1857 की क्रान्ति - असफलता के कारण
MJPRU-BA-III-History I-2020
ये भी जाने ................
प्रश्न 9. 1857 ई. के
विद्रोह की असफलता की समीक्षा कीजिए एवं इसका महत्त्व बताइए।
अथवा ''1857 ई. के
विद्रोह की असफलता के कारण एवं परिणामों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर -
भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में 1857 ई. का वर्ष अपना विशेष महत्त्व रखता है,
क्योंकि इस वर्ष भारतीयों ने ब्रिटिश शासन का अन्त करने के लिए अथक
प्रयास किया। वास्तव में भारतीयों का यह
प्रथम प्रयास था जब भारतीयों ने सम्मिलित रूप से विदेशी सत्ता का अपनी पवित्र भूमि से अन्त करने का प्रयत्न किया। इस क्रान्ति के द्वारा भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत हुई। यद्यपि भारतीयों का यह प्रयास असफल रहा और अंग्रेज अपने प्रयत्न में सफल हुए, 'किन्तु इस असफलता से क्रान्ति का महत्त्व कम नहीं हो जाता है।
प्रथम प्रयास था जब भारतीयों ने सम्मिलित रूप से विदेशी सत्ता का अपनी पवित्र भूमि से अन्त करने का प्रयत्न किया। इस क्रान्ति के द्वारा भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत हुई। यद्यपि भारतीयों का यह प्रयास असफल रहा और अंग्रेज अपने प्रयत्न में सफल हुए, 'किन्तु इस असफलता से क्रान्ति का महत्त्व कम नहीं हो जाता है।
1857 ई. की क्रान्ति की असफलता के कारण
अथवा
1857 ई. की क्रान्ति क्यों असफल रही ?
1857 ई. की क्रान्ति
पूर्णतया असफल रही। यद्यपि विद्रोहियों ने अदम्य साहस, उत्साह,
वीरता एवं त्याग का परिचय दिया, किन्तु उन्हें
अपने उद्देश्य में सफलता न मिल सकी और अंग्रेज विद्रोह का दमन करने में सफल हुए।
इस विद्रोह की असफलता के निम्नलिखित कारण थे
(1) क्रान्ति का सीमित क्षेत्र -
क्रान्ति का क्षेत्र अत्यन्त सीमित था, अतः देश के अनेक भागों में क्रान्ति का प्रभाव नहीं पहुँच सका। यह क्रान्ति दिल्ली से लेकर कलकत्ता तक सीमित रही और शेष भारत के लोग क्रान्ति से अप्रभावित रहे, जिसके कारण उन्होंने क्रान्ति में भाग नहीं लिया। पंजाब, सिन्ध, राजस्थान, दक्षिण भारत, पूर्वी बंगाल ने अंग्रेजी सत्ता का अन्त करने का तनिक भी प्रयत्न नहीं किया। गोरखों और सिक्खों ने क्रान्ति के दमन में अंग्रेजों का साथ दिया।ये भी जाने ................
अथवा ''1857 ई. के विद्रोह के क्या कारण थे ? क्या इसे प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम कहना उचित है ?
