पानीपत का तृतीय युद्ध इसके परिणाम
MJPRU-B.A-II-History I
प्रश्न 16. पानीपत के तृतीय
युद्ध में मराठों की पराजय के कारण बताइए तथा इसके परिणामों पर प्रकाश डालिए।
अथवा ''पानीपत के
तृतीय युद्ध का वर्णन कीजिए एवं इसक परिणाम बताइए।
अथवा "अहमदशाह अब्दाली के साथ युद्ध मराठों के लिए
घातक था।" इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर - जिस समय मराठे दक्षिण भारत में अपने
साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे, उस समय भारत की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई थी। अहमदशाह अब्दाली ने भारत
पर आक्रमण करने शुरू कर दिए थे। इधर मराठे भी चम्बल नदी तक धावा बोल
रहे थे। 1752 ई. में मुगलों तथा
मराठों के मध्य एक सन्धि हुई। इस सन्धि के अनुसार मुगलों ने मराठों को₹ 50 लाख देने का वायदा किया था। इसके बदले में मराठों
ने उनकी सुरक्षा का
उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया था। किन्तु मुगलों ने इस सन्धि का
पालन नहीं किया। इस पर रघुनाथराव ने 1754-56 ई. में उत्तरी भारत पर आक्रमण किया और
नजीबुद्दौला को परास्त कर सन्धि के लिए विवश किया।रघुनाथ राव उसके पुत्र इमाद-उल-मुल्क को दिल्ली का
वजीर बनाकर वापस लौट गया। इसके पश्चात् उसने मल्हारराव होल्कर के साथ पंजाब पर
आक्रमण कर दिया। अहमदशाह अब्दाली पंजाब को अपना सूबा समझता था, जहाँ उसका पुत्र तैमूरशाह शासन करता था। मार्च, 1758 में मराठों ने सरहिन्द
पर और अप्रैल, 1758 में लाहौर पर अपना
अधिकार जमा लिया। उन्होंने तैमूरशाह को पंजाब से मार भगाया और उसकी जगह अपने मित्र
अदीनाबेग को पंजाब का गवर्नर बना दिया। बदले में अदीनाबेग ने मराठों को ₹75 लाख वार्षिक कर देना मंजूर किया।
1759 ई. में अदीनाबेग की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु
के उपरान्त पेशवा ने दत्ताजी सिन्धिया को पंजाब भेजा। इधर अहमदशाह अब्दाली भी चुप
बैठने वाला नहीं था। उसने नवम्बर, 1759 में पंजाब पर चढ़ाई कर दी और पंजाब को फिर जीत
लिया और दिल्ली के समीप बरारीघाट में दत्ताजी सिन्धिया को पराजित कर मार डाला। 1760 ई. में उसने दिल्ली
में प्रवेश किया और मल्हारराव होल्कर को पराजित किया। अब वह मराठों से अन्तिम
निर्णय करने के लिए अलीगढ़ में डेरा डालकर बैठ गया। जब मराठों के पीछे हटने का
समाचार पेशवा के पास पहुंचा, तो उसने शीघ्र ही अपने चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ की अध्यक्षता में एक बड़ी सेना, जिसमें लगभग दो लाख सैनिक थे,
अब्दाली को दिल्ली से खदेड़ देने के लिए भेजी।
उसकी सहायता के लिए. इब्राहीमगार्दी खाँ को भी तोपखाना देकर भेजा गया। इस सेना में
आगरा के पास मल्हारराव होल्कर और जनाकोजी भाऊ भी सम्मिलित हुए। भरतपुर के जाट
सूरजमल की फौजें भी इस आश्वासन के पश्चात् कि उससे चौथ नहीं माँगी जाएगी, इनके साथ हो गईं। परन्तु भाऊ अन्य राजपूत राजाओं
को मिलाने में असफल रहा। इधर भाऊ से मतभेद होने से सूरजमल अपनी सेना के साथ भरतपुर
वापस लौट गया। इससे मराठों की शक्ति को गहरा आघात पहुँचा।
सदाशिवराव भाऊ ने 1760 ई. में दिल्ली को
अफगानों से छीन लिया। इसके पश्चात् वे पानीपत पहुँचे। तब तक अब्दाली ने अवध के
नवाब शुजाउद्दौला को अपनी ओर मिला लिया और इस प्रकार अपनी शक्ति में वृद्धि करके
वह भी पानीपत के मैदान में जा डटा। बीच-बीच में एकाध मुठभेड़ हुईं, किन्तु कोई महत्त्वपूर्ण परिणाम नहीं निकला।
पानीपत का तीसरा युद्ध
दिसम्बर तक दोनों सेनाएँ अवसर की प्रतीक्षा में
