तुलनात्मक राजनीति के मार्क्सवादी और लेनिनवादी दृष्टिकोण
प्रश्न 5. तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन सम्बन्धी मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम (दृष्टिकोण) का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
अथवा ''तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन
में मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम की आवश्यकता एवं उपयोगिता का वर्णन कीजिए।
अथवा ''मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम
तथा उसकी सीमाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-पश्चिमी देशों के राजनीतिशास्त्रियों ने तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययनों में नये-नये प्रत्ययों का प्रयोग करके राजनीतिक व्यवहार को समझाने का प्रयत्न किया। किन्तु इन प्रत्ययों में मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण से राजनीतिक उथल-पुथल को समझाने का कोई क्रमबद्ध प्रयास नहीं किया गया। साम्यवाद के विस्तार और प्रसार से राजनीतिशास्त्रियों ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी परिप्रेक्ष्य के द्वारा तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन करने की सम्भावनाओं की तरफ ध्यान देना शुरू किया। सर्वप्रथम स्टीफन क्लार्कसन ने इस बात पर ध्यान दिया कि सोवियत संघ का विकास सिद्धान्त अर्थात् मार्क्सवादी-लेनिनवादी परिप्रेक्ष्य तुलनात्मक विश्लेषण का वैकल्पिक ढाँचा बन सकता है।
तुलनात्मक राजनीति में मार्क्सवादी-
लेनिनवादी
उपागम की आवश्यकता उन परिस्थितियों में पड़ी जब राजनीतिशास्त्र के विचारक विकासशील
देश एवं पाश्चात्य जगत् की राजनीतिक व्यवस्थाओं का गहन विश्लेषण कर चुके थे, तत्पश्चात्
वे सामान्य सिद्धान्त की खोज में थे। मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवधारणा सामान्य
सिद्धान्त के विकल्प के रूप में दिखाई दी। इसमें प्रत्ययी स्पष्टता, स्थायित्व, क्रमिकता एवं अनुरूपता का तत्त्व
विद्यमान था। विकासशील राज्यों की राजनीतिक व्यवस्था पर इसे सरलता से लागू किया जा
सकता है। यदि देखा जाए तो मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारणा नवीन नहीं है, परन्तु तुलनात्मक राजनीति में इसका प्रयोग नवीन माना जा सकता है। इसी कारण
सामान्य सिद्धान्त के विकल्प के रूप में इसकी आवश्यकता पड़ी।
मुख्य रूप से तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन में मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम के प्रयोग के तीन कारण हैं—
प्रथम, पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रस्तुत उपागमों की सामान्य सिद्धान्त के निर्माण में असफलता;
द्वितीय, पाश्चात्य विकासवादी विश्लेषण का प्रत्ययी पतन;
तृतीय,
पाश्चात्य उपागमों द्वारा विकासशील राज्यों की राजनीतियों का
सन्तोषजनक स्पष्टीकरण देने में असफलता।
मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम की
मान्यताएँ -
मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम के समर्थक कतिपय मान्यताएँ रखते हैं, जो निम्नलिखित हैं -
(1) राज्य की औपचारिक संरचनाओं को न्यूनतम महत्त्व—
मार्क्सवादीलेनिनवादी उपागम के समर्थक
राज्य की औपचारिक संस्थाओं और संरचनाओं को बहुत कम महत्त्व देते हैं। इस दृष्टिकोण
के प्रतिपादकों की मान्यता है कि राजनीतिक व्यवस्थाओं में औपचारिक संस्थाओं और
संरचनाओं का होना आवश्यक है, क्योंकि इनके माध्यम से राजनीतिक प्रक्रियाओं को
आधार तथा दिशा मिलती है, किन्तु इनको सब कुछ नहीं मान लेना
चाहिए। इस अर्थ में मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण अन्य उपागमों से भिन्न नहीं
है। व्यवहारवाद के उदय और प्रचलन के पश्चात् औपचारिक संरचनात्मक व्यवस्थाओं को
पाश्चात्य तुलनात्मक विश्लेषणों में भी विशेष स्थान नहीं दिया जाता है।
(2) अस्थिर राजनीतियों से सम्प्रत्ययी समीपता—
मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण में
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व यह है कि यह अस्थिर राजनीतियों से सम्प्रत्ययी (Conceptual) समीपता रखता है। विकासशील राज्यों में भी सभी प्रकार की अस्थिरताएँ
(सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक) विद्यमान हैं। ऐसे राज्यों की
