थॉमस एक्विनास के कानून सम्बन्धी विचार

BA-II-Political Science-I
प्रश्न 6. सेण्ट थॉमस एक्विनास के राजनीतिक विचारों का वर्णन कीजिए तथा इन पर अरस्तू के प्रभाव को स्पष्ट कीजिए।
अथवा ''सेण्ट एक्विनास की कानून सम्बन्धी अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
अथवा ''कानून और राज्य तथा चर्च के सम्बन्धों के प्रति सेण्ट थॉमस एक्विनास के विचारों की विवेचना कीजिए।
अथवा "एक्विनास मध्य युग का अरस्तू था।" मैक्सी के इस कथन का परीक्षण कीजिए।

उत्तर - सेण्ट थॉमस एक्विनास को 13वीं शताब्दी का महान् विचारक ही नहीं वरन् मध्य युग का सर्वश्रेष्ठ विचारक माना जाता है । 
डॉ. वी. पी. वर्मा के अनुसार, "महान् धर्माचार्य और तेजस्वी दार्शनिक सेण्ट थॉमस एक्विनास मध्य युग की एक अतिशय प्रचण्ड विभूति है। समस्त ईसाई जगत् में उनके व्यक्तित्व को छूने वाला दूसरा व्यक्तित्व प्राप्त नहीं होता है।" फोस्टर ने थॉमस एक्विनास को संसार के महानतम दार्शनिकों में से एक बतलाया है।
Thomas Aquinas ke rajnitik vichar

रचनाएँ-एक्विनास के ग्रन्थ निम्नलिखित हैं---
(1) Summa Theologica
(2) Commentaries on the Politics of Aristotle
(3) The Rule of Princes
(4) Summa Contra Gentiles

उपर्युक्त रचनाओं में एक्विनास ने अरस्तू तथा सेण्ट आँगस्टाइन के विचारों में समन्वय स्थापित किया है।

एक्विनास के राजनीतिक विचार

राज्य सम्बन्धी विचार - 

राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में थॉमस मध्य युग की इस धारणा को ठुकराता है कि "राजा का जन्म अपराध या मनुष्य की पापी प्रवृत्ति का परिणाम है।" इसके विपरीत वह अरस्तू के इस मत से सहमत है कि राज्य की उत्पत्ति का कारण मनुष्य की सामाजिक भावना है
और राज्य का उद्देश्य श्रेष्ठ जीवन की प्राप्ति है। एक्विनास के अनुसार राज्य एक प्राकृतिक संस्था है और समाज के लिए उपयोगी है। उसके अनुसार मनुष्य सामाजिक व राजनीतिक प्राणी है और वह राज्य के भीतर ही अपना विकास कर सकता है।

चर्च एवं राज्य का सम्बन्ध - 

एक्विनास का काल चर्च और राज्य के मध्य संघर्ष का काल था। एक्विनास चाहता था कि इन दोनों का संघर्ष समाप्त हो जाए,इसीलिए उसने दोनों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया। एक्विनास के अनुसार राज्य एवं चर्च, दोनों का ही लक्ष्य मनुष्य को मोक्ष प्राप्त करने में सहायता देना है। " यद्यपि एक्विनास विवेक एवं बुद्धि की उपेक्षा नहीं करता, फिर भी वह कहता है कि सत्य का दर्शन केवल श्रद्धा द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।
अपने इस विश्वास के कारण वह राज्य को चर्च के अधीन बनाने को कहता है। उसके अनुसार विश्वासों के अन्तिम मामलों में चर्च ही अन्तिम सत्ता है। अतः लौकिक शक्ति की तुलना में उसी को सर्वोच्चता मिलनी चाहिए।

एक्विनास राज्य और चर्च का विलय नहीं चाहता -

यद्यपि एक्विनास चर्च को राज्य से श्रेष्ठ मानता है और कहता है कि राजा को भी पोप के आदेशों का पालन करना चाहिए। उसने तो यहाँ तक कहा है कि यदि राजा अपने कर्तव्यों का निर्वहन ठीक प्रकार से नहीं करता, तो पोप राजा को पद से भी हटा सकता है। पोप को राजनीतिक व धार्मिक, दोनों विषयों में हस्तक्षेप करने का अधिकार है। परन्तु इसके बावजूद एक्विनास राज्य का चर्च में विलय नहीं चाहता है। डायल ने ठीक ही लिखा है, "ब दार्शनिकों में अकेले एक्विनास ने ही यह घोषित किया है कि चर्च से पृथक राज्य का स्वयं का अस्तित्व है।" एक्विनास राज्य को शान्ति और व्यवस्था के कार्यों का उत्तरदायित्व सौंपना चाहता है। 
एक्विनास ने राज्य के कुछ कार्य इस प्रकार बताए हैं-राज्य के लिए विशेष मुद्रा को चलाना, भार एवं तौल की समुचित प्रणाली निश्चित करना, जनसंख्या पर आवश्यक नियन्त्रण रखना, सड़कों की व्यवस्था आदि।

