मिल और बेन्थम का उपयोगितावादी सिद्धान्त मे अंतर
प्रश्न 5. "मिल के उपयोगितावाद की पुनर्समीक्षा में बेन्थम की धारणाओं का बहुत कम अंश रह गया है।" विवेचना कीजिए।
अथवा ''जे. एस. मिल ने उपयोगितावाद के बेन्थमवादी
सिद्धान्त को किस प्रकार संशोधित किया?
अथवा '' जे. एस. मिल द्वारा बेन्थम के उपयोगितावाद में
किए गए संशोधनों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
उत्तर-
जे. एस. मिल ,बेन्थम का अत्यधिक योग्य और प्रतिभाशाली
शिष्य था। उसके पिता जेम्स मिल ब्रिटिश संसद के एक प्रभावशाली सदस्य थे।
जेम्स मिल स्वयं एक महान विचारक और उच्च कोटि का लेखक था। बेन्थम के सम्पर्क में
आकर वह उसका अनुयायी बन गया था,
परन्तु वह बेन्थम के उपयोगितावादी सिद्धान्त में परिवर्तन करना
चाहता था। इसलिए उसने अपने पुत्र जे. एस. मिल को बेन्थम का अनुयायी बनने के
लिए प्रेरित किया। फलतः मिल बेन्थम का अनुयायी बन गया। उसके प्रमुख ग्रन्थ हैं-'On
Liberty', 'Utilitarianism' a Consideration on Representative Government'.
मिल के समय बेन्थम के उपयोगितावादी सिद्धान्त की दशा
-
मिल के समय में बेन्थम के उपयोगितावादी सिद्धान्त की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई थी। इंग्लैण्ड का बुद्धिजीवी वर्ग इसकी कटु आलोचना करने लगा था और इसे स्वीकार करने के लिए कदापि तैयार न था, क्योंकि यह सिद्धान्त व्यक्ति के नैतिक विकास की पूर्ण उपेक्षा करता था। यह सिद्धान्त केवल सुखों पर ही बल देता था। अत: मिल ने बेन्थम के सिद्धान्त की कमियों को दूर करने का प्रयत्न किया। मिल एक महान् विचारक, तर्कशास्त्री, अर्थशास्त्री, दार्शनिक तथा राजनीतिज्ञ था। उसने बेन्थम के सिद्धान्त में सुधार करने के उद्देश्य से इतना अधिक परिवर्तन कर दिया कि उपयोगितावादी सिद्धान्त अपना वास्तविक स्वरूप ही खो बैठा।
इस सम्बन्ध में
वेपर ने लिखा है, "जॉन स्टुअर्ट मिल वह सुधारक था
जिसने गन्दे पानी के साथ शिशु को भी फेंक दिया अर्थात् उसने बुराई के साथ-साथ
अच्छाई को भी निकाल फेंका।" मिल ने बेन्थम के
उपयोगितावादी सिद्धान्त को एक दर्शन, एक धर्म तथा एक विश्वास
के रूप में ग्रहण किया और इसके प्रचार को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। मिल ने
उपयोगितावादी सिद्धान्त की कमियों को देखकर उसकी स्वयं आलोचना की और कहा, "मैं पीटर हूँ, जो अपने स्वामी को स्वीकार नहीं करता।"
मिल ने अपने गुरु के सिद्धान्त को आरोपों से बचाने के लिए
उपयोगितावादी सिद्धान्त में कुछ ऐसे नैतिक और असुखवादी तत्त्वों का
समावेश किया जिसके कारण वास्तविक उपयोगितावाद ही समाप्त हो गया।
मिल द्वारा बेन्थम के उपयोगितावाद में संशोधन –
जे. एस. मिल ने बेन्थम के उपयोगितावाद में
अनेक परिवर्तन किए और उसे एक संशोधित रूप में प्रस्तुत किया। डॉ. आशीर्वादम
के अनुसार, “मिल ने बेन्थम को कठोर मान्यताओं को कोमल रूप प्रदान किया और ऐसा करके
उसने उपयोगितावाद को एक बार तो अधिक मानवीय, लेकिन कम स्थिर
और दृढ़ बना दिया।" संक्षेप में, मिल ने बेन्थम के उपयोगितावाद में निम्न संशोधन किए -
(1) मिल द्वारा प्रतिपादित उपयोगितावाद की परिभाषा -
जे. एस. मिल ने उपयोगितावाद की परिभाषा देते
हुए कहा, "वह सिद्धान्त जो उपयोगितावाद या अधिकतम सुख के सिद्धान्त को नैतिकता का
आधार मानता है, यह स्वीकार करता है कि प्रत्येक कार्य उसी
अनुपात में सही है जिससे वह सुख की वृद्धि करता है तथा जो कार्य सुख के विपरीत
होता है, वह गलत है। सुख का अर्थ है आनन्द अथवा दुःख का
अभाव। दु:ख का अर्थ है पीड़ा अथवा सुख का अभाव।"
(2) विभिन्न सुखों में गुणात्मक भेद भी स्वीकार करना—
बेन्थम ने विभिन्न सुखों में केवल मात्रा का भेद स्वीकार किया था, गुणों का नहीं। बेन्थम का मत था कि “यदि सुख की मात्रा समान है तो पुष्पिन नामक बच्चों का खेल भी उतना ही अच्छा है, जितना कि कविता पाठ।" किन्तु मिल ने विभिन्न सुखों में गुणात्मक भेद भी स्वीकार किया है। उसने लिखा है कि "इस बात को स्वीकार करना उपयोगितावादी सिद्धान्त के अनुरूप ही है। कुछ प्रकार के सुख अन्य प्रकार के सुखों से अधिक वांछनीय और महत्त्वपूर्ण हैं। इसलिए जहाँ हम अन्य वस्तुओं के मूल्यांकन में गुण और मात्रा दोनों का ध्यान रखते हैं, वहीं सुख के मूल्यांकन को केवल मात्रा पर आधारित करना एक विचित्र बात होगी।"
