राजस्व का अर्थ एवं परिभाषा

प्रश्न 1."राजस्व उन विषयों में से एक है जो अर्थशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र के मध्य की सीमा पर स्थित है। इसका सम्बन्ध लोक सत्ताओं की आय-व्यय तथा इनके समायोजन से है।"

अथवा ‘’राजस्व की प्रकृति एवं विषय-वस्तु की विवेचना कीजिए।

अथवा ‘’लोक वित्त को परिभाषित कीजिए। इसके विभागों का वर्णन कीजिए।

उत्तर-राजस्व (लोक वित्त/सावर्जनिक वित्त) अपने आप में कोई नया विषय नहीं है, इसका अध्ययन अत्यन्त प्राचीन काल से किया जाता रहा है। इतना अन्तर अवश्य है कि वर्तमान में यह विषय एक विज्ञान के रूप में उभर कर सामने आया है तथा इसका क्षेत्र पहले की तुलना में कहीं अधिक व्यापक हो गया है।

राजस्व का अर्थ एवं परिभाषाएँ-

'राजस्व' शब्द मूलत: संस्कृत का शब्द है, जो दो शब्दों 'राजन' एवं 'स्व' से मिलकर बना है, जिसका अर्थ होता है 'राजा का धन'। राजस्व के अंग्रेजी रूपान्तर 'Public Finance' का अर्थ है लोक वित्त (जनता का वित्त), किन्तु हम राजस्व में जनता के वित्त का अध्ययन न करके जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था 'सरकार' की वित्तीय व्यवस्थाओं का अध्ययन करते हैं। इस प्रकार सार्वजनिक सत्ता की आय-व्यय सम्बन्धी क्रियाओं के अध्ययन को ही 'राजस्व' की संज्ञा दी जाती है।

डाल्टन के अनुसार, "राजस्व लोक सत्ताओं की आय तथा व्यय का अध्ययन करता है और यह बताता है कि इन दोनों में किस प्रकार समायोजन किया जाता  है।

फिण्डले शिराज के अनुसार, "राजस्व वह विज्ञान है जो सार्वजनिक संस्थाओं को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए धन प्राप्त करने तथा व्यय करने से सम्बद्ध है।"

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श्रीमती उर्सला हिक्स के अनुसार, "राजस्व के अध्ययन में उन पद्धतियों एवं प्रणालियों का अध्ययन किया जाता है जिनके अनुसार शासन संस्थाएँ जन साधारण के हितार्थ एकत्रित धनराशि से अधिकतम सुख-सुविधाओं की व्यवस्था करती हैं।"

टेलर के अनुसार, "सरकारी संस्था के अन्तर्गत संगठित रूप में जनता के वित्त का व्यवहार ही राजस्व है। इसमें केवल सरकारी वित्त का अध्ययन किया जाता है।"

अतः राजस्व अर्थशास्त्र की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि सरकार (केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय) किस प्रकार अपनी आय प्राप्त करती है और अपने उद्देश्यों की पूर्ति तथा समाज के प्रति अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए उस आय को किस प्रकार व्यय करती है।

राजस्व का क्षेत्र   

राज्य एवं उससे सम्बद्ध संस्थाएँ सामाजिक कल्याण हेतु किस प्रकार धन, एकत्रित करती हैं और किस प्रकार उसका उपयोग करती हैं, यही राजस्व की विषय-सामग्री है।

राजस्व के क्षेत्र की सीमा निर्धारित करते हुए डाल्टन ने लिखा है कि राजस्व अर्थशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र की सीमा पर स्थित है। इसका अर्थ यह है कि सरकार को एक ओर सुचारु रूप से शासन चलाने के लिए राजनीतिशास्त्र के सिद्धान्तों का पालन करना पड़ता है तथा दूसरी ओर अधिकतम सामाजिक कल्याण की प्राप्ति हेतु अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों का सहारा लेना पड़ता है।

