सार्वजनिक ऋण के आर्थिक प्रभाव

प्रश्न 14. सार्वजनिक ऋण के आर्थिक प्रभावों की विवेचना कीजिए।

अथवा '' देश की अर्थव्यवस्था पर सार्वजनिक ऋण के प्रभावों का वर्णन कीजिए।

उत्तरसार्वजनिक ऋण के आर्थिक प्रभाव ऋण की प्रकृति, स्वरूप, शर्तों, अवधि, ब्याज की दर आदि अनेक बातों पर निर्भर करते हैं। सभी ऋण समाज के विभिन्न व्यक्तियों को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करते हैं। ये प्रभाव निम्न प्रकार के हो सकते हैं  -

(1) सार्वजनिक ऋण का उपभोग पर प्रभाव-

सार्वजनिक ऋणों से ऋणदाता के वर्तमान उपभोग व्यय में कमी नहीं आती, क्योंकि वह अपनी बचतों में से सरकारी प्रतिभूतियाँ खरीदता है। किन्तु सार्वजनिक ऋणों से भविष्य का उपभोग कम हो जाता है, क्योंकि ऋणों का भुगतान करने के लिए सरकार कर आदि का सहारा लेती है, जिससे करदाताओं को अपना उपभोग कम करना पड़ता है। अतः सार्वजनिक ऋणों का वर्तमान उपभोग पर कोई प्रभाव न पड़कर भविष्य के उपभोग पर पड़ता है।

sarvjanik rin ke arthik prabhav

(2) सार्वजनिक ऋपा का उत्पादन पर प्रभाव-

सार्वजनिक ऋण के उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन अनलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है  -

(i) कार्य करने, बचत करने एवं विनियोग करने की शक्ति पर प्रभाव

यह प्रभाव दो प्रकार का हो सकता है  -

(a) यदि सरकार ऋणों से प्राप्त धन को ऐसी योजनाओं और कार्यक्रमों पर व्यय करती है जो उत्पादक हैं और जिनसे व्यक्तियों की उत्पादन शक्ति में वृद्धि होती है, तो ऐसे ऋणों से कार्य करने, बचत करने एवं विनियोग करने की शक्ति पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि आय बढ़ जाने के कारण उपर्युक्त बातों पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा। साथ ही ऋणों से प्राप्त धन को उत्पादक कार्यों में लगाने से मूलधन एवं ब्याज का शोधन करने के लिए अतिरिक्त करारोपण की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी, क्योंकि उत्पादक कार्यों से जो लाभ प्राप्त होगा, उसी में से उन दोनों का भुगतान कर दिया जाएगा।

(b) इसके विपरीत यदि ऋणों से प्राप्त राशि को अनुत्पादक कार्यों में लगाया गया हो, तो मूलधन और ब्याज का शोधन (भुगतान) करने के लिए अतिरिक्त करारोपण किया जाएगा, जिसका व्यक्तियों की कार्य एवं विनियोग करने की शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

(ii) कार्य करने एवं बचत करने की इच्छा पर प्रभाव-

सार्वजनिक ऋण व्यक्तियों के लिए सबसे उत्तम एवं सुरक्षित अवसर प्रदान करते हैं, जिससे व्यक्तियों में बचत करने की इच्छा जाग्रत होती है। किन्तु सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि सार्वजनिक ऋण से कार्य करने एवं बचत करने की इच्छा पर बुरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि-

(a) जब सरकार ऋण का शोधन करने के लिए अतिरिक्त कर लगाती है, तो करारोपण के कारण कार्य करने एवं बचत करने की इच्छा घट जाती है।

(b) सरकारी प्रतिभूतियों में रुपया लगाने से व्यक्तियों को निरन्तर आय प्राप्त होने लगती है, जिससे उसकी कार्य करने की इच्छा कम हो जाती है।

(iii) साधनों के स्थानान्तरण पर प्रभाव

यदि सरकार सार्वजनिक ऋणों के माध्यम से धन प्राप्त करके उसे ऐसे कार्यों में लगाती है जिनसे व्यक्तियों की उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है, तो ऐसे कार्यों में साधनों का स्थानान्तरण उपयोगी होता है। किन्तु जब इन साधनों का प्रयोग अनुत्पादक कार्यों अथवा युद्ध के संचालन हेतु किया जाता है, तो इस प्रकार के हस्तान्तरण से उत्पादक हतोत्साहित होता है।

