कहानी बड़े भाई साहब - मुंशी प्रेमचन्द

प्रश्न 4. मुंशी प्रेमचन्द द्वारा लिखित 'बड़े भाई साहब' कहानी का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर-मुंशी प्रेमचन्द की गणना हिन्दी के प्रमुख कहानीकारों में की जाती है। उनकी कहानियाँ काल्पनिक न होकर आसपास के परिवेश तथा जीवन जगत् की समस्याओं से सम्बन्धित होती हैं। साथ ही उनकी कहानियाँ मनोरंजक होने के साथ-साथ प्रेरणादायक भी होती हैं।

'बड़े भाई साहब'

दो भाइयों की कहानी है, जो हॉस्टल में रहकर पढ़ते हैं। बड़े भाई साहब लेखक से पाँच वर्ष बड़े हैं, किन्तु वे उससे तीन कक्षा ही आगे हैं। बड़े भाई साहब बड़ी मेहनत से पढ़ाई करते हैं, किन्तु बार-बार फेल हो जाते हैं । लेखक खेलकूद में रुचि रखता है, फिर भी वह कक्षा में अव्वल आता है। बड़े भाई साहब लेखक को खेलकूद से दूर रहने तथा पढ़ाई करने का उपदेश देते रहते, हैं।

कहानी बड़े भाई साहब  मुंशी प्रेमचन्द

बड़े भाई साहब का स्वभाव

बड़े भाई साहब अत्यन्त परिश्रमी थे तथा वे हर समय किताबें खोले बैठे रहते थे। कभी कॉपी, तो कभी किताबों के हाशिए पर कुत्ते, बिल्ली या चिड़ियों की तस्वीरें बनाया करते थे।

कभी-कभी एक ही शब्द या नाम या वाक्य दस-दस, बीस-बीस बार लिखते रहते थे। कभी कोई एक शेर बार-बार सुन्दर अक्षरों में लिखते और कभी शब्दों की ऐसी इबारत लिखते थे जिसका कोई अर्थ न होता था। वे नवीं जमात में थे और लेखक पाँचवीं में। भला उसका इतना साहस कैसे हो सकता था कि बड़े भाई साहब से यह जानने का प्रयास करता कि उनकी इस मेहनत का क्या अर्थ है।

छोटे भाई (लेखक) का स्वभाव-

लेखक का मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं लगता था। उसके लिए एक घण्टा भी किताब लेकर बैठना मुश्किल था। वह मौका पाते ही हॉस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकड़ियाँ उछालता, तो कभी कागज की तितलियाँ बनाकर उड़ाता और यदि कोई साथी मिल जाता, तो उसके साथ तरह-तरह के खेल खेलता। जब वह खेलकर वापस कमरे में आता था, तो बड़े भाई साहब का रौद्र रूप देखकर उसके प्राण सूख जाते थे। वे उससे केवल एक ही सवाल पूछते—'कहाँ थे ?' उनके इस सवाल का उत्तर देने में लेखक के पसीने छूट जाते थे।

बड़े भाई साहब के प्रवचन-

हॉस्टल के कमरे में घुसते ही बड़े भाई साहब के प्रवचन शुरू हो जाते थे। इस तरह अंग्रेजी पढ़ोगे, तो जिन्दगी भर पढ़ते रहोगे, एक शब्द भी नहीं सीख पाओगे ! अंग्रेजी पढ़ना हँसी खेल नहीं है, जो हर ऐरागैरा नत्थू खैरा पढ़ ले। बड़े-बड़े विद्वान् भी शुद्ध अंग्रेजी नहीं लिख सकते।

बड़े भाई साहब कहते हैं कि तुम तो मुझे देखकर भी सबक नहीं लेते। इतने मेले-तमाशे लगते हैं, रोज क्रिकेट-हॉकी के मैच होते हैं, पर मैं उनके पास तक नहीं फटकता। हमेशा पढ़ता रहता हूँ, उस पर भी एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल तक पड़ा रहता हूँ। फिर तुम कैसे आशा करते हो कि इस प्रकार खेलकूद में समय व्यतीत करके पास हो जाओगे ? यदि मुझे एक कक्षा में दो-तीन साल लगते हैं, तो तुम तो उम्रभर इसी दरजे में सड़ते रहोगे। क्यों दादा की कमाई बर्बाद कर रहे हो? इससे अच्छा है कि घर चले जाओ और खूब गुल्ली-डण्डा खेलो।

