मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्त्वों में अंतर
प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में उल्लिखित नागरिकों के मौलिक अधिकारों की
व्याख्या कीजिए और इनकी सीमाओं को इंगित कीजिए।
अथवा ‘’ भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का वर्णन कीजिए तथा मौलिक अधिकारों और
नीति-निदेशक तत्त्वों में अन्तर बताइए।
उत्तर-
मौलिक (मूल) अधिकार -
वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक तथा अनिवार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और जिन अधिकारों में राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, मूल अधिकार कहलाते हैं। ये अधिकार विधानमण्डलों के कानूनों से ऊँचे व पवित्र माने जाते हैं। संविधान में संशोधन किए बिना इन अधिकारों का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। इन अधिकारों की रक्षा का भार न्यायपालिका को सौंपा जाता है।
भारतीय संविधान में
उल्लिखित मूल अधिकार –
भारतीय संविधान में
मूल रूप से 7 मूल अधिकारों का उल्लेख था,
लेकिन 44वें संविधान संशोधन के द्वारा 'सम्पत्ति के मूल अधिकार' को समाप्त कर दिया गया
है, जिसके फलस्वरूप अब केवल 6 मूल
अधिकार रह गए हैं, जिनका विवरण निम्न प्रकार है -
(I) समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18 तक) -
समानता का अधिकार
प्रजातन्त्र का आधार स्तम्भ है। भारतीय संविधान में नागरिकों को निम्नलिखित ऐसे
अधिकार प्राप्त हैं -
(1) कानून के समक्ष समानता -
इसका अर्थ यह है कि
प्रत्येक व्यक्ति न्याय की दृष्टि में समान है, सभी
को न्याय का संरक्षण प्राप्त होगा। कानून के समक्ष समानता का अर्थ यह नहीं है कि
राज्य किसी उद्देश्य विशेष से नागरिकों में उचित व तर्कसंगत भेद नहीं कर सकता। (अनुच्छेद 14)
(2)
धर्म, नस्ल, जाति,
लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध -
अनुच्छेद 15
के अनुसार राज्य द्वारा किसी नागरिक के विरुद्ध केवल
धर्म. वंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान अथवा इनमें से किसी भी बात के आधार पर किसी नागरिक को दुकानों,
सार्वजनिक भोजनालयों, सार्वजनिक मनोरंजनों के
स्थानों, कओं, तालाबों, सड़कों के उपयोग करने से मना नहीं किया जा सकता। परन्तु स्त्रियों,
बच्चों, अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए
विशेष साधन उपलब्ध कराए जा सकते हैं।
(3) अवसर की समानता -
अनुच्छेद 16
के द्वारा राज्याधीन नौकरियों और पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में
सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता दी जाएगी, परन्तु राज्य
पिछड़ी हुई जातियों के लिए कुछ स्थान सुरक्षित कर सकता है और निवास सम्बन्धी
योग्यताएँ निर्धारित कर सकता है।
(4) अस्पृश्यता का निषेध -
अनुच्छेद 17
के द्वारा छुआछूत को अवैध घोषित किया गया है।
(5) उपाधियों का निषेध–
(i) राज्य सेना या शिक्षा
सम्बन्धी उपाधियों के अतिरिक्त और कोई उपाधि का खिताब प्रदान नहीं करेगा।
(ii) सरकार की पूर्व अनुमति के बिना विदेशों से भी उपाधि ग्रहण नहीं की जा सकेगी।(अनुच्छेद 18)
(II) स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22 तक) -
इस अधिकार के द्वारा
नागरिकों को विभिन्न प्रकार की स्वतन्त्रताएँ दी गईं हैं। -
(1) अनुच्छेद 19
नागरिकों को निम्न
स्वतन्त्रताएँ प्रदान करता है -
(i)
विचार व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता।
(ii)
शान्तिपूर्ण व बिना हथियार लिए सभा करने की स्वतन्त्रता।
(iii)
संघ या संस्था बनाने की स्वतन्त्रता।
(iv)
भारत राज्य क्षेत्र में बिना रोक-टोक आने-जाने की स्वतन्त्रता।
(v) भारत राज्य क्षेत्र के किसी
भाग में निवास करने और बसने की स्वतन्त्रता।
(vi) किसी भी पेशे, व्यापार, व्यवसाय या कारोबार की स्वतन्त्रता।
(2) अपराध की दोष सिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण -
संविधान के अनुच्छेद 20 के अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी भी अपराध के लिए दोषी सिद्ध नहीं ठहराया जाएगा जब तक कि उसने किसी विधि का अतिक्रमण न किया हो। किसी भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक से अधिक बार दण्डित नहीं किया जा सकता।
(3) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और जीवन की सुरक्षा -