समस्याएँ मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम के आधार पर भी समझी जा सकती हैं, क्योंकि इनकी 'राज्य शक्ति वर्ग' तथा आर्थिक नियतिवाद की संकल्पनाएँ विकासशील राज्यों में इनसे सम्बन्धित
धारणाओं से बहुत मेल खाती हैं। साम्यवादी विचारधारा की संकल्पना जैसा समानार्थी
प्रत्यय विकासशील राज्यों में भी लोकप्रिय होने लगा है। अतः इन प्रत्ययों की
सहायता से तीसरे विश्व के देशों की अस्थिरताओं का सामान्य स्पष्टीकरण सम्भव प्रतीत
होता है।
(3) अन्तःशास्त्रीय अध्ययन दृष्टिकोण पर बल मार्क्सवादी-
लेनिनवादी उपागम में अन्तःशास्त्रीय
अध्ययन दृष्टिकोण निहित है। इस उपागम के अनुसार सामाजिक विज्ञानों को स्वायत
अनुशासन के रूप में रखने से महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय प्रश्न, राजनीतिशास्त्र,
समाजशास्त्र और मनोविज्ञान के पृथक्-पृथक् शैक्षणिक स्कूलों के मध्य
विभक्त होकर रह जाते हैं। इससे समस्याओं के समाधान नहीं होते और प्रश्नों के
स्पष्टीकरण नहीं आते, अपितु इससे समस्याएँ शैक्षणिक विवादों
में फँसकर रह जाती हैं। अतः मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण समग्र दृष्टि से
सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था को समझने के प्रयास पर बल देता है।
(4) नवीन प्रत्ययी ढाँचों का सृजन नहीं—
मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम प्रत्यक नई समस्या के समाधानात्मक अध्ययन के लिए नये-नये प्रत्ययी ढाँचे सृजित नहीं करता। इससे प्रत्ययी एकता समाप्त हो जाती है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम में स्थिरतामुक्त अवधारणाएँ और प्रविधियाँ प्रयुक्त करने की व्यवस्था की गई है।
(5) व्यष्टि के स्थान पर समष्टि स्तर को उपयुक्त मानना-
मार्क्सवादीलेनिनवादी उपागम व्यष्टि के
स्थान पर समष्टि स्तर की इकाई चुनना उपयुक्त मानता है। प्रत्येक देश में राजनीतिक
व्यवहार इतने अधिक परिवर्यों से प्रभावित रहता है कि किसी भी व्यष्टि अध्ययन में
कोई परिवर्त्य छूट जाएगा और किसी अध्ययन में कोई नया परिवर्त्य आ जाएगा। इसलिए यह
उपागम सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था को इकाई या सन्दर्भ मानकर उनकी प्रक्रियात्मक
अभिव्यक्तियों को समझने का प्रयास करता है।
(6) यथार्थवादी अभिमुखीकरण-
मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण की एक
अन्य विशेषता यह है कि इसका अभिमुखीकरण यथार्थवादी है। यह सतत् परिवर्तनशील
राजनीतिक संस्थाओं, राजनीतिक प्रक्रियाओं और राजनीतिक व्यवहार के
प्रति संवेदनशील है। इसकी अवधारणाएँ राजनीति की गत्यात्मक शक्तियों के अनुरूप हैं।
मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम की
उपयोगिता-
मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम की उपयोगिता
को निम्न बिन्दुओं के आधार पर अभिव्यक्त किया जा सकता है -
(1) यह राजनीतिक व्यवस्थाओं को गति देने वाली
शक्तियों को समझने में सहायक है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी उन सब तथ्यों और परिवों की
खोज करते हैं जिनसे किसी देश की राजनीतिक व्यवस्था गतिशील बनती है। इसके परिणामस्वरूप
यह अध्ययन उपागम अत्यधिक उपयोगी बन जाता है।
(2) इस उपागम के प्रत्यय स्थायित्व के कारण शोध तथा
तुलनात्मक विश्लेषण में बहुत अधिक व्यवस्थित बन जाते हैं। परिणामतः विभिन्न
सामाजिक विज्ञानों के शोध को संश्लेषित करके निष्कर्ष निकालना सम्भव हो जाता है।
(3) मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम राजनीतिक
व्यवस्थाओं को निरन्तर ऐतिहासिक विकास पर अंकित करके समझने का प्रयास करता है।
(4) मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम का एक अन्य लाभ यह
है कि इसमें अन्त:शास्त्रीय अध्ययन दृष्टिकोण अपनाने के कारण अध्ययन यथार्थवादी और
व्यवहारवादी बन जाते हैं।
मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम की आलोचना
अथवा
मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम की सीमाएँ
मार्क्सवादी-लेनिनवादी
उपागम की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है -
(1) अत्यधिक सामान्य दृष्टिकोण-
मार्क्सवादी-लेनिनवादी
उपागम की मौलिक और आधारभूत कमी यह है कि विहंगम दृष्टिपात करने के प्रयत्न में यह
वास्तविक किन्तु छोटे-छोटे व महत्त्वपूर्ण तथ्यों को देख ही नहीं पाता है।