बड़े भाई साहब के प्रवचन का प्रभाव-

बड़े भाई साहब की लताड़ सुनकर लेखक की आँखों में आँसू आ जाते हैं। उसके पास उनकी बातों का कोई जवाब न था। बड़े भाई साहब की लताड़ सुनकर लेखक सोचने लगता है कि क्यों न घर वापस चला जाए, बड़े भाई साहब की तरह पढ़ाई करना उसके बूते की बात नहीं है। परन्तु घण्टे-दो घण्टे बाद निराशा के बादल छंट जाते हैं और वह पढ़ाई करने के लिए दृढ़ निश्चय कर लेता है। फटाफट एक टाइम टेबल तैयार करता है, जिसमें पढ़ाई के अलावा खेलकूद के लिए कोई स्थान नहीं था। परन्तु टाइम टेबल बना लेना एक बात है और उस पर अमल करना दूसरी बात । पहले दिन से ही उसकी अवहेलना शुरू हो जाती है। लेखक को मैदान की सुखद हरियाली,

फुटबॉल की उछलकूद और कबड्डी के दाँवपेंच याद आने लगते हैं। अन्ततः लेखक खेलकूद का मोह नहीं त्याग पाया। बड़े भाई साहब की फटकार और तिरस्कार के बावजूद भी वह सब कुछ भूलकर खेलने के लिए निकल पड़ता। यह क्रम साल भर चलता रहा।

वार्षिक परीक्षा का परिणाम-

 सालाना इम्तिहान हुए और बड़े भाई साहब फेल हो गए। लेखक अपनी कक्षा में अव्वल आया। अब दोनों भाइयों के बीच दो दरजे का अन्तर रह गया। लेखक के मन में आया कि क्यों न बड़े भाई को आड़े हाथों लूँ और कहूँ कि आपकी घोर तपस्या कहाँ गई ? मुझे देखो, मैं खेलता भी रहा और दरजे में भी अव्वल आया। परन्तु लेखक ने देखा कि बड़े भाई साहब बहुत उदास हैं, अत: उनके घावों पर नमक छिड़कने का विचार उसे शर्मनाक लगा। पर अब लेखक को अपने ऊपर कुछ अभिमान हो गया था और उसका आत्म-विश्वास भी बढ़ गया था। अब उस पर बड़े भाई साहब का रौब भी पहले की तरह न रहा। अब वह खुले मन से खेलकूद में शामिल होने लगा। लेखक ने जाहिर तौर पर यह जताने का प्रयास नहीं किया, किन्तु उसके स्वभाव से यह साफ जाहिर होता था कि उस पर बड़े भाई साहब का पहले जैसा आतंक न था। बड़े भाई साहब ने इसे भाँप लिया।

बड़े भाई साहब की नसीहतें

एक दिन जब लेखक गुल्ली-डण्डा खेलने के बाद दोपहर के समय भोजन करने के लिए कमरे में लौटा, तो बड़े भाई साहब ने पुन: नसीहतें देना प्रारम्भ कर दिया। इस साल दरजे में अव्वल आ गए तो तुम्हें घमण्ड हो गया, मगर भाईजान घमण्ड तो अच्छे-अच्छों का नहीं रहा, तुम्हारी क्या हस्ती है। रावण का उदाहरण देकर बोले कि घमण्डी का सिर सदैव नीचा होता है, इसलिए आदमी को घमण्ड नहीं करना चाहिए। अन्धे के हाथ बटेर बार-बार नहीं लगती। मेरे फेल हो जाने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो पसीना आ जाएगा। एलजेबरा और अंग्रेजी पढ़ने में लोहे के चने चबाने पड़ेंगे। इंगलिस्तान का इतिहास रटना पड़ेगा। दर्जनों तो हेनरी हुए हैं, यदि हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवाँ लिखा, तो सब नम्बर गायब । दर्जनों जेम्स और दर्जनों विलियम्स हुए हैं। और ज्योमेट्री से तो खुदा बचाए, अ ब स की जगह अ स ब लिखा, तो सारे नम्बर गायब। कोई इन निर्दयी परीक्षकों से पूछे कि दाल-भात-रोटी खाई या भात-दाल-रोटी खाई, इसमें भला क्या फर्क है। मगर इन्हें तो बस उसी.में नम्बर देना है जो किताबों में लिखा है। उसे रट लो और इसी रटन्त के आधार पर इन्होंने शिक्षा को छोड़ रखा है।