लगी रहीं। इस बीच मराठों की रसद समाप्त हो गई। इस समय मराठों ने लड़ने का ही
निश्चय कर लिया। 14 जनवरी, 1761 को मराठों ने अफगान
सेना पर आक्रमण कर दिया। अब्दाली की सेना और मराठों की सेना में भयंकर युद्ध हुआ।
इब्राहीमगार्दी खाँ ने अपने तोपखाने के साथ रुहेलों की सेना पर आक्रमण किया और
सदाशिवराव भाऊ अपने चुने हुए अश्वारोहियों के साथ शत्रु सेना के मध्य भाग पर टूट पड़ा
और उसे छिन्न-भिन्न कर दिया। दोपहर के बाद घमासान युद्ध हुआ।
मराठे बिना दाना-पानी
के एकदम थक गए थे, परन्तु फिर भी बड़े
धैर्य और साहस के साथ -शत्रु का सामना कर रहे थे। दुर्भाग्यवश पेशवा का ज्येष्ठ
पुत्र विश्वासराव लड़ता हुआ मारा गया। उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर भाऊ असावधान
होकर शत्रु की सेना में घुसकर युद्ध करने लगा, किन्तु वह भी लड़ता हुआ मारा गया। दोनों सेनापतियों की मृत्यु का समाचार पाकर
मराठा सेना में भगदड़ मच गई और उचित नेतृत्व के अभाव में मराठा सैनिक युद्धभूमि से
भागने लगे। अब्दाली की सेना ने भागती हुई मराठा सेना का पीछा किया और उनके शिविर
को लूट लिया। इस प्रकार पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की भीषण पराजय हुई और
अब्दाली को विजय प्राप्त हुई। मराठा सेना के विनाश के सम्बन्ध में एक इतिहासकार ने
लिखा है कि
"पानीपत के युद्ध ने मराठों की रीढ़ तोड़ दी।
महाराष्ट्र में ऐसा घर शेष नहीं रहा था जिसका कोई सदस्य इस युद्ध में काम न आया
हो।" वास्तव में इस युद्ध में मराठों की एक पीढ़ी का अन्त हो गया।
पानीपत के तृतीय
युद्ध के परिणाम-
पानीपत
का तीसरा युद्ध भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना थी। इस युद्ध के परिणाम के विषय
में इतिहासकारों में पर्याप्त मतभेद है। सभी मराठा इतिहासकार इस बात को स्वीकार
करते हैं कि इस युद्ध में 45 हजार मराठा सैनिक मारे गए, किन्तु उनके लक्ष्य को कोई विशेष हानि नहीं पहुँची। मराठा इतिहास के विशेषज्ञ
सरदेसाई ने लिखा है, "इस युद्ध में मराठा
जनशक्ति का विनाश अवश्य हुआ, किन्तु यह विनाश उनकी शक्ति का अन्तिम निर्णायक नहीं था। वास्तव में इस युद्ध
ने लम्बे समय बाद महान् जाति के प्रसिद्ध पुरुष नाना फड़नवीस और महादजी को चमका
दिया, जो कि प्रलयंकारी दिन बड़ी आश्चर्यजनक रीति से
मृत्यु से बचकर निकल गए थे और उन्होंने मराठों के पूर्व गौरव को पुनर्जीवित किया
था। पानीपत के इस युद्ध में हुआ विनाश दैवीय प्रकोप के समान था। इसने मराठों की
जीवन शक्ति को नष्ट कर दिया,
किन्तु इससे उनके राजनीतिक जीवन का अन्त नहीं हो पाया। यह मान लेना कि पानीपत
के विनाश ने मराठों के सार्वभौमिकता के स्वप्न को सदा के लिए नष्ट कर दिया था, परिस्थिति को ठीकठीक न समझना है, जैसा कि तत्कालीन लेखों से ज्ञात होता है।"
उक्त मत के विरोध में अपना मत प्रस्तुत करते हुए यदुनाथ सरकार ने लिखा है कि
"इतिहास के पक्षपात रहित अध्ययन से ज्ञात होता है कि मराठों का यह जोरदार
दावा निर्मूल है। इसमें सन्देह नहीं कि मराठा सेना ने निर्वासित मुगल सम्राट को 1772 ई. में अपने
पूर्वजों के सिंहासन पर फिर से आसीन किया था, किन्तु वे उस समय न तो राज्य निर्माता हुए और न मुगल साम्राज्य के वास्तविक
शासक, वरन् उनकी स्थिति तो नाममात्र के मन्त्रियों तथा
सेनापतियों जैसी थी। इस प्रकार का गौरवपूर्ण पद तो केवल 1780 ई. में महादजी
सिन्धिया और 1803 ई. में अंग्रेज ही
प्राप्त कर पाए थे।"
उपर्युक्त दोनों मतों के अध्ययन से पता चलता है कि
