भारतीय पुनर्जागरण के कारण और महत्व - 19वीं शताब्दी
B. A. III, Political Science III
प्रश्न 4. आधुनिक भारतीय
राजनीतिक चिन्तन के विकास में पुनर्जागरण के महत्व का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा ''भारत में 19वीं शताब्दी में हुए धार्मिक व सामाजिक पुनर्जागरण के कारण बताइए तथा प्रमुख धार्मिक व सामाजिक आन्दोलनों का परिचय दीजिए।
अथवा ''भारत में 19वीं शताब्दी में हुए धार्मिक व सामाजिक पुनर्जागरण के कारण बताइए तथा प्रमुख धार्मिक व सामाजिक आन्दोलनों का परिचय दीजिए।
उत्तर - 18वीं शताब्दी के अन्त तक भारत
में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें जम चुकी थीं। राजनीतिक सत्ता की स्थापना
के साथ-साथ पाश्चात्य संस्कृति एवं विचारधारा भारतीय जनजीवन को
प्रभावित करने लगी थी। भारतीय संस्कृति पतन के गर्त में पड़ी सिसक रही थी
और उसकी नव-सृजन शक्ति लुप्तप्राय हो चुकी थी। भारत के लिए यह एक चिन्ताजनक
सांस्कृतिक आक्रमण एवं संकट का समय था। भारतीय जनता के लिए यह
दुर्भाग्य का विषय था कि राजनीतिक पराजय अब धीरे-धीरे धार्मिक पराजय में परिणत
होती जा रही थी। ऐसे निराशाजनक एवं अन्धकार से परिपूर्ण वातावरण में कुछ ऐसे भारतीयों
का आविर्भाव हुआ जो इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि देश की काया पर से निराशा की
सड़ी-गली केंचुली उतार फेंकनी है, तो हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों में और हिन्दुओं
की सामाजिक लोक परम्पराओं में मौलिक परिवर्तन की आवश्यकता है। राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द
सरस्वती आदि महापुरुषों ने धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन चलाकर सोते
हुए भारतीयों को जगाने का प्रयास किया।
भारत में धार्मिक व सामाजिक सुधार आन्दोलनों के कारण :-
(1) धार्मिक व सामाजिक कुप्रथाएँ:-
19वीं शताब्दी का भारत
अनेक धार्मिक व सामाजिक कुरीतियों से ग्रसित था। धर्म के क्षेत्र
में अनेक कर्मकाण्डों का प्रचलन था,तो सामाजिक क्षेत्र में छुआछूत,सती प्रथा,बाल-विवाह तथा
विधवा विवाह निषेध का प्रचलन था। ऐसी दशा में भारतीय
चिन्तकों ने समाज में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव की। .
ये भी जाने .................
प्रश्न 3. कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
ये भी जाने .................
प्रश्न 3. कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
(2) ईसाई पादरियों द्वारा प्रचार :-
ईसाई पादरियों ने भारत
में ईसाई धर्म का प्रचार करने के साथ-साथ हिन्दू तथा अन्य भारतीय धर्मों
के ऊपर व्यंग्य व कटु आलोचना की। उनके इन कार्यों ने भारतीय विद्वानों व चिन्तकों
को धर्म की रक्षा के लिए प्रेरित किया।
(3) पाश्चात्य संस्कृति का सम्पर्क :-
अंग्रेजों के भारत
में आने से देश में पाश्चात्य संस्कृति, दर्शन एवं विचारों का
प्रसार हुआ। भारतवासियों को पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति ने विशेष रूप से
प्रभावित किया। उनका दृष्टिकोण व्यापक हुआ और वे भी भारतीय समाज और धर्म
को आडम्बरहीन बनाने का प्रयास करने लगे।
(4) पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रोत्साहन :-
यूरोप
के अनेक विद्वानों; जैसे-सर चार्ल्स
विलकिन्स, सर विलियम जोंस, मैक्समुलर, मोनियर विलियम्स, कीथ आदि
पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय धर्म और दर्शन का गहन अध्ययन करके इसकी विशेषताओं
को उजागर किया व मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की। इससे भारतीय विद्वान् भी अपने प्राचीन
धर्म के प्रति आकर्षित हुए।
(5) अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव:-
अंग्रेजी शिक्षा के
विस्तार के कारण भारतवासियों ने पाश्चात्य साहित्य, दर्शन व इतिहास का अध्ययन किया, जिससे उनका