हैरॉल्ड ग्रीब्ज के शब्दों में, "राजस्व अनुसन्धान की वह शाखा है जो सरकारों की आय और व्यय से सम्बन्धित है। आधुनिक समय में इसके चार बड़े विभाग हैं-राजकीय आय, राजकीय व्यय, राजकीय ऋण तथा राजकोषीय व्यवस्था की कुछ संस्थाएँ, जैसे-राजकोषीय प्रबन्ध एवं राजकोषीय नीति।" अध्ययन की दृष्टि से राजस्व को पाँच भागों में बाँटा जा सकता है

(1) सार्वजनिक व्यय-

सार्वजनिक व्यय किन-किन मदों पर किन-किन सिद्धान्तों के अनुसार किया जाना चाहिए और इसका देश की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, इन सब बातों का अध्ययन सार्वजनिक व्यय के अन्तर्गत किया जाता है। आज सार्वजनिक व्यय का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है I

और उससे सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन राजस्व का मुख्य विषय बन गया है। प्रो. प्लेहन ने लोक व्यय के सम्बन्ध में लिखा है कि "लोक व्यय राजस्व अथवा लोक वित्त का उसी प्रकार एक अंग है जिस प्रकार उपभोग अर्थशास्त्र का। लोक वित्त के इस भाग में सरकारी व्यय का वर्गीकरण एवं उन सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है जिनके अनुसार सरकार विभिन्न मदों पर आय-व्यय करती है।"

वर्तमान अर्थशास्त्री महत्त्व की दृष्टि से लोक व्यय की तुलना उपभोग से करते हैं। प्रो. प्लेहन के शब्दों में, "जिस प्रकार उपभोग अर्थशास्त्र का आदि, मध्य एवं अन्त है, उसी प्रकार सार्वजनिक व्यय लोक वित्त का आदि, मध्य एवं अन्त  है I

(2) सार्वजनिक आय-

सार्वजनिक व्यय के लिए सरकार को आय के साधन जुटाने पड़ते हैं। यह आय किन-किन स्रोतों से प्राप्त की जा सकती है, सार्वजनिक आय के कौन-से स्रोत उत्तम हैं तथा सार्वजनिक आय किन सिद्धान्तों के अनुसार प्राप्त की जानी चाहिए, इन सबका अध्ययन सार्वजनिक आय के अन्तर्गत किया जाता है। सरकार मुख्य रूप से दो साधनों से आय प्राप्त करती है-

(i) कर स्रोतों से, तथा

(ii) गैर-कर स्रोतों से। इन दोनों स्रोतों अथवा साधनों में करों का विशेष स्थान है। सार्वजनिक आय के अन्तर्गत करारोपण एवं उसकी समस्याओं का विशेष रूप से अध्ययन किया जाता है। 

(3) सार्वजनिक ऋण-

भूतकाल में यदि सरकारी आय, व्यय की अपेक्षा कम रहती थी, तो सरकार को जनता से ऋण लेना पड़ता था। किन्तु आधुनिक समय में सार्वजनिक ऋण की आवश्यकता एवं औचित्य स्पष्ट सिद्धान्तों पर आधारित है। सार्वजनिक ऋण क्यों लिए जाते हैं, किन कार्यों के लिए सरकार को ऋण लेना चाहिए और किन कार्यों के लिये नहीं, सार्वजनिक ऋणों का भुगतान किस प्रकार किया जाता है तथा सार्वजनिक ऋणों का देश की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है, इन सभी बातों का अध्ययन सार्वजनिक ऋण विभाग के अन्तर्गत किया जाता है।

(4) वित्तीय प्रशासन-

अपनी आय को एकत्रित करने तथा राजस्व सम्बन्धी अन्य क्रियाओं को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा जो वित्तीय प्रशासन व्यवस्था कायम की जाती है, उसका अध्ययन राजस्व के इस विभाग में किया जाता है। सरकार के बजट का अध्ययन इस भाग का मुख्य उद्देश्य है। सरकार की आय तथा व्यय का बजट किस प्रकार तैयार किया जाता है, बंजट का असन्तुलन कैसे दूर किया जाए, अंकेक्षण का उत्तरदायित्व किसके ऊपर है, राजस्व की इन सब व्यावहारिक समस्याओं का अध्ययन सार्वजनिक प्रशासन विभाग में किया जाता है।