कभी समय की पाबन्दी पर निबन्ध लिखने को कहेंगे। अब आप चार पेज का निबन्ध लिखकर समय की बर्बादी कर रहे हैं। ये हिमाकत नहीं तो और क्या

1034-दिनेश नॉलेज प्लस है ? यदि किसी रेखा पर किसी बिन्दु से लम्ब डालें, तो आधार लम्ब से दुगना होगा। अरे दुगुना नहीं चौगुना हो जाए, मेरी बला से। लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो रटना ही पड़ेगा। __ भले ही मैं फेल हो गया हूँ, पर हूँ तो तुमसे उम्र में बड़ा और रहूँगा। स्कूल जाने का समय हो गया था, सो उनके उपदेशों से छुटकारा मिला, अन्यथा न जाने कब तक उपदेश चलते रहते। बड़े भाई साहब ने अपने दरजे की पढ़ाई का जो भयावह चित्र खींचा था, उसने लेखक को भयभीत कर दिया था। इतने पर भी उसकी पुस्तकों के प्रति अरुचि ज्यों की त्यों बनी रही।

बड़े भाई साहब फिर फेल

फिर सालाना इम्तिहान हुए और बड़े भाई साहब पुनः फेल हो गए। लेखक ने बहुत मेहनत तो न की थी, किन्तु फिर भी वह दरजे में अव्वल आया। नतीजा सुनकर बड़े भाई साहब रो पड़े। उनके साथ लेखक भी रोने लगा। अब लेखक को उन पर दया आती थी। उनके फेल हो जाने से लेखक की खुशी आधी रह गई। अब लेखक और उनके बीच केवल एक दरजे का अन्तर रह गया।

अब बड़े भाई साहब कुछ नरम पड़ गए थे। कई बार डाँटने का अवसर मिलने पर भी वे कुछ न कहते थे। शायद वे यह सोचने लगे थे कि अब डाँट सकने का अधिकार उन्होंने खो दिया है। लेखक ने इसका लाभ उठाया और खेलकूद में रम गया।

कनकौआ लूटने की घटना-

एक दिन सन्ध्या समय हॉस्टल से दूर लेखक कनकौआ लूटने के लिए बेतहाशा दौड़ा जा रहा था और आँखें आसमान की ओर थीं। बालकों की पूरी सेना उस कटे कनकौए को लूटने के लिए उसके पीछे भाग रही थी। सहसा ही उसकी बड़े भाई साहब से मुठभेड़ हो गई और उन्होंने छोटे भाई का हाथ पकड़ लिया तथा उग्र भाव से बोले कि तुम्हें इन गली-मोहल्ले के लड़कों के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते हुए शर्म नहीं आती। यह तो सोचो कि अब तुम नीची जमात में नहीं, बल्कि आठवीं में आ गए हो। कुछ तो अपनी पोजीशन का ख्याल करो। मैं तुमसे पाँच साल बड़ा हूँ और रहूँगा। भले ही तुम मुझसे आगे निकल जाओ, लेकिन मैं बड़ा ही रहूँगा। मुझे दुनिया का तुमसे ज्यादा अनुभव है। तो भाईजान यह बात दिल से निकाल दो कि तुम मेरे समीप

आ गए हो और अब स्वतन्त्र हो। मेरे देखते तुम बेराह नहीं हो पाओगे। तुम इस प्रकार नहीं मानोगे, तो मैं थप्पड़ का भी प्रयोग कर सकता हूँ।

उनकी इस युक्ति से लेखक नतमस्तक हो गया और उसे अपनी लघुता का बोध हुआ। उसने सजल आँखों से बड़े भाई साहब से कहा कि आप जो कुछ फरमा रहे हैं. वह बिल्कुल सत्य है और आपको कहने का पूरा अधिकार है। बड़ भाई साहब ने लेखक को गले लगा लिया।

इतनी ही देर में एक कटा कनकौआ वहाँ से गुजरा, जिसकी डोर लटक रही थी। लड़कों का एक झुण्ड उसके पीछे-पीछे दौड़ रहा था। बड़े भाई साहब ने लम्बाई का फायदा उठाकर लटकती डोर को पकड़ लिया और बेतहाशा हॉस्टल की ओर भागे। उनके पीछे भाग रहा था लेखक और वे हॉस्टल आकर ही रुके।

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