एक्विनास के कानून सम्बन्धी विचार -

एक्विनास के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विचार कानून की विवेचना से सम्बन्धित हैं। उसने कानून की परिभाषा देते हुए कहा है कि "कानून विवेकसम्मत वह अध्यादेश है जिसका उद्देश्य लोक-कल्याणकारी होता है और वह अध्यादेश उस व्यक्ति द्वारा दिया जाता है जिसके ऊपर किसी समुदाय की रक्षा एवं समुदाय की देखभाल का भार होता है।" इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि एक्विनास भी अरस्तु की भाँति यह मानता है कि शक्ति उसी समय तक न्यायपूर्ण है जब तक कि वह लोक-कल्याण का प्रतिपादन करती है। दूसरी ओर वह कानून की रोमन व्याख्या को भी स्वीकार करता है, जिसके अनुसार कानून किसी व्यक्ति विशेष की अभिव्यक्ति है। कानून के लक्षणों की व्याख्या करते हुए एक्विनास ने बताया है कि वह सार्वभौमिक, अपरिवर्तनशील और स्वाभाविक होता है।

एक्विनास द्वारा प्रतिपादित कानून की विशेषताएँ

(1) कानून की समुचित उद्घोषणा अत्यावश्यक है, क्योंकि इससे ही कानून को शक्ति उपलब्ध होती है।
(2) कानून सदैव सामान्य जनहित के लक्ष्य की ओर उन्मुख रहता है। ..
(3) कानून शासक के आदेश होते हैं।
(4) कानून विशेष नियम अथवा कार्यों का मापदण्ड होता है।
(5) कानून विवेक पर आधारित होता है और लोक-कल्याण की ओर अग्रसर होता जाता हैं।

कानून का वर्गीकरण-

एक्विनास ने चार प्रकार के कानूनों का उल्लेख किया है

(1) शाश्वत कानून -

यह वह कानून है जो ईश्वर के ही मस्तिष्क में रहता है। इन कानूनों से और कोई परिचित नहीं है अर्थात् मनुष्यों को इसका ज्ञान नहीं होता। यह कानून स्वयं में सत्य होता है और मनुष्य इसका अनुभव केवल आत्म-शुद्धि के द्वारा कर सकता है। एक्विनास के अनुसार यह कानून ही विश्व की अन्तिम वास्तविकता है और कानून की उपेक्षा न राजा कर सकता है और न ही पोप।

(2) प्राकृतिक कानून -

ये वे कानून हैं जो शाश्वत मनुष्य की भाँति पूर्णतया स्पष्ट नहीं होते हैं। ये कानून शाश्वत का अंश अथवा प्रतिबन्ध हैं और उनकी उत्पत्ति शाश्वत कानूनों से होती है, फिर भी शाश्वत कानूनों की तुलना में ये अधिक स्पष्ट और बोधगम्य होते हैं। हरमोन ने प्राकृतिक कानूनों की धारणा को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "प्राकृतिक कानून शाश्वत कानून के उद्देश्य को व्यक्त करता है, जिसमें मनुष्य विवेकशील प्राणी के नाते भाग लेता है। इसमें वे शक्तियाँ निहित हैं जो सब प्राणियों को आवश्यक व उचित आचरण करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं।" इस प्रकार. प्राकृतिक, कानून एक प्रकार से मनुष्य की बुद्धि की ग्राह्य शक्ति का परिचय देते हैं।

मनुष्य की सामाजिकता, परोपकार की वृत्ति, दीन-दुःखियों की सहायता की इच्छा इसी ओर इशारा करती है। इसी प्रकार , आत्म-रक्षा की प्रवृत्ति, यौन, सम्भोग, सन्तान की इच्छा भी प्राकृतिक कानून के उदाहरण हैं। प्राकृतिक कानून मौलिक रूप से सबके लिए समान होते हैं।

(3) दैवीय कानून- 

ये वे कानून हैं जो धर्मग्रन्थों में लिखे हुए हैं। इन कानूनों के अन्तर्गत ईश्वर के वे आदेश हैं जो अन्तर्बुद्धि द्वारा व्यक्ति को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार ये कानून व्यक्ति के विवेक का परिणाम न होकर ईश्वर की कृपा का प्रसाद हैं। जहाँ मनुष्य की बुद्धि और विवेक काम नहीं करता, वहाँ उसकी त्रुटियों को ये कानून दूर कर देते हैं। दैवीय कानून के पालन को अनिवार्य बताते हुए एक्विनास कहता है कि संसार से मुक्ति पाने के लिए ऐसा करना अनिवार्य है।