संविधान के अनुच्छेद
21 के अनुसार,
"किसी व्यक्ति को अपने प्राण अथवा शारीरिक स्वतन्त्रता से विधि
द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर अन्य प्रकार से वंचित नहीं किया जाएगा।"
इसके द्वारा व्यक्ति को प्राण व शारीरिक स्वतन्त्रता प्राप्त होती
है। शारीरिक स्वतन्त्रता
का अर्थ शारीरिक कष्ट, नजरबन्दी व कैद से सुरक्षा है। अकारण
ही किसी को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
86वें संविधान संशोधन (2002)
के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 21 में
खण्ड 21(a) को जोड़ा गया है, जिसमें
यह प्रावधान किया गया है कि राज्य 6 से 14 वर्ष तक की आयु के सभी बालकों को कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के
अनुसार नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा।
(4) बन्दीकरण की अवस्था में संरक्षण -
संविधान के अनुच्छेद
22 के अनुसार किसी व्यक्ति को बन्दी बनाए जाने पर अधिकार होगा कि जितना शीघ्र हो सके,
उसके बन्दी बनाए जाने का कारण बताया जाए और उसे 24 घण्टे के अन्दर (यात्रा का समय निकालकर) निकटतम मजिस्ट्रेट के सम्मुख पेश
किया जाए। प्रस्तुत उपर्युक्त उपबन्ध उन लोगों पर लागू नहीं होता जो 'निवारक निरोध कानून' के अन्तर्गत गिरफ्तार किए
जाते हैं।
(III) शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 तथा 24)—
इसमें निम्न अधिकार
सम्मिलित हैं -
(1) मानव के क्रय-विक्रय एवं
बेगार पर रोक -
संविधान का अनुच्छेद
23 बलात् श्रम और बेगार लेने को
अपराध घोषित करता है। हाँ, राज्य सार्वजनिक प्रयोजन के लिए
अनिवार्य सेवा की व्यवस्था कर सकता है। इसी अनुच्छेद द्वारा मनुष्यों का
क्रय-विक्रय, स्त्रियों का दुराचार आदि भी दण्डनीय है।
(2) बाल श्रम का निषेध –
अनुच्छेद 24
के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु वाले किसी
बालक को कारखानों में नौकर नहीं रखा जाएगा और न ही दूसरी किसी संकटतम नौकरी में
लगाया जाएगा।
(IV) धार्मिक स्वतन्त्रता का
अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28 तक) में भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की गई है। इसी उद्देश्य से
लोगों को निम्न धार्मिक स्वतन्त्रताएँ प्रदान की गई हैं
(1) अन्तःकरण की स्वतन्त्रता -
अनुच्छेद 25
के अनुसार सभी व्यक्तियों, चाहे
वे नागरिक हों या विदेशी, अन्तःकरण की स्वतन्त्रता तथा किसी
भी धर्म को स्वीकार करने, आचरण करने का तथा प्रचार करने की
समान स्वतन्त्रता है।
(2) धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतन्त्रता -
अनुच्छेद 26
के अनुसार व्यक्तियों को धार्मिक संस्थाएँ स्थापित करने,
उनका प्रबन्ध करने, चल और अचल सम्पत्ति
प्राप्त करने और उपयोग करने का अधिकार है।
(3) धार्मिक व्यय के लिए निश्चित धन पर कर की अदायगी से छूट -
अनुच्छेद 27 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को ऐसे कर या चन्दा देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा
जिसका उपयोग किसी विशेष धर्म या जाति के लिए किया जाए। धर्म से सम्बन्धित आय पर
राज्य कर नहीं लगाएगा।
(4) राजकीय शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा निषिद्ध -
अनुच्छेद 28
के अनुसार राज्य निधि से पोषित शिक्षा संस्थानों में
धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी। जो शिक्षा संस्थाएँ राज्य द्वारा मान्य हैं
या जिन्हें राज्य आर्थिक सहायता देता है, यदि वहाँ धार्मिक शिक्षा दी
जाती है तो उसे ग्रहण करने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता।
(V) संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (अनुच्छेद 29 व 30) –
इसमें निम्न अधिकार
सम्मिलित हैं -
(1) भारत के राज्य क्षेत्र के
निवासी नागरिकों के प्रत्येक ऐसे वर्ग को, जिसकी अपनी विशेष
भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए
रखने का अधिकार होगा।
(2) राज्य द्वारा पोषित या राज्य
सहायता से संचालित किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश पाने से किसी भी नागरिक को केवल
धर्म, वंश, जाति, भाषा अथवा इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता। (अनुच्छेद 29)
(3) धर्म या भाषा पर आधारित सभी
अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना व प्रशासन का
