दिल्ली सल्तनत (1206) - साहित्य का विकास
M.J.P.R.U.,B.A. I, History I / 2020
प्रश्न 15. दिल्ली सल्तनत काल में साहित्य के विकास पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
- अनेक इतिहासकारों का मत है कि साहित्य की दृष्टि से सल्तनत काल बिल्कुल शून्य था
और इस काल में साहित्य का विकास अवरुद्ध हो गया था। परन्तु इतिहासकारों का यह कथन
असंगत प्रतीत होता है। यद्यपि दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों का अधिकांश समय युद्धों
में व्यतीत हुआ, किन्तु
फिर भी उन्होंने साहित्य को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया। उस समय में फारसी और
संस्कृत भाषा के अतिरिक्त हिन्दी, उर्दू और प्रायः सभी प्रान्तीय भाषाओं में ग्रन्थ लिखे गए। दिल्ली के विभिन्न
सुल्तानों और स्वतन्त्र प्रान्तीय राजाओं ने विद्वानों को आश्रय दिया, जिसके फलस्वरूप धार्मिक और ऐतिहासिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य विषयों पर
भी ग्रन्थों की रचना हुई। काव्य, गद्य, पद्य, नाटक आदि विधाओं में
पुस्तकों की रचना हुई। अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय में साहित्यिक प्रगति
नहीं हुई। परन्तु अधिकांशत: यह स्वीकार किया जाता है कि यह समय साहित्यिक दृष्टि
से मध्यम था।फारसी साहित्य
तुर्की
सुल्तान फारसी साहित्य में रुचि रखते थे। कुतुबुद्दीन , से लेकर सिकन्दर लोदी तक प्रत्येक सम्राट् के दरबार
में फारसी के कवियों, लेखकों, दार्शनिकों तथा इतिहासकारों को उच्च
स्थान प्राप्त था। महमूद गजनवी के समय में अल-बरूनी भारत आया था। वह
एक महान् विद्वान् था, जिसने संस्कृत का भी अध्ययन
किया। इल्तुतमिश के समय में नासिरी अबू-बक्र-बिन मुहम्मद रूहानी
,
ताजुद्दीन दबीर और नूरूद्दीन मुहम्मद
मुख्य विद्वान् थे। नुरूद्दीन ने 'लुवाब-उल-अल्वाब'
नामक ग्रन्थ लिखा था। सुल्तान बलबन और अलाउद्दीन खिलजी के समय में
मंगोलों के आक्रमण से डरकर अनेक विदेशी मुस्लिम विद्वान् भारत भागकर आए, जिसके कारण दिल्ली फारसी साहित्य का एक प्रमुख केन्द्र बन गया। बलबन
के पुत्र मुहम्मद ने अमीर खुसरो एवं मीर हसन देहलवी को
संरक्षण प्रदान किया। खुसरो को बलबन से लेकर गयासुद्दीन तुगलक
तक सभी सुल्तानों ने आश्रय प्रदान किया। खुसरो के प्रमुख ग्रन्थों
में 'खम्स', 'पंजगंज',
'मताला-उल-अनवर', 'शीरी व फरहाद', 'लैला. व मजनूँ', 'आइन-ए--- सिकन्दरी', 'हश्त बिहिश्त' आदि हैं। मीर हसन देहलवी
ने उच्च कोटि की गजलें भी लिखीं। अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में सद्रुद्दीन
अली, फखरुद्दीन, इमामुद्दीन
रजा, मौलाना अरीफ, अब्दुल हकीम और शिहाबुद्दीन सदनिशीन प्रमुख विद्वान् थे। जियाउद्दीन बर्नी
मुहम्मद तुगलक के दरबार का प्रमुख विद्वान् था। इसके काल का दूसरा प्रमुख
विद्वान् बद्रउद्दीन मुहम्मद चाच था। उसके प्रसिद्ध ग्रन्थ 'दीवाना', 'शाहनामा' और 'चाचनामा' हैं। इतिहासकार
इसामी भी उसका समकालीन विद्वान्
था। फिरोज तुगलक के समय में शम्स-ए-सिराज प्रमुख फारसी
विद्वान् था। फिरोज तुगलक ने स्वयं की आत्मकथा लिखी थी तथा इतिहासकार बर्नी और
अफीफ उसके संरक्षण में थे। लोदी शासकों ने भी विद्वानों को संरक्षण दिया। सिकन्दर