(4) मानवीय कानून -

ये वे कानून हैं जो प्राकृतिक कानून की सहायता से विशेष व्यावहारिक परिस्थितियों में मनुष्य बुद्धि द्वारा बनाए जाते हैं। इन कानूनों के अन्तर्गत रूढ़ियाँ और मनुष्यों द्वारा बनाए गए कानून आते हैं। मैक्डोनाल्ड के शब्दों में, "मानवीय कानून मनुष्य द्वारा निर्मित कानून है। यह शासकों के आदेशों या किसी विशेष समाज के परम्परागत नियमों का रूप धारण करता है।"
एक्विनास के अनुसार मानवीय कानूनों का स्तर उपर्युक्त सभी कानूनों से भिन्न है। उसने मानवीय कानूनों का शाश्वत कानूनों से सम्बन्ध स्थापित किया है। उसके अनुसार जिस प्रकार दैवीय कानून शाश्वत कानून की कमी की पूर्ति करता है, वैसे ही शाश्वत कानून से अछूते बचे क्षेत्र के लिए मानवीय कानून आवश्यक है। मानवीय कानून दो बातों का निर्धारण करता है

(i) मानवीय कानून विवेक रहित नहीं होने चाहिए, और
(ii) मानवीय कानून लोक-कल्याण के लिए बनाए जाने चाहिए।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि एक्विनास का उद्देश्य यूनानी दार्शनिक अरस्तू तथा ईसाई विचारक सेण्ट ऑगस्टाइन के विचारों में समन्वय करके एक नई विचारधारा देना है। एक्विनास के दर्शन को 'ईसाई अरस्तूवाद' ठीक ही कहा गया है। मध्य युग के सन्तों की ही भाँति थॉमस एक्विनास ने चर्च को स्थान दिया है, परन्तु अरस्तू का अनुयायी होने के कारण वह राज्य की उपेक्षा नहीं करता और राज्य को भी उच्च स्थान देता है।
इसलिए फोस्टर ने कहा है कि "एक्विनास के लिए चर्च सामाजिक संगठन का ताज है, वह लौकिक संगठन (राज्य) का प्रतिद्वन्द्वी नहीं वरन् उसकी पूर्णता है।" सेबाइन ने भी इसी प्रकार लिखा है कि "उसने एक ऐसी व्यावहारिक प्रणाली खोजने की चेष्टा की जिसके अनुसार ईश्वर, प्रकृति एवं मानव के सम्बन्ध घनिष्ठ हों और जिनमें समाज तथा शासन सत्ता एक-दूसरे का साथ देने के लिए तैयार हों।"

स्पष्ट है कि थॉमस एक्विनास न केवल मध्य युग का बड़ा दार्शनिक है, वरन् प्लेटो और अरस्तू की ही भाँति सर्वकालीन और सार्वभौम महत्त्व का दार्शनिक है।

एक्विनास पर अरस्तू का प्रभाव

एक्विनास पर सर्वाधिक प्रभाव अरस्तू का पड़ा है, जैसा कि निम्नलिखित से स्पष्ट है

(1) राज्य के सम्बन्ध में -

मध्य युग में यह बात मानी जाती थी कि राज्य की उत्पत्ति पाप के कारण हुई है, परन्तु एक्विनास ने अरस्तू की इस बात को माना है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज की भाँति राज्य भी एक प्राकृतिक संस्था है। अरस्तू की भाँति एक्विनास का भी विचार है कि राज्य के बिना व्यक्ति अपने विकास की चरम सीमा तक नहीं पहुँच सकता।

(2) राज्य के कार्य-

अरस्तू की भाँति एक्विनास ने भी राज्य के कार्यों के सम्बन्ध में कहा है कि राज्य का उद्देश्य श्रेष्ठ और नैतिक जीवन की परिस्थितियाँ उत्पन्न करना है। अरस्तू की भाँति उसने भी राज्य की एकता और उसमें शान्ति बनाए रखने पर बल दिया है।

(3) शासन प्रणालियों का वर्गीकरण-

एक्विनास ने भी अरस्तू के वर्गीकरण के आधार पर अपना वर्गीकरण दिया है। अरस्तू की भाँति वह भी सार्वजनिक हित करने वाली सरकार को अच्छा कहता है और इसके विपरीत सरकार को बुरी सरकार कहता है।

(4) न्याय

के सम्बन्ध में भी एक्विनास अरस्तू के विचारों से प्रभावित है। अरस्तू की भाँति एक्विनास भी समस्त सद्गुणों को न्याय के अन्तर्गत लेता है। अरस्तू की भाँति वह भी कानून को वासना रहित विवेक मानता है।

अन्त में यह उल्लेखनीय है कि एक्विनास अरस्तु के विचारों से प्रभावित तो है, परन्तु उनके विचारों को वह पूर्ण सत्य नहीं मानता है। एक्विनास ने अरस्तू के विचारों को सेण्ट ऑगस्टाइन और बाइबिल के विचारों से मिलाकर उन्हें मध्य युग के अनुकूल बना दिया है, इसलिए एक्विनास को 'समन्वयवाद का अगुआ' भी कहा जाता है।

ये भी जाने ....अरस्तू के दास प्रथा सम्बन्धी विचारों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

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