बर्लिन की सन्धि 1878 - बर्लिन कांग्रेस ,शर्ते ,परिणाम,निष्कर्ष

MJPRU-BA-III-History II / 2020 

प्रश्न 4. बर्लिन सन्धि (1878 ई.) के मुख्य प्रावधानों तथा परिणामों की व्याख्या कीजिए। 
अथवा '' 1878 ई. की बर्लिन कांग्रेस का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।

उत्तर - 24 अप्रैल,1877 को रूस ने टर्की के विरुद्ध युद्ध प्रारम्भ कर दिया। रूस की सैनिक शक्ति के सामने टर्की एक साधारण सैन्य शक्ति सम्पन्न देश था, इसलिए वह प्रत्येक स्थान पर हारता गया। रूसी सेना की एक टुकड़ी कांस्टेंटिनोपिल के बहुत ही पास सान-स्टीफानो नामक गाँव तक पहुँच गई। यह क्षेत्र रूस के हाथ लगने ही वाला था, परन्तु ब्रिटिश प्रधानमन्त्री डिजरायली ने रूस के इस कार्य से नाराज होकर अपनी नौसेना को तैयार होने को कहा। यही नहीं,भारतीय-ब्रिटिश सेना माल्टा पहुँचा दी गई। ऑस्ट्रिया ने भी रूस की कार्यवाही का विरोध किया।
बर्लिन की सन्धि 1878 - बर्लिन कांग्रेस ,शर्ते ,परिणाम,निष्कर्ष

सान-स्टीफानो की सन्धि

उपर्युक्त परिस्थितियों में रूस के जार ने 3 मार्च, 1878 को टर्की के साथ सान-स्टीफानो में एक सन्धि कर ली। इस सन्धि की मुख्य शर्ते निम्न प्रकार थीं
(1) सर्बिया, रूमानिया और मॉण्टीनीग्रो की पूर्ण स्वतन्त्रता मान ली जाए।
(2) बोस्निया, हर्जेगोविना और आर्मीनिया में शासन सुधार किया जाए।
(3) एक विशाल स्वतन्त्र बुल्गारिया (डेन्यूब नदी से डेंजियन सागर तथा काला सागर से अल्बानिया तक) का निर्माण हो तथा उसे स्वायत्त शासन भी प्रदान किया जाए।
 (4) रूस को आर्मीनिया के कुछ भूभाग और टर्की ने रूस को युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में एक बहुत बड़ी धनराशि देने का वायदा किया।
(5) क्रीट, एपिरस,थिसैली में भी स्वशासन स्थापित किया जाए।
(6) टर्की ने रूस को क्षतिपूर्ति के तौर पर भारी रकम, आर्मीनिया के कुछ प्रदेश तथा दोबजा (Dobruja) का प्रदेश देना स्वीकार किया।
(7) टर्की डेन्यूब नदी की किलेबन्दी भंग कर दे।
(8) टर्की आर्मीनिया के ईसाइयों को विशेष सुविधाएँ प्रदान करे।