लोदी स्वयं कविता लिखता था। उसने 'गुलरुखी' के नाम से फारसी में कविताएँ लिखीं।
रफीउद्दीन शिराजी, शेख अब्दुल्ला, शेख
अजीजुल्ला और शेख जमालुद्दीन उस समय के मुख्य विद्वान् थे। लोदी काल में सबसे
प्रसिद्ध कवि दिल्ली के शेख जमालुद्दीन थे, जिन्होंने कई
देशों का भ्रमण किया था। उन्होंने 'सियारुल अरिफीन' और 'मिहरूयाह' नामक पुस्तकें
लिखीं। विभिन्न प्रान्तीय राज्यों में भी अनेक विद्वान् हुए. जैसे सिन्ध में सय्यद
मुईन-उल-हक, बिहार में इब्राहीम फारुखी, गुजरात में फजलुतला जैनुल आबिदीन आदि थे। बहमनी शासकों में से ताजुद्दीन
फिरोजशाह और वहाँ के मन्त्रियों में से महमूद गवाँ का नाम भी विद्वानों में माना
गया है।
इतिहासकारों
में अल-बरूनी, 'ताजुल मासिर' का लेखक हसन निजामी, 'तबकात-ए-नासिरी' का लेखक मिन्हाज-उस्स-सिराज,
'तारीख-एफिरोजशाही' एवं 'फतवा-ए-जहाँदारी' का लेखक जियाउद्दीन बर्नी,
'तारीख-एफिरोजशाही' का लेखक शम्स-ए-सिराज
अफीफ, 'तारीख-ए-मुबारकशाही' का लेखक याहिया-बिन-अहमद 'सरहिन्दी'
और 'फुतुह-उस-सलातीन' का लेखक ख्वाजा अबू मलिक इसामी मुख्य माने गए हैं। इस युग में संस्कृत के
कुछ ग्रन्थों का भी फारसी में अनुवाद किया गया।
संस्कृत साहित्य-
उत्तर
भारत में मुस्लिम शासन की
स्थापना के बाद हिन्दू समाज की राजनीतिक, सामाजिक तथा साहित्यिक प्रगति धीमी पड़ गई थी, परन्तु
दक्षिण में इस काल में संस्कृत साहित्य का यथेष्ट विकास हुआ। संस्कृत
साहित्य को हिन्दू शासकों, मुख्यतः विजयनगर,
वारंगल तथा गुजरात के शासकों से
संरक्षण प्राप्त हुआ। रचनाओं की दृष्टि से संस्कृत साहित्य में अभाव न रहा,
परन्तु इस युग के ग्रन्थों में मौलिकता का अभाव रहा। हम्मीर देव,
कुम्भकर्ण, प्रताप रुद्रदेव, बसन्तराज, वेमभूपाल, कात्यवेम,
विरुपाक्ष, नरसिंह, कृष्णदेव
राय, भूपाल आदि ऐसे अनेक शासक हुए
जिन्होंने संस्कृत साहित्य का पोषण किया। प्रताप रुद्रदेव के दरबार
के विद्वान् अगस्त्य ने 'प्रताप रुद्रदेव
यशोभूषन', 'कृष्ण चरित्र' आदि
ग्रन्थों की रचना की। विद्याचक्रवर्तिन तृतीय ने वीर बल्लाल
तृतीय के संरक्षण में 'रुक्मिणी कल्याण' लिखा और माधव ने विजयनगर के शासक विरुपाक्ष के संरक्षण में 'नरकासुर विजय' की रचना की। वामनभट्ट बाण ने काव्य,
नाटक, चरित, सन्देश आदि विभिन्न प्रकार की रचनाएँ की और वह एक महान् विद्वान् माना गया। विद्यापति ने 'दुर्गाभक्ति तरंगिणी' और अन्य ग्रन्थों की रचना की। विद्यारण्य ने 'शंकर विजय' लिखा। कृष्णदेव राय
के दरबारी कवि दिवाकर ने अनेक ग्रन्थ लिखे और कीर्तिराज अथवा
श्रीवर जैसे विद्वानों ने भी अपनी रचनाएँ लिखीं। जैन विद्वान् नयचन्द्र
ने संस्कृत में 'हम्मीर काव्य' लिखा। विजयनगर राज्य के दो सगे भाई थे,माधो
तथा सायण। माधो ने वेदों पर टीकाएँ लिखीं
तथा सायण ने दर्शनशास्त्र पर अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। विजयनगर के सम्राट
विरुपाक्ष ने स्वयं 'नारायण विलास' और कृष्णदेव राय ने 'जाम्बवती कल्याण'
और अन्य कई पुस्तकें लिखीं। रामानुज ने ब्रह्मसूत्रों पर
टीकाएँ लिखीं, पार्थसारथी ने कर्म
मीमांसा पर ग्रन्थ लिखे तथा जयदेव ने 'गीत