सामान्यतया राजनीतिक घटनाओं के कारण छोटे पैमाने पर ही उत्पन्न होते हैं, जिनका
बाद में व्यापक प्रभाव प्रकट हो सकता है। इसलिए तुलनात्मक राजनीतिक विश्लेषणों में
सबको समझने से पहले कुछ को समझने का प्रयत्न अधिक उपयुक्त है, क्योंकि राजनीतिक व्यवस्थाओं की सम्पूर्णता के असंख्य पहलू हो सकते हैं और
सबको एक साथ अध्ययन में नहीं परखा जा सकता है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण
में सम्पूर्ण को एक साथ समझने का प्रयत्न इसे अत्यधिक सामान्य स्तर पर रहने को
मजबूर करता है।
(2) सैद्धान्तिक परिशुद्धता का निम्नतर स्तर—
मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम सिद्धान्त
निर्माण की चिन्ता तो करता है, किन्तु उनकी परिशुद्धता के लिए प्रयत्न करने की
बात भूल जाता है । वे बात तो सिद्धान्तों के निर्माण की करते हैं, जो सर्वव्यापी व सार्वकालिक हों, किन्तु ऐसे महान्
सिद्धान्तों के निर्माण के लिए आवश्यक सुनिश्चित प्रविधियों, मापनीय तथ्यों और विविध प्रकार के पक्षों से सम्बन्धित आँकड़ों के संकलन
से कतराते हैं। ऐसी अवस्था में इन सबके अभाव में बने सिद्धान्त परिशुद्धता का
निम्न स्तर भी प्राप्त कर सकेंगे, इसमें शंका उत्पन्न हो
जाती है। इस प्रकार मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण के समर्थक एक ओर तो
सर्वव्यापी सिद्धान्तों के निर्माण का लक्ष्य रखते हैं, तो
दूसरी तरफ इसके लिए आवश्यक सामग्री जुटाने व संकलित सामग्री का उपयोग करने से एक
तरह से इन्कार ही कर देते हैं। ऐसी स्थिति में सैद्धान्तिक परिशुद्धता का निम्न
स्तर ही रह जाता है।
(3) पद्धति व्यवस्था की अत्यल्प कठोरता मार्क्सवादी-
लेनिनवादी उपागम के समर्थकों द्वारा
राजनीतिक घटनाओं को समझने व उनका स्पष्टीकरण देने की चिन्ता को सर्वोपरिता व
प्रमुखता की वेदी पर, अध्ययन पद्धतियों का सख्ती से पालन कर, बलिदान कर दिया जाता है। इससे निष्कर्षों पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता हा
एसी स्थिति में अध्ययन पद्धति सहलियत का माध्यम बन जाती है। यह दृष्टिकोण
अत्यन्त खतरनाक होता है। अध्ययन पद्धतियों का सख्ती से पालन व प्रयोग ही सत्य तक
पहुँचने में सहायक हो सकता है। अतः आलोचकों में यथार्थता का अंश ही अधिक है। एक
विद्वान् ने इस सम्बन्ध में यहाँ तक कह दिया है कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी
दृष्टिकोण में पद्धतियों का कोई महत्त्व नहीं है।
(4) विचारधाराई झुकाव व पूर्णग्रह्यता-
मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम पर सबसे
महत्त्वपूर्ण आरोप इसकी विचारधारा विशेष से सम्बद्धता है। इस उपागम में
मार्क्सवादी-लेनिनवादी व्यवस्था से कहीं अधिक बल साम्यवादी व्यवस्था की 'श्रेष्ठता
पर दिया गया है। अतः तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययन निष्पक्षता की स्थिति से बहुत दूर
हट जाते हैं। यह विचारधारा विशेष के पोषक बन जाते हैं।
(5) विकसित और स्थिर राजनीतिक सम्बन्धी अप्रासंगिकता-
मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम के सम्बन्ध
में यह भी कहा जाता है कि यह विकसित और स्थिर राजनीतिक व्यवस्थाओं के अध्ययन में
निरर्थक होता है। ऐसी व्यवस्थाओं में राजनीतिक प्रक्रियाएँ और सामाजिक संरचनाएँ
आपस में इतनी उलझी होती हैं कि समष्टि स्तर के अध्ययन अन्ततः निरर्थक बनकर ही रह
जाते हैं। राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करने वाले परिवर्यों की संख्या इतनी अधिक
होती है कि मानव-मस्तिष्क उनकी कल्पना ही नहीं कर सकता। उनकी गिनती नहीं कर सकता।
ऐसी स्थिति में इन तथ्यों की अनदेखी करके केवल सम्पूर्ण इकाइयों पर अध्ययन को
केन्द्रित करना असम्भव को सम्भव बनाने का स्वप्न देखना ही कहा जा सकता है।
मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम समष्टि स्तर पर ही ध्यान केन्द्रित करके सम्पूर्ण
राजनीतिक सक्रियता को समझने का निरर्थक प्रयत्न ही कहा जा सकता है। ज्ञान की
वर्तमान सीमाओं से राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन सम्भव नहीं है। अत: व्यष्टि स्तर
पर ही तुलनाओं का प्रयत्न किया जाना चाहिए। यह उपागम व्यष्टि के स्थान पर समष्टि
स्तर का अनुसरण करके विकसित और स्थिर राजनीतिक व्यवस्थाओं के अध्ययन को अलग कर
देता है।
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