भारत का विभाजन - 1947


MJPRU-BA-III-History I-2020 
प्रश्न 19. जिन परिस्थितियों के कारण सन् 1947 में भारत-विभाजन हुआ, उनकी विवेचना कीजिए। अथवा भारत-विभाजन के कारण बताइए। क्या यह अनिवार्य था?
अथवा ''भारत में पाकिस्तान आन्दोलन के उदय तथा भारत-विभाजन के लिए उत्तरदायी कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर - ब्रिटिश संसद ने जुलाई, 1947 में 'भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम' पारित किया। इस अधिनियम के अन्तर्गत ही भारत का विभाजन हुआ और 'भारत' तथा 'पाकिस्तान' दो राज्यों का निर्माण हुआ।
भारत का विभाजन - 1947

पाकिस्तान आन्दोलन के उदय के कारण -

भारत में पाकिस्तान आन्दोलन के जन्म और अन्ततः पाकिस्तान बनने के निम्नलिखित कारण थे-
(1) निर्वाचनों में लीग को आशा के अनुकूल सफलता प्राप्त न होनासन् 1937 में भारत में विधानमण्डलों के जो निर्वाचन हुए, उनमें मुस्लिम लीग को उन प्रान्तों में भी सफलता नहीं मिली जिनमें मुसलमानों का बहुमत था; जैसे-उत्तरपश्चिमी सीमा प्रान्त, पंजाब, सिन्ध आदि। फलस्वरूप मुस्लिम लीग ने अनुभव किया कि एक स्वतन्त्र मुस्लिम राज्य में ही उसकी राजनीतिक इच्छाएं पूरी हो सकती हैं, इसलिए लीग ने पाकिस्तान की माँग बुलन्द की।
(2) संयुक्त मन्त्रिमण्डल न बनने से निराशा-कांग्रेस ने लीग की संयुक्त मन्त्रिमण्डल बनाने की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया था।
(3) हिन्दू साम्प्रदायिकता का दूषित प्रभाव - पाकिस्तान की माँग को मजबूत बनाने में हिन्दू महासभा जैसे हिन्दू सम्प्रदायवादी संगठन ने भी बल प्रदान किया। हिन्दू महासभा ने कांग्रेस को हिन्दुओं के हितों की रक्षा करने में असमर्थ घोषित किया और हिन्दुओं को संगठित करने का कार्य हिन्दू महासभा ने स्वयं ले लिया। सन् 1937 के महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में वी. डी. सावरकर ने कहा कि "भारत एक सूत्र में बँधा राष्ट्र नहीं माना जा सकता है, अपितु यहाँ मुख्यतया हिन्दू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं।" सन् 1939 में सावरकर ने घोषित किया कि "भविष्य में हमारी राजनीति विशुद्ध हिन्दू राजनीति होगी।" उन्होंने यह भी कहा कि "मुसलमान भारत में अल्पसंख्यक सम्प्रदाय की स्थिति को स्वीकार करते हुए ही रह सकते हैं।"
उपर्युक्त के अतिरिक्त अनेक हिन्दू मुसलमानों को अस्पृश्य भी मानते थे। मुसलमानों के प्रति हिन्दुओं के ऐसे व्यवहार व उनसे घृणा के कारण मुसलमानों में पृथकतावाद की भावना सुदृढ़ हुई।

(4) कांग्रेस का जनसम्पर्क आन्दोलन - 

सन् 1937 के निर्वाचन के पूर्व और बाद में पं. नेहरू ने जनसम्पर्क आन्दोलन के अन्तर्गत मुस्लिम जनता से भी सम्पर्क स्थापित करने के लिए तूफानी दौरा किया, जिससे लीग को भय हो गया कि कांग्रेस मुसलमानों को अपने साथ मिलाना चाहती है। अत: जिन्ना ने 'इस्लाम खतरे में है' का नारा देते हुए यह प्रचार किया कि आन्दोलन का उद्देश्य मुसलमानों में फूट डालना है, उन्हें दुर्बल बनाना है और उन्हें अपने विश्वसनीय नेताओं से पृथक करना है।

 (5) मुस्लिम राज्यों का संघ बनाने की आकांक्षा - 

अनेक भारतीय मुसलमान एक पृथक् मुस्लिम राज्य की स्थापना करने के पश्चात् एशिया और अफ्रीका के मुस्लिम राज्यों का एक संघ बनाने का स्वप्न भी देख रहे थे।

(6) अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव - 

प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् 'राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार' के आधार पर यूरोप में कई नवीन राज्य बने थे। मुसलमानों ने भी इस अधिकार के आधार पर पाकिस्तान के निर्माण की माँग की।