यदुनाथ सरकार का मत अधिक उपयुक्त एवं सत्य है। फिर भी पानीपत के तीसरे युद्ध में
पराजय से मराठों को भीषण हानि हुई। संक्षेप में, इस युद्ध के निम्नलिखित परिणाम हुए
(1) अपार जनशक्ति का विनाश -
इस युद्ध में मराठों
की अपार जनशक्ति नष्ट हो गई। लगभग 45 हजार सैनिक इस फुद्ध में काम आए। एक लाख व्यक्तियों में से केवल कुछ हजार
व्यक्ति ही अपनी जान बचाकर महाराष्ट्र पहुँच, होता था, जिसका काम लगान वसूल
करना था। प्रमुख नगरों में एक कोतवाल भी होता था, जिसका काम नगर में शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखना था।
(2) पेशवा के प्रभाव का अन्त-
इस युद्ध में मराठों की पराजय ने पेशवा के प्रभाव का अन्त कर
दिया और मराठा संघ की एकता नष्ट होने लगी। मराठों में, पारस्परिक संघर्ष एवं कलह होने के कारण उनकी
शक्ति को गहरा आघात पहुँचा। पेशवा इन मराठों को अपने नियन्त्रण में न कर सका और
धीरे-धीरे उसकी शक्ति कम होती गई।
(3) उत्तरी भारत में मराठों का प्रभाव समाप्त होना -
पानीपत की पराजय से उत्तरी भारत में मराठों का
प्रभाव पूर्णतया समाप्त हो गया। दोआब तथा पंजाब. प्रदेश उनके हाथ से निकल गए। --
(4) अंग्रेजों का उत्थान -
मराठों
की पराजय ने अंग्रेजों के उत्थान में विशेष योगदान दिया, क्योंकि अब भारत में कोई शक्तिशाली जाति न रही, जो अंग्रेजों का मुकाबला कर सकती। अतएव अंग्रेजी शक्ति का
बड़ी तेजी से उत्थान आरम्भ "हो गया।
(5) मुगलों का पतन-
पानीपत के युद्ध ने
मुगलों को भी पतन के गर्त में धंकेल दिया। उनमें अब इतनी शक्ति नहीं रह गई थी कि
वे अंग्रेजों का सामना करने में सफल हो सकते।
(6) नैतिक प्रभाव -
पानीपत की पराजय ने
मराठों की मान और प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया। उनकी अजेय शक्ति का कोई मूल्य
नहीं रह गया और दूसरे राज्य उनकी मित्रता को प्राप्त करने में संकोच करने लगे।
पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों की पराजय के कारण
पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों की पराजय के
निम्नलिखित कारण थे
(1) मराठा सेनापति सदाशिवराव के व्यवहार से कई बड़े
मराठा सेनापति असन्तुष्ट थे। वह प्रत्येक कार्य में अपनी मनमानी करता था और किसी
से सलाह लेना आवश्यक नहीं समझता था।
(2) मराठा सेनापति सदाशिवराव के पास प्रारम्भ से ही
धन का अभाव था। उसके पास एक विशाल सेना के लिए पर्याप्त भोजन सामग्री नहीं थी।
(3) मराठों की अपेक्षा अहमदशाह अब्दाली की सेना की
संख्या अधिक थी और उसका नेतृत्व अहमदशाह अब्दाली स्वयं कर रहा था, जो अत्यन्त वीर और साहसी योद्धा था।
(4) अब्दाली ने रोहिलखण्ड के नवाब और अवध के नवाब
शुजाउद्दौला को अपने साथ मिला लिया था। इससे उसको सब प्रकार की आर्थिक और सैनिक
सहायता मिल गई। उसे भोजन सामग्री की इतनी कठिनाई नहीं उठानी पड़ी जितनी मराठों को।
उसने अपनी सेना की सहायता से मराठों की भोजन सामग्री आने के सभी मार्ग बन्द कर
दिए।
(5) मराठों की सेना में अनुशासन की कमी थी। इन्दौर
के महाराज मल्हारराव होल्कर व ग्वालियर के महाराज सिन्धिया के भाऊ साहिब से अच्छे
सम्बन्ध नहीं थे। मल्हारराव होल्कर ने पानीपत के मैदान में सुस्ती दिखाई और जब
मराठों की हार हुई, तो अपनी सेना सहित
भाग गया। इसके विपरीत अहमदशाह अब्दाली की सेना में कड़ा अनुशासन था।
(6) अफगानों का तोपखाना मराठों से श्रेष्ठ था।
अफगानों की रण पद्धति भी मराठों से बहुत अच्छी थी।
This answer is very esay
ReplyDeleteReally good samjaya
Delete