वित्तीय प्रशासन के सम्बन्ध में पो. बेस्टेबिल ने लिखा है कि हम कल पाषा का अध्ययन ही अपेक्षित नहीं है. वरन उन सिद्धान्तों का पर्यवेक्षण भी आवश्यक है जिनके अनुसार वे विधियाँ अपनाई जाती हैं। कोई भी वित्त की पुस्तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक कि वह वित्तीय प्रशासन और बजट की समस्याओं का अध्ययन नहीं करती।"

(5) आर्थिक सन्तुलन-

राजस्व के इस विभाग में देश के अन्दर आर्थिक स्थायित्व लाने के लिए राजकोषीय नीति के प्रयोग का अध्ययन किया जाता है। राजकोषीय नीति के माध्यम से आर्थिक प्रणाली में सरकारी क्षेत्र द्वारा सन्तुलन बनाए रखा जाता है तथा निजी क्षेत्र को इस ढंग से नियन्त्रित किया जाता है कि सार्वजनिक कल्याण की प्राप्ति हो सके।

 राजस्व की प्रकृति

राजस्व विज्ञान है अथवा कला या विज्ञान एवं कला दोनों है, इस बात पर । सभी विचारक एकमत नहीं हैं। 

प्रो. प्लेहन ने राजस्व को एक विज्ञान माना है तथा इस सम्बन्ध में उन्होंने चार तर्क प्रस्तुत किए हैं-

(1) राजस्व सम्पूर्ण मानवीय ज्ञान का अध्ययन नहीं करता, अपितु इसका । सम्बन्ध मानवीय ज्ञान के विशेष भाग तक सीमित है।

(2) इस विज्ञान में तथ्यों और समंकों का नियमपूर्वक संग्रह किया जाता है तथा अनेक ऐसे नियम हैं जिन्हें केवल इसी विज्ञान में लागू किया जाता है।

(3) राजस्व के अध्ययन और अन्वेषण में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता है।

(4) राजस्व विशिष्ट किस्म की वस्तुस्थिति के सम्बन्ध में निश्चित व्याख्या प्रस्तुत करता है तथा उसके विषय में भविष्यवाणी भी कर सकता है।

यह उल्लेखनीय है कि राजस्व एक विज्ञान तो है, किन्तु यह स्वतन्त्र विज्ञान न होकर आश्रित विज्ञान है। राजस्व दो बड़े विज्ञानों 'अर्थशास्त्र' और 'राजनीतिशास्त्र'  पर आश्रित है। वास्तव में राजस्व विज्ञान होने के साथ-साथ कला भी है। यह कला का रूप उस समय धारण कर लेता है जब किसी देश की सरकार विभिन्न स्रोतों से आय एकत्रित करके उसे अधिकतम सामाजिक कल्याण के उद्देश्य से व्यय करना चाहती है। प्रो. प्लेहन के शब्दों में, "इन समस्त तथ्यों का, जिनका अध्ययन राजस्व के अन्तर्गत होता है, भली प्रकार से संग्रह किया जा सकता है और उनसे ऐसे सही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं जैसे अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में भी सामान्यत: नहीं निकाले जा सकते। जब एक विज्ञान निश्चित  रूप धारण कर लेता है, तब उसके सिद्धान्तों को कार्यान्वित करना वांछनीय और सुविधाजनक हो जाता है।" निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि राजस्व कला एवं विज्ञान, दोनों है। उदाहरण के लिए, जब हम राजस्व में सार्वजनिक आय और सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्तों एवं नीतियों की विवेचना करते हैं. तब यह एक वैज्ञानिक अभ्यास होता है, किन्तु जब इन सिद्धान्तों एवं नीतियों को सरकार की वित्तीय समस्याओं के समाधान के लिए प्रयोग किया जाता है, तब वह कलात्मक अभ्यास बन जाता है।

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