प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष का अर्थ
प्रश्न 11. "एक न्यायपूर्ण एवं पर्याप्त कर व्यवस्था के विकास हेतु प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों ही प्रकार के कर आवश्यक हैं।" इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
अथवा '' प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों
के लाभ एवं हानियाँ बताइए। क्या ये एक-दूसरे के पूरक हैं ?
अथवा '' प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों
से आप क्या समझते हैं ? इनके गुण एवं दोषों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-कर का भार किस
व्यक्ति पर पड़ता है और इस भार को एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर टाल सकता है अथवा
नहीं, इस आधार पर करों को दो वर्गों में बाँटा जाता है-प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष
कर।
प्रत्यक्ष
कर-
प्रत्यक्ष
कर वे कर हैं जो पूर्णतया उसी व्यक्ति द्वारा चुकाए जाते हैं जिसपा वे लगाए जाते
हैं। इसमें कर का भार किसी दूसरे व्यक्ति पर नहीं टाला जा सकत है। इस प्रकार
प्रत्यक्ष कर में कर का भुगतान करने का दायित्व अर्थात् कराधान तथा करापात एक ही
व्यक्ति पर पड़ता है।
जे. एस. मिल के अनुसार, "प्रत्यक्ष कर एक ऐसा कर होता है जो उसी व्यक्ति से मांगा जाता है जिससे सरकार यह चाहती है कि वही व्यक्ति उसका भुगतान करे।"
डि-मार्को
के शब्दों में, "यदि
किसी व्यक्ति की आय का प्रत्यक्ष अनमान लगाकर उस पर कर लगाया जाए, तो उसे प्रत्यक्ष कर कहते हैं।"
जे.
के. मेहता के अनुसार, “प्रत्यक्ष कर एक ऐसा कर है जिसका पूर्ण
भुगतान वह व्यक्ति करता है जिस पर उसे लगाया जाता है अर्थात् इसका मौद्रिक भार उस
व्यक्ति पर होता है जो सर्वप्रथम कर अधिकारी को चुकाता है।"
इस
प्रकार जिस कर में कर का दबाव अर्थात् भुगतान करने का दायित्व तथा कर का अन्तिम
भार एक ही व्यक्ति पर होता है, उसे प्रत्यक्ष कर कहते हैं।।
प्रत्यक्ष
करों के गुण-
प्रत्यक्ष
करों के गुण निम्न प्रकार हैं -
(1)
न्यायपूर्ण-इन्हें करदाता की आय तथा सम्पत्ति के अनुपात
में लगाया । जाता है। ऐसे कर प्रायः प्रगतिशील दर से लगाए जाते हैं, इसलिए ये
अधिक न्यायपूर्ण होते हैं। धनी लोगों की करदान क्षमता अधिक होती है। इसलिए उन पर
करों का भार अधिक डाला जा सकता है तथा निर्धन लोगों को इस भार से मुक्त रखा जा
सकता है।
(2)
लोचपूर्ण-देश में धन एवं जनसंख्या में वृद्धि होने के
साथ-साथ इन करों से प्राप्त आय में भी वृद्धि हो जाती है। इन करों की दर में
आवश्यकतानुसार सुगमतापूर्वक परिवर्तन करके इन्हें लोचपूर्ण बनाया जा सकता है।
(3)
उत्पादक-अप्रत्यक्ष करों की तुलना में प्रत्यक्ष कर अधिक
उत्पादक होते हैं,
क्योंकि इनसे सरकार बढ़ती हुई मात्रा में आय प्राप्त कर सकती है।
(4) निश्चित-इन करों के सम्बन्ध में करदाता को निश्चित रूप से यह पता
होता है कि उसे कब और कितना कर देना है। इसी प्रकार सरकार भी प्रत्यक्ष करों से
प्राप्त होने वाली आय का सही अनुमान लगा सकती है। .
