हो जाती है। इसके दुष्परिणाम केवल अल्पकालीन हैं, किन्तु
साथ ही यह आवश्यक भी है, क्योंकि इसके दुष्परिणाम ही विकास
प्रक्रिया को गति प्रदान करते हैं।
हीनार्थ प्रबन्धन का औचित्य देखते हुए
सरकार का यह कर्त्तव्य है कि इस व्यवस्था को बहुत सावधानीपूर्वक अपनाए, जिससे
इसके दुष्परिणाम कम-से-कम
हो। इसके दुष्परिणामों को नियन्त्रित करने के लिए
निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं-
(1) जीवनोपयोगी वस्तुओं की पर्याप्त पूर्ति बनाए रखी
जाए, ताकि सामान्य जनता पर अधिक मात्रा में मुद्रा-स्फीति का
प्रभाव न पड़े।
(2) हीनार्थ प्रबन्धन के कारण सृजित मुद्रा का
प्रयोग शीघ्र उत्पादक उद्योगों में किया जाना चाहिए, ताकि
वस्तुओं की मात्रा (पूर्ति) में शीघ्र वृद्धि सम्भव हो सके।
(3) हीनार्थ प्रबन्धन के कारण चलन में आई अतिरिक्त
मुद्रा को उचित करारोपण, अनिवार्य बचत अथवा सार्वजनिक ऋणों
के माध्यम से सरकार को जनता से प्राप्त कर लेना चाहिए।
(4) सरकार को अपने गैर-उत्पादक व्ययों में कटौती
करनी चाहिए, ताकि वित्तीय साधनों पर अंकुश रखा जा सके।
(5) देश की साख नियन्त्रण सम्बन्धी व्यवस्था को
प्रभावशाली बनाया जाना चाहिए।
(6) विदेशी विनिमय का उपयोग विकास कार्यक्रमों तथा
जीवनोपयोगी उपभोग वस्तुओं के आयात हेतु किया जाना चाहिए।
(7) पूँजीगत वस्तुओं जैसे मशीन आदि की व्यवस्था विदेशी
सहायता प्राप्त करके ही की जानी चाहिए।
(8) देश में बढ़ती हुई कीमतों को नियन्त्रित करने के
लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली अपनाई जानी चाहिए।
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