(2) विद्रोह का सामन्तवादी चरित्र -
1857 ई. के विद्रोह का स्वरूप मुख्यतः सामन्तवादी था, जिसमें कुछ राष्ट्रवाद के तथ्य विद्यमान थे। अवध और रुहेलखण्ड के तथा उत्तरी भारत के अन्य सामन्तवादी तत्त्वों ने विद्रोह का नेतृत्व किया और दूसरी ओर अन्य सामन्तवादी तत्त्वों ने जैसे कि पटियाला, जींद, ग्वालियर और हैदराबाद के राजाओं ने इस विद्रोह के दमन में सहायता की। लॉर्ड कैनिंग ने कहा था, "यदि सिन्धिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाए, तो मुझे कल ही बिस्तर बाँधना होगा।" यह विद्रोह जन-क्रान्ति का रूप न ले सका।(3) केन्द्रीय योजना का अभाव -
क्रान्तिकारियों में केन्द्रीय योजना का अभाव था तथा उनकी नीति स्पष्ट नहीं थी। नीति के अस्पष्ट तथा केन्द्रीय न होने के कारण क्रान्तिकारी नेताओं में एकता का सर्वथा अभाव था। प्रत्येक की नीति अलग थी और प्रत्येक के समर्थक अपने ही नेता के अन्तर्गत कार्य करना चाहते थे। सब नेताओं के अपने-अपने स्वार्थ थे, जिनकी पूर्ति के लिए वे प्रयत्नशील थे। इसके विपरीत अंग्रेजों की योजना बिल्कुल स्पष्ट थी और उनके पास कर्मठ नेता थे, जिन्होंने क्रान्ति को असफल करने में किसी भी बात की कसर नहीं छोड़ी और उन्होंने हरसम्भव साधन का प्रयोग किया।(4) साधनों व हथियारों का अभाव -
क्रान्तिकारियों के पास धन, अस्त्रशस्त्र, आधुनिक साधन; जैसे-रेल, डाक-तार व कर्मठ सेनापतियों का पूर्ण अभाव था। इसके विपरीत अंग्रेजों को सभी साधन उपलब्ध थे।(5) योग्य नेता का अभाव -
यद्यपि क्रान्ति में अनेक ऐसे नेता थे जिन्होंने क्रान्ति को संगठित करने तथा उसको सफल बनाने के लिए अकथनीय प्रयत्न किए, किन्तु इनमें कोई भी ऐसा योग्य नेता नहीं था जो समस्त देश के लिए सर्वमान्य होता।(6) अंग्रेजों की सन्तोषजनक अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति -
इस समय अंग्रेजों की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति सन्तोषजनक थी, जिसके कारण वे क्रान्ति का कठोरतापूर्वक दमन करने में सफल हो गए। दोस्त मुहम्मद ने सन्धियों का पूर्ण रूप से पालन करते हुए अफगानिस्तान से भारत पर आक्रमण नहीं किया।(7) अराजकता का उत्पन्न होना -
क्रान्तिकारियों ने धन के अभाव में साधारण जनता को लूटना प्रारम्भ कर दिया, जिसके कारण क्रान्ति के क्षेत्रों में अराजकता उत्पन्न हो गई और जिसने शीघ्र ही जनता को क्रान्ति से उदासीन कर दिया। जेलों आदि को तोड़ने से गुण्डे तथा बदमाश व्यक्ति आजाद हो गए और उन्हें अपने निन्दनीय कार्य करने का खुला अवसर प्राप्त हुआ। इस अराजकता के उत्पन्न होने से अंग्रेजों को जनता का सहयोग प्राप्त हुआ, क्योंकि जनता अराजकता से ऊब गई थी और शान्ति चाहती थी। अंग्रेजों ने क्रान्तिकारियों का दमन अत्यन्त क्रूरता, नृशंसता तथा पशुता से किया, जिससे जनता में आतंक छा गया और वह भयभीत हो गई।(8) क्रान्ति का समय से पूर्व प्रारम्भ होना-
क्रान्ति के लिए 31 मई, 1857 का दिन निश्चित था, परन्तु बैरकपुर व मेरठ की घटनाओं के कारण यह पहले ही 10 मई को प्रारम्भ हो गई। अंग्रेज इस छिटपुट क्रान्ति को दबाने में सफल हो गए।(9) अंग्रेजों द्वारा कूटनीतिक उपायों का प्रयोग -
इसके अतिरिक्त क्रान्ति का दमन करने के लिए अंग्रेजों ने सफल कूटनीतिक उपाय भी किए। हिन्दू-मुसलमान और सिक्खों के बीच मतभेद भड़काने के लिए बहादुरशाह के नाम से झूठे फरमान जारी किए गए, जिनमें कहा जाता था कि युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद सिक्खों का वध कर दिया जाएगा।
उपर्युक्त
सभी कारणों से 1857 ई. की क्रान्ति असफल