रूस द्वारा सान-स्टीफानो की सन्धि को यूरोपीय कांग्रेस के

समक्ष पुनर्विचार के लिए प्रस्तुत करने के लिए सहमत होना


सान-स्टीफानो की उपर्युक्त सन्धि का अर्थ था टर्की का पूर्ण विनाश । फिर इस सन्धि से रूस का प्रभाव बढ़ने लगा । सर्बिया, रूमानिया और मॉण्टीनीग्रो तो पहले ही उसके प्रभाव में थे। जिस नये बुल्गारिया राज्य का निर्माण होने जा रहा था, उस पर भी रूस का ही प्रभाव रहता । इसलिए सान-स्टीफानो की सन्धि के समाचार से ब्रिटेन और ऑस्ट्रिया में खलबली मच गई। स्वयं ऑस्ट्रिया जर्मनी से निकाले जाने के बाद अपनी साम्राज्यवादी भूख को शान्त करने के लिए बाल्कन राज्यों की ओर गिद्ध दृष्टि से देख रहा था,जहाँ कि रूस अपना प्रभाव बढ़ाता जा रहा था। रूस को छोड़कर कोई भी राष्ट्र सान-स्टीफानो की सन्धि से प्रसन्न नहीं था।
ब्रिटेन और ऑस्ट्रिया इस बात पर एकमत थे कि टर्की साम्राज्य की समस्या में सभी यूरोपीय राज्यों की दिलचस्पी है और रूस अकेला अपने स्वार्थ से इस क्षेत्र में व्यवस्था न करे। ऑस्ट्रिया ने इस समस्या पर विचार करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने की माँग की,जिसका समर्थन ब्रिटेन ने भी किया। फिर तो चारों ओर से ऐसी माँग होने लगी। प्रारम्भ में रूस ने इस सम्मेलन का विरोध किया। परन्तु ब्रिटिश प्रधानमन्त्री डिजरायली ने युद्ध की धमकी दी। इस समय रूस युद्ध लड़ने की स्थिति में नहीं था। उसकी सैनिक और आर्थिक स्थिति शोचनीय थी। जर्मनी उसे सहायता नहीं दे रहा था। अन्ततः रूस ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे दी।
इस समय तक यूरोपीय रंगमंच पर संयुक्त जर्मनी का उदय हो चुका था । जर्मनी के चांसलर बिस्मार्क के प्रस्ताव पर सम्मेलन बर्लिन में हुआ. जिसमें बिस्मार्क ने 'ईमानदार दलाल' के रूप में सम्मेलन का सभापतित्व किया, परन्तु सम्मेलन में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री डिजरायली ही छाये रहे।

बर्लिन सन्धि

सम्मेलन में निर्णय लेने में देर नहीं लगी, क्योंकि सम्मेलन प्रारम्भ होने से पहले ही बड़े राष्ट्रों में महत्त्वपूर्ण मामलों पर सहमति हो चुकी थी। 13 जुलाई, 1878 को बर्लिन सन्धि पर हस्ताक्षर हुए, जिसकी मुख्य बातें इस प्रकार थीं |
(1) सान-स्टीफानो सन्धि के बहुत-से वे उपबन्ध हटा दिए गए जिनसे रूस लाभान्वित हो रहा था।
(2) रूमानिया की स्वतन्त्रता स्वीकार कर ली गई और पूर्व सन्धि द्वारा रूस को जो प्रदेश रूमानिया से लेकर दिए गए थे, वे रूमानिया को वापस दिए गए।
(3) ऑस्ट्रिया को बोस्निया और हर्जेगोविना प्रदेश प्राप्त हुए।
(4) ब्रिटेन को साइप्रस पर आधिपत्य और शासन करने का अधिकार मिला।
(5) सर्बिया और मॉण्टीनीयो को पूर्ण स्वतन्त्र राज्य माना गया।
(6) बुल्गारिया की स्वाधीनता स्वीकार कर ली गई,परन्तु उसे छोटा-सा राज्य ही बना दिया गया।
(7) बाल्कन पर्वतमाला के दक्षिण में स्थित पूर्वी रूमानिया प्रदेश सांन-स्टीफानो की सन्धि के अन्तर्गत बुल्गारिया को दिया गया था, अब यह पुनः टर्की के सुल्तान को सौंपा गया। परन्तु इसके शासन के लिए ईसाई गवर्नर की व्यवस्था की गई।
(8) फ्रांस को ट्यूनिस पर अधिकार करने की छूट दे दी गई।
उल्लेखनीय है कि जर्मनी ने किसी प्रदेश पर दावा नहीं किया, परन्तु बदले में टर्की की कृतज्ञतापूर्ण मैत्री का बड़ा लाभ हुआ। रूस का जर्मनी से दूर चला जाना बर्लिन सम्मेलन का प्रमुख परिणाम रहा।