दृष्टिकोण रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर व्यापक हो गया। वे भारतीय
धर्म और समाज के दोषों से भली प्रकार से परिचित हो गए। उन्होंने पाश्चात्य धर्म व
समाज की अच्छाइयों को ध्यान में रखकर हिन्दू धर्म व समाज की बुराइयों को दूर करने
का निश्चय किया।
(6) विज्ञान का प्रभाव :-
अंग्रेजी शिक्षा के
साथ-साथ भारतवासियों ने पाश्चात्य विज्ञान का भी अध्ययन किया। विज्ञान
के अध्ययन से उनका दृष्टिकोण अन्धविश्वासों से मुक्त हो गया। अब वे धर्म के
परम्परागत स्वरूप को आँख मूंदकर स्वीकार नहीं करते थे।
(7) यातायात व संचार के साधनों का विकास :-
अंग्रेजों ने अपने
साम्राज्य की नींव को दृढ़ करने के लिए देशभर में यातायात व संचार के साधनों का
तीव्रता से विकास किया। इन साधनों के विकास से देश के एक भाग के निवासी दूसरे भाग
के निवासियों के सम्पर्क में
आधुनिक भारतीय
राजनीतिक चिन्तन के विकास में पुनर्जागरण का महत्त्व :-
(1) ब्रह्म समाज :-
ब्रह्म समाज की स्थापना राजा
राममोहन राय ने 20 अगस्त, 1828 को कलकत्ता
में की थी। यह एक धार्मिक संस्था थी और इसका उद्देश्य हिन्दू धर्म में
व्याप्त बुराइयों को दूर करना था। ब्रह्म समाज ने अपने विचारों को वेदों
और उपनिषदों पर आधारित करके यह बताया कि ईश्वर एक है, सभी धर्म सत्य पर
बल देते हैं,मूर्ति-पूजा और
कर्मकाण्ड निरर्थक हैं तथा सामाजिक कुरीतियों का धर्म से कोई सम्बन्ध
नहीं है। ब्रह्म समाज ने सती प्रथा, बाल-विवाह, बहुविवाह, जाति प्रथा, पर्दा प्रथा, अस्पृश्यता आदि कुरीतियों
का विरोध किया तथा स्त्री शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह,विधवा पुनर्विवाह आदि को
प्रोत्साहन दिया। राजा राममोहन राय के पश्चात् देवेन्द्रनाथ टैगोर
एवं केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्म समाज के सिद्धान्तों का प्रचार किया। यद्यपि
इसका प्रभाव शहर के पढ़े-लिखे वर्गों तक सीमित रहा, फिर भी इसने सामाजिक, धार्मिक एवं
सांस्कृतिक जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया।
(2) आर्य समाज:-
स्वामी दयानन्द सरस्वती
आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द
सरस्वती ने 1875 ई.में बम्बई
में की। ब्रह्म समाज के समान आर्य समाज पाश्चात्य संस्कृति और ज्ञान
से प्रभावित नहीं था। दयानन्द सरस्वती प्राचीन भारतीय संस्कृति के पुजारी
थे। उनका नारा था-"वेदों की ओर
लौटो।"
आर्य समाज ने तत्कालीन
समाज में व्याप्त विभिन्न दोषों और रूढियों को समाप्त करने में विशेष योगदान दिया।
धार्मिक क्षेत्र में आर्य समाज ने मूर्ति पूजा, कर्मकाण्ड तथा बलि प्रथा
का विरोध किया और वेदों की श्रेष्ठता को प्रमाणित किया। सामाजिक क्षेत्र
में आर्य समाज ने बाल-विवाह, बहुविवाह, पर्दा प्रथा, जाति प्रथा, सती प्रथा आदि कुरीतियों
का विरोध किया। इस प्रकार हिन्दू धर्म को अन्धविश्वासों व रूढ़ियों से
मुक्त करके उसको वास्तविक रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय आर्य समाज को ही
है। स्त्रियों की दशा सुधारने में इस संस्था का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस
संस्था ने देश के विभिन्न भागों में विद्यालयों तथा महाविद्यालयों की
स्थापना की। अनेक कन्या विद्यालय भी स्थापित किए। विधवा पुनर्विवाह
को प्रोत्साहन दिया।
(3) रामकृष्ण मिशन :-
स्वामी विवेकानन्द
ब्रह्म समाज तथा आर्य
समाज की भाँति रामकृष्ण मिशन भी इस काल का एक प्रमुख धार्मिक
आन्दोलन था। इस मिशन की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने 1897 ई. में अपने
पूज्य गुरु रामकृष्ण परमहंस की स्मृति में की थी। स्वामी
विवेकानन्द ने जाति प्रथा, कर्मकाण्डों तथा
अन्धविश्वासों की निन्दा की और सभी धर्मों की मौलिक एकता पर बल दिया।
उन्होंने जाति-पाँति,छुआछूत और सम्प्रदायवाद से ऊपर उठने का सन्देश