(7) 'फूट डालो और शासन करो' की नीति -

ब्रिटिश सरकार ने 'फूट डालो और शासन करो' की नीति द्वारा प्रारम्भ से ही मुसलमानों का हौसला बढ़ाया था। मेहता और पटवर्धन ने ठीक ही कहा है कि "पाकिस्तान का विचार आंग्लभारतीय नौकरशाही के लिए नया नहीं था।" सन् 1940 में अगस्त प्रस्ताव और सन् 1942 में क्रिप्स प्रस्तावों के अन्तर्गत ब्रिटिश सरकार ने पाकिस्तान की माँग परोक्ष रूप से स्वीकार कर ली थी।

(8) हिन्दुओं के अत्याचारों का ढिंढोरा - 

मुस्लिम जनता को अधिक उत्तेजित करने के लिए लीग ने मुसलमानों के साथ कांग्रेसी अन्याय व अत्याचार का नारा लगाना प्रारम्भ किया। मार्च, 1938 में लीग ने पीरपुर के राजा की अध्यक्षता में एक समिति मुसलमानों पर हुए अत्याचारों की जाँच के लिए नियुक्त की। इस समिति ने कांग्रेसी मन्त्रियों पर झूठे आरोप लगाकर अत्याचारों की एक लम्बी सूची दी। वास्तविकता यह थी कि रिपोर्ट का अधिकांश भाग लखनऊ के एक , दैनिक समाचार-पत्र के मुसलमान सह-सम्पादक ने लखनऊ में बैठकर ही लिखा था। कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इन आरोपों की जाँच कराने के लिए संघीय न्यायालय के किसी न्यायाधीश को नियुक्त करके आरोपों को चुनौती दी, जिसे जिन्ना ने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि उनका उद्देश्य तो केवल कांग्रेस को बदनाम करना था। स्वयं प्रो. कूपलैण्ड, जो कि सदैव कांग्रेस के विरोधी रहे, उन्होंने भी स्वीकार किया कि "कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों ने साम्प्रदायिक अन्याय : अथवा उत्पीड़न की नीति का बिल्कुल भी आश्रय नहीं लिया था।"

 उपर्युक्त कारणों से मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान आन्दोलन चलाया। आन्दोलन निःसन्देह अंग्रेजों की सहमति पर आधारित था। इसका प्रमाण यह है कि मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की प्राप्ति के लिए 'प्रत्यक्ष कार्यवाही की नीति अपनाई और निर्दोष हिन्दुओं की हत्या की गई, तो ब्रिटिश सरकार केवल तमाशा देखती रही। कांग्रेस ने भी हिन्दू-मुस्लिम दंगों की भयंकरता को देखते हुए और जिन्ना की पाकिस्तान के निर्माण की हठधर्मिता के कारण भारत-विभाजन को स्वीकार कर लिया।

भारत-विभाजन के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ

भारत-विभाजन के कारण जिन परिस्थितियों ने भारत-विभाजन को अनिवार्य बना दिया, उनकी व्याख्या निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है

(1) ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की 'फूट डालो और शासन करो' की नीति - 

भारत के विभाजन के लिए उत्तरदायी एक महत्वपूर्ण कारण अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति थी। 1857 ई. की क्रान्ति के पश्चात् प्रारम्भ में तो अंग्रेजों ने हिन्दुओं को संरक्षण दिया, क्योंकि अंग्रेजों को ऐसा विश्वास था कि इस क्रान्ति में मुसलमानों की प्रमुख भूमिका रही। अतः उन्होंने हिन्दुओं को संरक्षण देना आरम्भ कर दिया। यही नहीं, मुसलमानों की जागीरदारी तथा जमींदारी छीनकर हिन्दुओं को जमींदार तथा जागीरदार बनाया गया। मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से वंचित किया गया तथा उनकी भाषा एवं संस्कृति पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया गया। 1885 ई. में कांग्रेस की स्थापना हुई और जब कांग्रेस धीरे-धीरे बल पकड़ने लगी, तो अंग्रेजों को अपनी नीति में परिवर्तन करना पड़ा। सन् 1906 में लीग की स्थापना लॉर्ड मिण्टो, जो कि भारत के तत्कालीन वायसराय थे, के संकेत पर हुई। इसके बाद अंग्रेजों ने मुसलमानों को संरक्षण देने की नीति अपनाई।