बर्लिन सन्धि या बर्लिन कांग्रेस का मूल्यांकन


बर्लिन सन्धि या बर्लिन कांग्रेस के महत्त्व को निम्नलिखित शीर्षकों के आधार पर स्पष्ट कर सकते हैं
(1) यूरोपीय राष्ट्रों के सहयोग द्वारा पूर्वी समस्या के समाधान का सिद्धान्त - जिन परिस्थितियों में रूस और टर्की के बीच युद्ध के परिणामस्वरूप सान-स्टीफानो की सन्धि हुई थी,उसकी प्रतिक्रिया बाल्कन क्षेत्र के राष्ट्रों में तथा यूरोप में बहुत उग्र हुई। बड़े बुल्गारिया राज्य के निर्माण से ग्रीस, रूमानिया, सर्बिया आदि राष्ट्र असन्तुष्ट थे। दूसरी ओर ब्रिटेन और ऑस्ट्रिया ने भी सान-स्टीफानो की सन्धि का विरोध किया और इस बात पर जोर दिया कि पूर्वी समस्या का समाधान सभी राष्ट्रों की इच्छा के अनुकूल होना चाहिए।
वियना कांग्रेस तथा पेरिस के सम्मेलन के समान बर्लिन कांग्रेस भी यूरोपीय राष्ट्रों का एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन था। इस प्रकार के सम्मेलन के आयोजन से ही इस सिद्धान्त की विजय हो गई कि पूर्वी समस्या का निर्णय यूरोप के सभी राष्ट्रों के द्वारा किया जाए, केवल एक राष्ट्र द्वारा नहीं।
(2) बाल्कन क्षेत्र में नये राष्ट्रों का उदय - बाल्कन प्रदेश के नवोदित राष्ट्र जिस स्वतन्त्रता संघर्ष में व्यस्त थे, उसमें उन्हें पर्याप्त सफलता मिली । बर्लिन कांग्रेस के परिणामस्वरूप तीन नये बाल्कन राष्ट्रों की स्वतन्त्रता को स्वीकृति प्रदान कर दी गई। इस प्रकार मॉण्टीनीग्रो, सर्बिया और रूमानिया-ये तीन स्वतन्त्र राष्ट्र स्वीकार कर लिए गए। बर्लिन सन्धि के परिणामस्वरूप बाल्कन क्षेत्र में टर्की का साम्राज्य पहले की तुलना में बहुत घट गया। सत्रह मिलियन जनसंख्या पर शासन करने के बजाय अब केवल छह मिलियन लोगों पर ही टर्की का अधिकार रह गया।
(3) यूरोपीय राष्ट्रों के सम्बन्धों में परिवर्तन - बर्लिन कांग्रेस से यूरोपीय राष्ट्रों के सम्बन्ध तथा उनकी वैदेशिक नीतियाँ प्रभावित हुईं। रूस इस सन्धि से सबसे अधिक निराश हुआ । बाल्कन क्षेत्र में उसे केवल कुछ प्रदेशों पर ही अधिकार करने का मौका मिला था तथा भूमध्य सागर तक विस्तार की उसकी महत्त्वाकांक्षा अपूर्ण ही रह गई।
ऑस्ट्रिया का प्रभाव बाल्कन क्षेत्र में बढ़ा था, क्योंकि उसे बोस्निया और हर्जेगोविना पर शासन करने का अधिकार प्रदान कर दिया गया था। इस प्रकार बर्लिन सम्मेलन से सभी यूरोपीय राष्ट्रों के सम्बन्ध प्रभावित हुए।
(4) गुटबन्दियों के क्रम का आरम्भ - बर्लिन कांग्रेस से बिस्मार्क के विचारों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया । बर्लिन कांग्रेस में रूस असन्तुष्ट बना रहा और त्रिसम्राट संघ की व्यवस्था इसी समय समाप्त हो गई। अतः बिस्मार्क को अस्थायी संघ के स्थान पर सुरक्षात्मक सन्धि व्यवस्था का क्रम आरम्भ करना पड़ा। बिस्मार्क ने मध्य यूरोपीय राष्ट्रों को मिलाकर पहले द्विगुट और बाद में त्रिगुट का निर्माण किया।
(5) रूस के बढ़ते हुए प्रभाव पर रोक - बर्लिन कांग्रेस के निर्णयों के परिणामस्वरूप बाल्कन क्षेत्र में रूस का बढ़ता प्रभाव रुक गया । सान-स्टीफानो की सन्धि द्वारा जिस बड़े बुल्गारिया राज्य की स्थापना की योजना थी,उसे बर्लिन कांग्रेस ने बदल दिया। इस प्रकार स्लाव जातियों के प्रमुख के रूप में रूस के प्रभाव को रोका गया।
भूमध्य सागर की ओर बढ़ने के तथा इस सागर में यातायात के मार्ग खोजने के रूस के प्रयासों को धक्का लगा। परिणामतः रूस में यह भावना प्रबल हुई कि टर्की के खिलाफ युद्ध करने में धन और जन की हानि तो रूस को उठानी पड़ी थी,लेकिन लाभ अर्जित करने का अवसर अन्य राष्ट्रों को मिल गया। रूस में जर्मन विरोधी भावनाएं बढ़ी।
(6) अस्थायी समझौता - डॉ. जी. पी. गूच ने बर्लिन कांग्रेस के विषय में टिप्पणी की है कि इस सन्धि के द्वारा पेचीदा बाल्कन समस्या का कोई स्थायी समाधान प्राप्त नहीं किया जा सका । अन्य किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के समान बर्लिन कांग्रेस के निर्णय भी समझौते की नीति पर आधारित थे, जिसमें विभिन्न राष्ट्रों के हितों को स्वीकार करने का प्रयास किया गया । बर्लिन कांग्रेस आमन्त्रित करने का महत्त्व यह था कि एक दूसरा क्रीमिया युद्ध रोका गया।
तत्कालीन परिस्थितियों में जो निर्णय लिए गए, उनसे यूरोपीय राष्ट्र पूरी तरह से सन्तुष्ट नहीं हो सके और भविष्य में अवसर का लाभ उठाकर उन्होंने बर्लिन कांग्रेस के निर्णयों को बदलने की कोशिश की। जिस समय तक टर्की के सुल्तान के अधीन कुछ क्षेत्र बाल्कन प्रदेश में बाकी थे, उस समय तक निकटवर्ती राष्ट्र राज्य-विस्तार के प्रयास में लगे रहे।