दिया। दीन-दुःखियों की सहायता करना मिशन अपना कर्तव्यं मानता है। इस मिशन की
शाखाएँ भारत के अतिरिक्त विदेशों में भी हैं।
(4) थियोसोफिकल सोसायटी :-
ऐनी बेसेण्ट
भारत में नवचेतना
जाग्रत करने में थियोसोफिकल आन्दोलन का विशेष महत्त्व है। इस आन्दोलन का
सूत्रपात एक रूसी महिला मैडम हेलना पेट्रोबना ब्लेवट्स्की और एक अमेरिकी
सैनिक अधिकारी हेनरी स्टील अल्कॉट ने 1875 ई. में अमेरिका में थियोसोफिकल
सोसायटी की स्थापना करके किया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती के निमन्त्रण
पर उन्होंने 1882 ई. में तमिलनाडु
प्रान्त में अड्यार नामक स्थान पर थियोसोफिकल सोसायटी के एक केन्द्र
की स्थापना की। इस सोसायटी के लिए एक आयरिश महिला कार्यकत्री ऐनी बेसेण्ट
ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया। ऐनी बेसेण्ट ने पुस्तकों और पत्रिकाओं के
माध्यम से थियोसोफी सम्बन्धी विचारों का प्रचार-प्रसार किया। यह सत्य है कि
थियोसोफी किसी एक धर्म पर बल नहीं देती,परन्तु भारत में ऐनी बेसेण्ट ने हिन्दू
धर्म को प्रमुखता प्रदान कर इसके सिद्धान्तों का प्रचार किया। उन्होंने सोसायटी के
माध्यम से भारतवासियों को स्वदेश प्रेम और भारतीय संस्कृति पर
गौरव करने का पाठ पढ़ाया। उनके प्रचार कार्यों के परिणामस्वरूप ईसाई मिशनरी
निरुत्तर हो गए और हिन्दू धर्म की आलोचना करने में कतराने लगे।
(5) मुसलमानों के आन्दोलन :-
19वीं शताब्दी में धर्म
और समाज-सुधार की जो लहर भारत
में उठी, उससे मुस्लिम
सम्प्रदाय भी मुक्त न रह सका। उसमें भी विभिन्न धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन
हुए। प्रमुख मुस्लिम आन्दोलन निम्न प्रकार हैं
(i) वहाबी आन्दोलन :-
इस
आन्दोलन के प्रणेता सर सय्यद अहमद बरेलवी ने पाश्चात्य सभ्यता के
विरोध में इस्लाम के कट्टर सिद्धान्तों का प्रचार किया। बरेलवी ने इस्लाम धर्म में
प्रचलित सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न किया, ईश्वर की एकता पर
बल दिया तथा सन्तों की पूजा का विरोध किया। उनका उद्देश्य इस्लाम की नैतिक, धार्मिक, सामाजिक और
राजनीतिक प्रगति तथा भारत में पुनः इस्लाम का राज्य स्थापित करना था।
(ii) अहमदिया आन्दोलन :-
इस आन्दोलन के संचालक पंजाब
के मिर्जा गुलाम अहमद थे। वे अपने को 'पैगम्बर' कहा करते थे। उनका सब धर्मों की मौलिक एकता में विश्वास था।
वे जेहाद के भी विरुद्ध थे।
(iii) अलीगढ़ आन्दोलन :-
सर सय्यद अहमद खाँ ने मुसलमानों की
उन्नति का विशेष प्रयत्न किया। उन्होंने पाश्चात्य संभ्यता एवं शिक्षा का समर्थन
किया। सर सय्यद अहमद खाँ मुसलमानों की पिछड़ी दशा सुधारने के लिए अंग्रेजी
शिक्षा के ज्ञान को परम आवश्यक मानते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने अलीगढ़
में 'मोहम्मडन-ऐंग्लो
ओरिएण्टल कॉलेज' स्थापित किया।
उन्होंने 'मुस्लिम शिक्षा
सम्मेलन' की स्थापना की और
प्रतिवर्ष उसके अधिवेशन की व्यवस्था की। उनका यह भी विचार था कि मुलसमान
अंग्रेजों की शरण में अपनी उन्नति कर सकते हैं। अतः वे मुसलमानों को अंग्रेजों की
भक्ति का पाठ पढ़ाते थे और कांग्रेस से दूर रहने की सलाह देते थे। सर सय्यद
अहमद खाँ गुलामी, बहुविवाह तथा सूदखोरी
के विरुद्ध थे। वे मुसलमानों में स्त्री शिक्षा का प्रसार करना भी
आवश्यक मानते थे। कट्टर मुसलमान उनके इन उदारवादी विचारों का विरोध
करते थे, तथापि उनके कार्यों
ने मुसलमानों में नवजागरण का सूत्रपात किया और उनकी उन्नति हुई।
उक्त सुधारवादी
आन्दोलनों के परिणामस्वरूप भारत में एक नये युग का प्रारम्भ हुआ। फलतः सती प्रथा, विधवा विवाह, बाल-विवाह, बेमेल विवाह, बाल हत्या आदि
कुरीतियों को दूर करने के लिए महत्त्वपूर्ण सुधार किए गए। स्त्रियों की शिक्षा का
प्रसार हुआ तथा उनकी प्रतिष्ठा एवं सम्मान में वृद्धि हुई।
उमा चौहान
ReplyDeleteVery well explain
DeleteVery well,
DeleteNice Article
ReplyDelete