(3) वितरण पर प्रभाव-

सार्वजनिक ऋण का धन के वितरण पर प्रभाव निम्न प्रकार का हो सकता है  -

(i) यदि केवल धनी व्यक्तियों से ऋण लिया जाता है और उससे प्राप्त धन को निर्धन व्यक्तियों के लाभ के लिए व्यय किया जाता है, तो इससे देश में धन के  वितरण की असमानता कम होगी। विपरीत स्थिति होने पर धन के वितरण की असमानता बढ़ेगी।

(ii) यदि ऋणपत्र छोटी-छोटी राशियों के हैं, जिन्हें निम्न आय वाले व्यक्ति भी खरीद सकते हैं, तो ब्याज का भुगतान समाज के निर्धन वर्ग के व्यक्तियों को भी प्राप्त होगा। इससे वितरण की असमानता कम होगी।

(iii) सार्वजनिक ऋण के कारण एक ऐसे वर्ग का जन्म होता है जो अपना भरण-पोषण पूर्णतया ऋणपत्रों से प्राप्त होने वाले ब्याज से ही करता है। इससे धन की असमानता में वृद्धि होती है।   अतः यदि ऋण से प्राप्त राशि को उत्पादक कार्यों में लगाया जाता है, जिससे मुख्यतः निर्धन व्यक्तियों को ही लाभ प्राप्त होता है, तो इससे धन की असमानता कुछ अंश तक कम हो जाती है। किन्तु सार्वजनिक ऋण को अनुत्पादक कार्यों में लगाने से धन के वितरण की असमानता बढ़ जाती है। सामान्यतया सरकारी ऋणपत्रों में विनियोग करने वाले धनी व्यक्ति ही होते हैं, जो ऋणपत्रों पर ब्याज की आय प्राप्त करते हैं। दूसरी ओर सार्वजनिक ऋणों के भुगतान हेतु सरकार करारोपण करती है, तो उसका भार समाज के निर्धन वर्ग को भी उठाना पड़ता है।

(4) आर्थिक क्रियाओं तथा रोजगार पर प्रभाव-

देश में मुद्रा-स्फीति को रोकने के लिए सार्वजनिक ऋण एक महत्त्वपूर्ण साधन है। मुद्रा-स्फीति की अवस्था में सरकार व्यक्तियों से ऋण प्राप्त करती है, जिससे समाज में मुद्रा के चलन की मात्रा कम हो जाती है, फलस्वरूप व्यक्तियों के पास क्रय-शक्ति भी घट जाती है, जिससे वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग घट जाती है, परिणामस्वरूप मूल्य-स्तर गिर जाता है। इसी प्रकार जब मन्दी काल में देश में व्यापार का स्तर गिर जाता है; मूल्य, उपभोग एवं उत्पादन का स्तर गिर जाता है; बेरोजगारी बढ़ती जाती है तथा साख संस्थाओं की स्थिति खराब हो जाती है, तो सरकार अपनी प्रतिभूतियों के आधार पर केन्द्रीय बैंक से ऋण लेकर रेलों, नहरों, सड़कों, नयेनये कारखानों आदि पर व्यय करती है, जिससे रोजगार की मात्रा बढ़े। इससे व्यक्तियों के पास धन पहुँचने से उनकी आय और क्रय-शक्ति बढ़ती है। क्रयशक्ति में वृद्धि माँग में वृद्धि लाती है तथा माँग में वृद्धि मूल्यों में वृद्धि लाती है, जिसके फलस्वरूप व्यापारिक मन्दी दूर हो जाती है।

(5) निजी उद्योगों पर प्रभाव-

सार्वजनिक ऋण माँग एवं पूर्ति को प्रभावित कर निजी उद्योग को प्रभावित कर सकते हैं। जब सार्वजनिक ऋण निजी उद्योग की वस्तुओं की माँग को बढ़ाता है तथा उनकी पूर्ति को कम नहीं होने देता, तो इसका प्रभाव निजी उद्योगों पर अच्छा पड़ता है। पुनः यदि माँग में वृद्धि के साथ सार्वजनिक ऋण निजी उद्योगों के उत्पादन व्यय को कम कर देता है, तो इसका प्रभाव भी इन उद्योगों पर अच्छा पड़ता है। किन्तु यदि सार्वजनिक ऋण निजी उद्योगों की वस्तुओं की मांग को घटाता है तथा इनके उत्पादन व्यय को बढ़ाता है, तो इसका इन उद्योगों पर बुरा प्रभाव पड़ता है

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