निष्कर्ष - 

वस्तुतः बर्लिन सन्धि इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री डिजरायली की व्यक्तिगत विजय थी, क्योंकि उसने मात्र कागज के टुकड़े से भूमध्य सागर की ओर रूस की प्रगति रोक दी और बाल्कन क्षेत्र में बढ़ते रूसी प्रभाव को नष्ट कर दिया। अपनी इस महान् सफलता पर डिजरायली ने इंग्लैण्ड पहुँचकर बड़े गर्व से कहा था कि मैं बर्लिन के सम्मेलन से सम्मान सहित शान्ति लाया हूँइतिहासकार मैरियट के अनुसार, “बर्लिन की सन्धि को सम्मानपूर्वक शान्ति कहना अधिक उचित रहेगा, जिसमें इंग्लैण्ड को साइप्रस द्वीप मिला तथा इंग्लैण्ड के हित में बाल्कन रियासतों में रूस का बढ़ना रुका।"
लेकिन ग्लैडस्टोन ने इस सन्धि की आचोलना करते हुए कहा कि मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि डिजरायली तथा सैलिसबरी ने स्वतन्त्रता का पक्ष लिया, परन्तु मेरा दावा यह भी है कि वास्तव में उन्होंने दासता का पक्ष लिया।"
वास्तव में बर्लिन सन्धि डिजरायली के दावे को पूरा करने में असफल रही । एक वर्ष के अन्दर ही बर्लिन सन्धि की धाराएँ भंग हो गईं। इस सन्धि ने, जैसा कि भावी घटनाओं से प्रकट है,शान्ति के स्थान पर युद्धों की श्रृंखला स्थापित की, जिसका अन्त प्रथम विश्व युद्ध के साथ हुआ। थॉमसन ने ठीक ही लिखा है कि बलिन सम्मेलन के निर्णयों ने प्रत्येक राष्ट्र को पहले की तुलना में अधिक असन्तुष्ट एवं व्याकुल कर दिया था।"



Comments

Important Question

कौटिल्य का सप्तांग सिद्धान्त

सरकारी एवं अर्द्ध सरकारी पत्र में अन्तर

मैकियावली अपने युग का शिशु - विवेचना

प्लेटो का न्याय सिद्धान्त - आलोचनात्मक व्याख्या

नौकरशाही का अर्थ,परिभाषा ,गुण,दोष

राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार

पारिभाषिक शब्दावली का स्वरूप एवं महत्व

प्रयोजनमूलक हिंदी - अर्थ,स्वरूप, उद्देश्य एवं महत्व

जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक विचार

शीत युद्ध के कारण और परिणाम