गोविन्द', जयसिंह सूरी ने 'हम्मीर-मद-मर्दन' और गंगाधर ने 'गंगादास प्रताप विलास' लिखा। कल्हण द्वारा 'राजतरंगिणी' में कश्मीर का इतिहास चित्रित किया
गया और जोनराजा तथा श्रीवर ने उस इतिहास को अपनी रचनाओं (द्वितीय तथा तृतीय
राजतरंगिणी) द्वारा पूर्ण किया। हिन्दुओं के प्रसिद्ध कानूनी ग्रन्थ 'मिताक्षरा' की रचना विज्ञानेश्वर ने की और ज्योतिष
के महान् विद्वान् भास्कराचार्य भी इसी युग में हुए। इनके अतिरिक्त अनेक अन्य
ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे गए, जो यह सिद्ध करते हैं कि
सुल्तानों का संरक्षण न मिलने पर भी हिन्दू विद्वान् अपने साहित्य को समृद्ध बनाने
के प्रयत्न में लगे रहे थे।
हिन्दी तथा अन्य प्रादेशिक भाषाएँ-
इस
युग में हिन्दी साहित्य का भी । विकास होने लगा। हिन्दी के प्रारम्भिक लेखकों में
पृथ्वीराज के दरबारी कवि चन्दबरदाई अधिक प्रसिद्ध थे। उन्होंने 'पृथ्वीराज रासो' नामक महाकाव्य
की रचना की। सारंगधर दूसरे प्रसिद्ध कवि हुए, जिन्होंने रणथम्भौर
के राणा हम्मीर की प्रशंसा में 'हम्मीर रासो'
तथा 'हम्मीर काव्य' नामक दो काव्यग्रन्थ लिखे। जगनिक ने 'आल्हाखण्ड'
नामक वृहत् काव्य रचा, जिसमें महोबा के चन्देल
नरेश परमर्दीदेव के आल्हा तथा ऊदल नामक दो महान् योद्धाओं के वीरतापूर्ण कार्यों
का ओजपूर्ण भाषा में वर्णन है। इस युग में मैथिल साहित्य का भी महान् उत्कर्ष हुआ।
इस भाषा के एक महानतम कवि विद्यापति 14वीं शताब्दी के अन्त में हुए। उन्होंने भी मैथिली, हिन्दी तथा संस्कृत में अनेक ग्रन्थ रचे। अनेक बंगाली विद्वानों ने भी
प्रचुर साहित्य सृजन किया। मीराबाई ने राजस्थानी भाषा में सुमधुर पद रचे । इस युग
में अनेक मराठी कवि भी हुए, जिनमें नामदेव सबसे अधिक
प्रसिद्ध थे। गुरुनानक ने पंजाबी में कविताएँ लिखीं। इसके अतिरिक्त भक्ति मार्ग के
सन्तों और प्रचारकों ने विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं के विकास में सहयोग दिया।
उर्दू भाषा-
विदेशी तुर्कों तथा अन्य एशियाई जातियों और
हिन्दुओं के पारस्परिक सम्पर्क के फलस्वरूप इस युग में एक नई भाषा का जन्म
हुआ। प्रारम्भ में वह 'जबान-ए-हिन्दवी' कहलाती थी, आगे चलकर वह 'उर्दू'
के नाम से प्रसिद्ध हुई। वह पश्चिमी हिन्दी की एक बोली थी, जो शताब्दियों से मेरठ तथा दिल्ली के निकटवर्ती प्रदेशों में बोली जाती
थी। उसके व्याकरण का ढाँचा: भारतीय ही था, किन्तु धीरे-धीरे
उसमें फारसी तथा अरबी के शब्दों का प्राधान्य होने लगा। कहा जाता है कि अमीर
खुसरो पहले मुस्लिम कवि थे जिन्होंने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के
लिए इस भाषा का प्रयोग किया। किन्तु इस युग के तुर्की शासकों ने उसको प्रोत्साहन
नहीं दिया, क्योंकि भारतीय होने पर भी वह खिचड़ी थी और
उन्हें फारसी से अधिक प्रेम था।
इस
प्रकार साहित्यिक प्रगति की दृष्टि से यह युग अभावग्रस्त न था, बल्कि दो प्रकार से महत्त्वपूर्ण था। प्रथम
मुसलमानों के आगमन से ऐतिहासिक ग्रन्थों की रचना आरम्भ हुई, जिसकी
ओर हिन्दुओं ने कोई ध्यान नहीं दिया था, और द्वितीय, विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं के आधार का निर्माण हुआ।
Nice
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