अधिकार होगा।
(4) शिक्षा संस्थाओं को सहायता
देने में राज्य भाषा या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। (अनुच्छेद 30)
(VI) संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32) -
सर्वोच्च न्यायालय
को मूल अधिकारों का संरक्षक बनाया गया है। उपर्युक्त अधिकारों को प्रभावी बनाने के
लिए सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक समीक्षा का अधिकार प्राप्त है। सर्वोच्च
न्यायालय उपर्युक्त में से किसी भी अधिकार को क्रियान्वित कराने के लिए लेख और
आदेश जारी कर सकता है; जैसे—बन्दी
प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध,
उत्प्रेषण तथा अधिकार-पृच्छा।
मूल अधिकारों की
आलोचना (सीमाएँ) –
यद्यपि संविधान
नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान कर भारत में सीमित और लोकतन्त्रीय राज्यों की
स्थापना करता है, परन्तु इन अधिकारों पर अत्यधिक
प्रतिबन्ध लगाने के कारण आलोचना की जाती है। कुछ लोगों ने व्यंग्य में यहाँ तक कहा
है कि मूल अधिकारों के अध्याय का नाम 'मूल अधिकारों पर
प्रतिबन्ध' होना
चाहिए। कुछ आलोचकों के अनुसार इन मूल अधिकारों को एक हाथ से दिया है और दूसरे हाथ
से वापस ले लिया गया है। मौलिक अधिकारों की कुछ महत्त्वपूर्ण आलोचनाएँ निम्न
प्रकार हैं -
(1) राष्ट्रपति संकटकालीन स्थिति
की घोषणा करके अनुच्छेद 19 में दी गई सभी
स्वतन्त्रताओं को स्थगित कर सकता है, यहाँ तक कि नागरिकों को न्यायालय की शरण लेने से रोक
सकता है। अमेरिका तथा ब्रिटेन में कार्यपालिका प्रधान को इस प्रकार की शक्ति
प्राप्त नहीं है। इस उपबध की आलोचना करते हुए एच. वी. कामथ ने कहा था,
"इस उपबन्ध द्वारा हम तानाशाही राज्य अथवा पुलिस राज्य की
स्थापना कर रहे हैं और यह व्यवस्था कांग्रेस के उन सारे सिद्धान्तों के विरुद्ध है
जिनका यह डंका बजा-बजाकर इतने दिनों से प्रचार करती आ रही है ...।"
जब उक्त उपबन्ध पारित हो गया तब कामथ ने कहा कि "यह दिन दुःख और लज्जा का है, ईश्वर ही भारतीय जनता
की रक्षा करे।"
(2) निवारक निरोध अधिनियम
शारीरिक और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर सबसे बड़ा प्रतिबन्ध है। अन्य देशों में तो
इसका प्रयोग युद्ध अथवा आपातकाल में ही हो सकता है, परन्तु
भारत में इसका प्रयोग शान्तिकाल में भी हो सकता है। ए. के. गोपालन ने कहा
था, "निवारक निरोध की व्यवस्था कांग्रेस विरोधियों
को कुचलने के लिए की गई है।"
(3) सर्वोच्च न्यायालय व उच्च
न्यायालयों को अधिकारों की रक्षा करने का पूर्ण अधिकार नहीं दिया गया है। संसद
संविधान में संशोधन करके सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को प्रभावहीन बना सकती है।
सन् 1951 में सम्पत्ति के अधिकार में इस प्रकार का संशोधन और सन् 1971
में 24वाँ संशोधन इसका उदाहरण है। सन् 1978
में 44वें संशोधन
द्वारा अनुच्छेद 31 में दिए गए अधिकारों को समाप्त कर दिया गया है।
(4) अन्य राज्यों में किसी
सम्पत्ति के बदले में मुआवजे का निर्धारण न्यायालय करते हैं, परन्तु भारत में यह शक्ति न्यायालयों से छीनकर संसद और विधानमण्डल को
सौंपी गई है।
मौलिक अधिकार और
नीति-निदेशक तत्त्वों में अन्तर –
मौलिक अधिकार और
नीति-निदेशक तत्त्वों में प्रमुख अन्तर निम्नवत् हैं -
(1) मौलिक अधिकार राज्य को कुछ
निर्देश देते हैं तथा राज्य के कुछ कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। इसलिए मौलिक
अधिकारों की प्रवृत्ति नकारात्मक है। राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व राज्य को कुछ
कार्य करने के लिए कहते हैं, अतः ये सकारात्मक हैं।
(2) मौलिक अधिकारों द्वारा
राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना होती है, जबकि नीति-निदेशक
तत्त्वों से आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना होती है।
(3) मौलिक अधिकार कानूनी महत्त्व
के हैं, जबकि नीति-निदेशक तत्त्व नैतिक सिद्धान्त हैं।
(4) मौलिक अधिकार न्यायालय
द्वारा लागू हो सकते हैं, लेकिन नीति-निदेशक तत्त्व न्यायालय
द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं।
(5) मौलिक अधिकारों के पीछे कानून की शक्ति होती है, जबकि नीति-निदेशक सिद्धान्तों के पीछे कानून की शक्ति न होकर केवल राजनीतिक तथा नैतिक शक्ति होती है।
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