(5) मितव्ययी-ये कर मितव्ययता के सिद्धान्त के अनुरूप होते हैं। इन करा की वसूली पर
अपेक्षाकृत कम व्यय करना पड़ता है, क्योंकि करदाताओं की संख्या
बहुत अधिक नहीं होती है तथा उनका पंजीकरण कर लिया जाता है। करदाता स्वयं अपने
कर-निर्धारण के प्रति जागरूक रहता है।
(6) नागरिकता की भावना का उदय-प्रत्यक्ष करों को देते समय लोग यह अनुभव करते हैं कि वे देश में सुरक्षा व
न्याय को स्थापित करने के लिए कुछ दे रहे हैं। इसलिए वे इस बात में काफी रुचि लेते
हैं कि सरकार इन करों द्वारा प्राप्त धन किस प्रकार व्यय करती है। यदि सरकार उस धन
का अपव्यय करती है, तो लोग उसके विरोध में अपना
असन्तोष प्रकट करते हैं, जिससे राजस्व की कुशलता में वृद्धि
होती है।
प्रत्यक्ष करों के
दोष-
प्रत्यक्ष करों के
प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं -
(1) असुविधाजनक-प्रत्यक्ष करों में
करदाताओं को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है; जैसे—हिसाब-किताब का पूरा ब्यौरा तैयार करना, करनिर्धारण
अधिकारी को सन्तुष्ट करने के लिए बार-बार सरकारी विभागों के चक्कर काटना आदि।
(2) कर वंचना-वास्तव में यह कर
व्यक्ति की ईमानदारी पर निर्भर करता है, परन्तु करदाता यथासम्भव कर की चोरी करने का प्रयास
करता है। कर सम्बन्धी कानून दोषपूर्ण होने के कारण उसे इसमें सफलता भी मिल जाती
है।
(3) मनमानी दरें-प्रत्यक्ष करों की
दर का निर्धारण कर-निर्धारण अधिकारी की इच्छानुसार किया जाता है। अतः करों की दर
के निर्धारण का न्यायपूर्ण आधार सम्भव नहीं होता है।
(4) अलोकप्रिय-प्रत्यक्ष कर
अलोकप्रिय होते हैं, क्योंकि करदाताओं को कर के भुगतान का भार
प्रत्यक्ष रूप से वहन करना पड़ता है।
(5) लोच का अभाव-प्रत्यक्ष करों का
भार केवल धनी वर्ग पर होता है। यदि सरकार कर की दर में वृद्धि करके अपनी आय बढ़ाने
का प्रयास करती है, तो इससे धनिकों में उत्तेजना और असन्तोष फैल जाता
है, जिससे सामाजिक शान्ति भंग होने का डर रहता है।
(6) सीमित क्षेत्र-प्रत्यक्ष कर केवल
उन व्यक्तियों पर ही लगाए जाते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी होती है। समाज में
ऐसे व्यक्तियों की संख्या अधिक नहीं होती। इस प्रकार प्रत्यक्ष करों का क्षेत्र
अत्यन्त सीमित होता है।
अप्रत्यक्ष
(परोक्ष) कर-
वे
कर जिनका कराघात और करापात अलग-अलग व्यक्ति पर पडता बै अप्रत्यक्ष कर कहलाते हैं।
जिन व्यक्तियों या संस्थाओं पर इन्हें लगाया जाता है । उसका भुगतान सरकार को कर
देते हैं,
परन्तु बाद में वे उसे अन्य व्यक्तियों से वसूल कर लेते हैं। उदाहरण
के लिए, उत्पादन कर या व्यापार (बिक्री) का उत्पादकों या
विक्रेताओं पर लगाया जाता है। ये लोग इसे वस्तु के मूल्य में शामिल करके उसे
उपभोक्ताओं से वसूल कर लेते हैं।
अप्रत्यक्ष
करों के गुण-
अप्रत्यक्ष
करों के प्रमुख गुण निम्न प्रकार हैं -
(1)
न्यायपूर्ण-ये कर वस्तुओं एवं सेवाओं पर लगाए जाते हैं, जिन्हें
सभी व्यक्ति अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार खरीदते हैं और कर का भुगतान करते हैं।
अनिवार्य वस्तुओं पर नीची दर से तथा विलासिता की वस्तुओं पर ऊँची दर से कर लगाकर
करों का भार न्यायपूर्ण ढंग से समाज के विभिन्न वर्गों पर डाला जा सकता है।
(2)
सुविधाजनक-इन करों का भुगतान करने में करदाता को यह
ज्ञान नहीं होता कि वह कर का भुगतान कर रहा है, क्योंकि कर वस्तुओं के मूल्य