रही। अंग्रेजों ने पुनः भारत पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली। फिर भी इतना अवश्य कहा
जा सकता है कि प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की अमिट छाप कालान्तर में ब्रिटिश शासकों
को प्रभावित करती रही।
1857 ई. के विद्रोह के परिणाम (महत्त्व)
1857 ई. के विद्रोह के
पश्चात् अंग्रेजों ने प्रशासन, सेना, सामाजिक
परिवर्तन, शिक्षा नीति, भारतीय नरेशों
के प्रति नीति आदि में व्यापक परिवर्तन किए। इस विद्रोह के पश्चात् भारत में
अंग्रेजी शासनकाल के एक नवीन युग का सूत्रपात हुआ।
(1) ब्रिटेन की महारानी की एक घोषणा के द्वारा भारत का शासन ईस्ट इण्डिया
कम्पनी के हाथों से लेकर ब्रिटिश क्राउन के हाथों में दे दिया गया और भारत सरकार
कानून (1858 ई.) के द्वारा इस परिवर्तन को व्यावहारिक स्वरूप
प्रदान किया गया।
(2) ब्रिटिश शासन की सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक
परिषद् 'भारत कौंसिल' स्थापित की गई,
जिसके सभापति को 'भारत सचिव' के नाम से पुकारा गया, जो ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल का
सदस्य होता था।
(3) कम्पनी के शासन के समय ब्रिटिश पार्लियामेण्ट भारतीय शासन पर नियन्त्रण
रखने हेतु उसके कार्यों में रुचि लेती थी। परन्तु जब भारतीय शासन ब्रिटिश
मन्त्रिमण्डल के अधीन हो गया, तब पार्लियामेण्ट की रुचि उस
तरफ से स्वतः ही समाप्त हो गई।
(4) अंग्रेजों ने अपनी साम्राज्य-विस्तार की नीति त्याग दी। भारतीय नरेशों को
उनके राज्यों की सीमा, उनके सम्मान और अधिकारों की सुरक्षा
का आश्वासन दिया गया। भारतीयों नरेशों को स्वेच्छा से बच्चा
गोद लेने का अधिकार भी प्रदान किया गया।
(5) सरकारी सेवाओं में अंग्रेजों का एकाधिपत्य यथावत् रखा गया। यद्यपि 1861
ई. के 'असैनिक सेवा कानून' के द्वारा असैनिक सेवाओं के लिए वार्षिक परीक्षा की व्यवस्था की गई,
जिसमें भारतीय भी बैठ सकते थे। परन्तु परीक्षा का स्थान लन्दन रखा
गया और सेवा सम्बन्धी नियम इतने जटिल बनाए गए जिससे भारतीय उन सेवाओं में स्थान
प्राप्त न कर सकें।
(6) ब्रिटिश सेना में वृद्धि की गई, उसे श्रेष्ठ हथियार
दिए गए और तोपखाने पर उसका एकाधिपत्य रखा गया।
(7) विद्रोह के पश्चात् अंग्रेजों ने साम्प्रदायिकता, जातिवाद,
क्षेत्रवाद आदि प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया। 'फूट डालो और शासन करो' की नीति के आधार पर अंग्रेजों
ने हिन्दू और मुसलमानों तथा हिन्दू और सिक्खों में फूट डालने का कुत्सित प्रयास
किया।
(8) विद्रोह के कारण अंग्रेजों और भारतीयों के सम्बन्ध और अधिक खराब हो गए तथा
दोनों में एक-दूसरे के प्रति घृणा की भावना तीव्र हो गई।
(9) अंग्रेजों ने अब समाज-सुधार और शिक्षा सुधार की नीति को त्याग दिया।
उन्होंने समाज-सुधार के लिए कोई कानून नहीं बनाया और अंग्रेजी शिक्षा को
प्रोत्साहन देना समाप्त कर दिया। इसके विपरीत उन्होंने प्रतिक्रियावादी धार्मिक और
सामाजिक तत्त्वों एवं क्रियाओं को प्रोत्साहन दिया।
(10) विद्रोह के पश्चात् अंग्रेजों द्वारा भारत के आर्थिक शोषण की प्रक्रिया और
अधिक तीव्र हो गई। भारत अब कम्पनी के आर्थिक हितों की पूर्ति का साधन न रहकर
ब्रिटेन के आर्थिक हितों की पूर्ति का साधन बनकर रह गया।
इस
विद्रोह के परिणामस्वरूप भारतीयों को कोई विशेष लाभ प्राप्त नहीं हुआ। हाँ, इतना अवश्य कह सकते
हैं कि भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत हुई और स्वतन्त्रता आन्दोलन में
राष्ट्रीय नेताओं और जन-साधारण ने उससे प्रेरणा प्राप्त की।
Comments
Post a Comment