इस प्रकार मिल बेन्थम के इस
मत को स्वीकार नहीं करता कि कविता से प्राप्त होने वाला सुख पुष्पिन से प्राप्त
होने वाले सुख से श्रेष्ठ और अच्छा है। वह कहता है कि "एक सन्तुष्ट शूकर की अपेक्षा एक असन्तुष्ट मानव होना श्रेष्ठ है और एक
सन्तुष्ट मूर्ख को अपेक्षा
असन्तुष्ट सुकरात होना श्रेष्ठ है। यदि मूर्ख और शूकर दूसरा मत रखते हैं, तो इसलिए कि वे अपने पक्ष को जानते हैं, जबकि दूसरा
पक्ष दोनों ही पक्षों को जानता है।"
(3) मानव-जीवन का लक्ष्य अन्य व्यक्तियों का सुख -
बेन्थम का मत था कि मानव स्वभाव से स्वार्थी होता है और वह
सदैव अपने सुख की प्राप्ति के लिए कार्य करता है। लेकिन मिल का मत
है कि मानव जीवन का लक्ष्य अन्य व्यक्तियों को भी सुख देना है। मिल ने लिखा है,
"मैं इस विश्वास से कभी विचलित नहीं हुआ कि व्यवहार में सभी
नियमों की कसौटी और जीवन का लक्ष्य सुख है। लेकिन अब मैं सोचने लगा हूँ कि इस
लक्ष्य की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती है जब तक सुख को सीधा लक्ष्य न बनाया जाए।
वे ही व्यक्ति सुखी हैं जो अपने स्वयं के सुख के स्थान पर किसी अन्य विषय पर अपना
विचार केन्द्रित करते हैं।"
(4) बेन्थम का उपयोगितावाद राजनीतिक, जबकि मिल का नैतिक -
बेन्थम के उपयोगितावाद का मूल मन्त्र अधिकतम व्यक्तियों का
अधिकतम सुख है और इसी मूल मन्त्र को वह राजनीतिक स्वरूप प्रदान करता है। इसके
विपरीत मिल उसके सिद्धान्त को नैतिक रूप में रंग देता है। मिल ने व्यक्तिगत सुख और
सार्वजनिक सुख में अन्तर किया और इस सम्बन्ध में बेन्थम से पृथक् मान्यताएँ
निश्चित की। उसने लिखा है,
"व्यक्ति का अधिकतम सुख उपयोगितावाद का मापदण्ड नहीं है।"
उपयोगिता के अनुसार व्यक्ति के अपने और दूसरे के सुख के मध्य इतना
पक्षपात होना चाहिए जितना कि एक निरपेक्ष और उदार दर्शन में होता है। मिल आगे
लिखता है, “मैं उपयोगितावाद को समस्त नैतिक प्रश्नों पर
अन्तिम अपील मानता हूँ। लेकिन यह उपयोगिता एक प्रगतिशील प्राणी के रूप में व्यक्ति
के स्थायी हितों पर आधारित व्यापकतम उपयोगिता होनी चाहिए।"
(5) अन्तःकरण पर बल-
बेन्थम ने सुख के जो भी स्रोत बताए, वे सब बाहरी थे। इसके विपरीत मिल ने अन्त:करण पर विशेष बल दिया। वह सुख को
। एक आन्तरिक अनुभूति मानता है। उसका मत है कि यदि व्यक्ति अपने अन्तः करण की
प्रेरणा के अनुसार कार्य करेगा, तो उसे निश्चित ही सुख
प्राप्त होगा।
(6) स्वतन्त्रता साधन नहीं वरन् साध्य -
बेन्थम स्वतन्त्रता को उपयोगिता के अधीन एक साधन मात्र मानता
है, जबकि
मिल के अनुसार स्वतन्त्रता स्वयं एक साध्य है और निश्चित रूप में उपयोगिता की
तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है। स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में मिल का दृष्टिकोण
नैतिकतावादी है, जबकि बेन्थम का उपयोगितावादी।
(7) इतिहास और परम्पराओं का महत्त्व -
बेन्थम के अनुसार उपयोगितावाद का सिद्धान्त समस्त विश्व पर
समान रूप से लागू होता है,
जबकि मिल इस विचार को नहीं मानता। उसके अनुसार उपयोगितावाद पर
विभिन्न क्षेत्रों में उसकी परम्पराओं और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का प्रभाव पड़ता है,
अत: यह समान रूप से लागू नहीं हो सकता।
निष्कर्ष -
इस प्रकार मानव-जीवन के समक्ष एक आदर्शवादी लक्ष्य
रखकर मिल ने बेन्थम के उपयोगितावाद को अधिक मानवीय बना दिया है। इस सम्बन्ध में मैक्सी
ने लिखा है,
"बेन्थम का उपयोगितावादी सिद्धान्त भेड़ियों के समाज में
स्वार्थ को महत्त्व देता है और सन्तों के समाज में साधुता को। मिल का यह संकल्प था
कि चाहे कोई भी समाज हो, उसमें उपयोगिता की कसौटी साधुता ही
होनी चाहिए।"
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मिल ने बेन्थम के
उपयोगितावाद में अनेक संशोधन और परिवर्तन किए और उसका स्वरूप इतना अधिक बदल दिया
कि उपयोगितावाद अपना वास्तविक स्वरूप ही खो बैठा। अत: मैक्सी का यह कथन ठीक
ही है कि "मिल के उपयोगितावाद की पुनर्समीक्षा में बेन्थम की धारणाओं का बहुत कम अंश
रह गया है।"
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