में ही सम्मिलित होता है। उपभोक्ता तो यह समझता है कि वह वस्तु का मूल्य दे रहा है,
किन्तु वह उसके साथ-साथ कर भी देता रहता है।
(3)
चोरी कठिन-इन करों की चोरी कठिन होती है, क्योंकि
ये वस्तुओं के मूल्य में सम्मिलित रहते हैं। जब कोई व्यक्ति वस्तु क्रय करता है,
तो उसे कर का भुगतान करना पड़ता है।
(4)
लोचपूर्ण-अनिवार्य वस्तुओं पर लागू करके इन करों को
लोचपूर्ण बनाया जा सकता है,
क्योंकि इन वस्तुओं पर कर की दर में मामूली-सी वृद्धि करने पर ही
सरकार को काफी आय प्राप्त हो जाती है।
(5)
सामाजिक कल्याण-शराब, आदि मादक पदार्थों के
उत्पादन या विक्रय पर कर लगाकर इनके उपयोग को हतोत्साहित किया जा सकता है। अतः
अप्रत्यक्ष करों को समाज-सुधार हेतु भी प्रयुक्त किया जाता है।
(6)
करारोपण का विस्तृत आधार-अप्रत्यक्ष करों का भार
समाज के सभी वर्गों पर पड़ने के फलस्वरूप कर प्रणाली का आधार विस्तृत हो जाता है।
अप्रत्यक्ष
करों के दोष-
अप्रत्यक्ष
करों में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं -
(1)
असमानता-ये कर समानता एवं करदेय योग्यता के
सिद्धान्त का उल्लंघन करते हैं। इनका भार अधिकांश रूप से निर्धन व्यक्तियों पर
पड़ता है,
क्योंकि इन्हें उपभोग की आवश्यक वस्तुओं पर लगाया जाता है।
(2)
अनिश्चितता-इन करों से प्राप्त होने वाली आय अनिश्चित
होती है और उसका ठीक-ठीक पूर्व अनुमान लगाना जटिल होता है।
(3)
अमितव्ययी-इन करों को वसूल करने में सरकार को भारी
मात्रा में व्यय करना होता है, जिसके कारण इन करों को अमितव्ययी माना गया
है।
(4)
न्यायसंगत नहीं-चूँकि ये कर उपभोग की वस्तुओं पर लगाए जाते
हैं,
इसलिए इनका भार निर्धन वर्ग पर अधिक पड़ता है। अतः ये न्यायसंगत
नहीं हैं।
(5)
मुद्रा-स्फीति की प्रवृत्ति को बढ़ावा-अप्रत्यक्ष
करों से वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होती है, जिससे मुद्रा-स्फीति की प्रवृत्ति
को बढ़ावा मिलता है।
(6)
बेलोचदार-अप्रत्यक्ष करों को विलासिता की वस्तुओं पर
लगाने से उनके मूल्य बढ़कर माँग गिर जाती है, जिससे सरकार को पर्याप्त आय
प्राप्त नहीं हो पाती। अतः इन करों में लोच का अभाव पाया जाता है।
(7)
बचतों को हतोत्साहित करना—परोक्ष कर बचतों को
हतोत्साहित करते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये कर वस्तुओं के मूल्य में ही
सम्मिलित रहते हैं। अत: लोगों को आवश्यक वस्तुओं की खरीद पर अधिक व्यय करना पड़ता है।
प्रत्यक्ष
कर एवं अप्रत्यक्ष कर एक-दूसरे के पूरक हैं प्रत्यक्ष कर एवं अप्रत्यक्ष कर एक-दूसरे
के पूरक होते हैं। अत: कर प्रणाली को करदेय योग्यता पर आधारित करने तथा इसको
न्यायपूर्ण बनाने के लिए आवश्यक है कि दोनों ही प्रकार के कर लागू किए जाएँ, क्योंकि
एक कर दूसरे के दोषों को दूर करता है। प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ ग्लैडस्टोन ने
इन दोनों करों को दो आकर्षक बहिनों के समान माना था। उनके शब्दों में,
"मैं प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष करों के सम्बन्ध में और कुछ
नहीं सोच सकता, सिवाय इसके कि मेरे लिए ये दो आकर्षक बहिनों
के समान हैं, जो लन्दन के सुन्दर संसार में आई हैं। दोनों ही
विपुल भाग्यशालिनी हैं, दोनों के माता-पिता एक हैं-मेरा
विश्वास है कि दोनों के माता-पिता 'आवश्यकता' तथा 'आविष्कार' हैं-उनमें
अन्तर केवल इतना ही हो सकता है जितना कि दो बहिनों में होता है।"
Comments
Post a Comment