(2) साम्प्रदायिक दंगे और उपद्रव - 

मुस्लिम लीग द्वारा 16 अगस्त, 1946 को 'प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस' मनाए जाने का निर्णय अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण था। उस दिन कलकत्ता में भयंकर मारकाट हुई, जिसकी प्रतिक्रिया नोआखाली और त्रिपुरा आदि स्थानों में देखने को मिली। भारत-विभाजन के सम्बन्ध में कांग्रेस के दृष्टिकोण में परिवर्तन का तात्कालिक कारण ये साम्प्रदायिक दंगे ही थे।

(3) जिन्ना की हठधर्मिता -

कांग्रेस के नेतागण यह मानते थे कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध करने के लिए मुस्लिम लीग का सहयोग जांछित है। अत: ये कुछ अधिक मूल्य पर भी मुस्लिम लीग के साथ समझौता करने को उत्सुक थे। इसके विपरीत मुहम्मद अली जिन्ना स्थिति का पूरा-पूरा लाभ उठाते हुए अधिक महत्त्वाकांक्षी बनते चले गए। उन्होंने सर्वप्रथम नेहरू रिपोर्ट में तीन संशोधन प्रस्तुत किए, इसके उपरान्त उन्होंने 14 माँगें प्रस्तुत की और फिर पाकिस्तान के निर्माण की आवाज उठाई। वे ऐसी किसी भी योजना को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे जिसमें उनकी इच्छानुसार पाकिस्तान देने की व्यवस्था न की गई हो। सन् 1940 के उपरान्त भारत की राजनीतिक समस्या के समाधान हेतु राजगोपालाचारी योजना, वेवल योजना और कैबिनेट मिशन योजना प्रस्तुत की गई, लेकिन जिन्ना की हठधर्मिता के कारण इनमें से किसी भी योजना को सफलता न मिल सकी। अतः कांग्रेसी नेताओं को विवश होकर भारत का विभाजन स्वीकार करना पड़ा।

(4) अन्तरिम सरकार की असफलता - 

कैबिनेट मिशन योजना के अन्तर्गत भारत में अक्टूबर, 1946 में एक अन्तरिम सरकार की व्यवस्था की गई थी। इसमें मुस्लिम लीग के 5 प्रतिनिधि भी सम्मिलित थे। लेकिन लीग के प्रतिनिधियों ने कांग्रेसी मन्त्रियों के कार्य में रोड़ा डालना प्रारम्भ कर दिया। मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि लियाकत अली ने पं. नेहरू के नेतृत्व को खुले तौर पर चुनौती दी। उनके पास वित्त विभाग था। उसने कांग्रेस के प्रतिनिधियों द्वारा दिए जाने वाले सुझावों में अडंगा लगाने की कोशिश की। यहाँ तक कि वे बिना उसकी सहमति के एक चपरासी तक की व्यवस्था नहीं कर सकते थे। ऐसी परिस्थितियों में कांग्रेसी नेताओं का यह विश्वास दृढ़ हो गया कि मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर सरकार चलाना नितान्त कठिन है। ऐसी दशा में सरदार पटेल ने कहा था, "मुस्लिम लीग से छुटकारा पाने के लिए मैं इसे भारत का कुछ भाग देने को भी तैयार हूँ।"

(5) अंग्रेज अफसरों का षड्यन्त्र - 

कांग्रेस को विभाजन इसलिए भी स्वीकार करना पड़ा क्योंकि अंग्रेज अफसरों की सहानुभूति मुसलमानों के साथ थी। वायसराय के कानूनी परामर्शदाता वी. पी. मेनन ने सरदार पटेल से कहा था, "गृह युद्ध की ओर बढ़ने के बजाय देश का विभाजन स्वीकार कर लेना अच्छा है।" प्रशासन के महत्त्वपूर्ण पदों पर मुसलमानों की नियुक्तियाँ इसी उद्देश्य को लेकर की जाती रहीं। सरदार पटेल ने नवम्बर, 1948 में बनारस विश्वविद्यालय के दीक्षान्त भाषण में स्पष्ट किया था कि "मैंने अनुभव किया कि यदि हम पाकिस्तान की स्वीकृति न देते, तो भारत बहुत-से छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट जाता और बिल्कुल नष्ट हो जाता। अन्तरिम सरकार में पद संभालने के बाद मुझे ऐसा लगा कि हम विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। केवल एक पाकिस्तान नहीं बनता, वरन् अनेक बनते। प्रत्येक दातर में पाकिस्तान की एक इकाई होती।"

(6) पाकिस्तान की स्थिरता के बारे में सन्देह -

कांग्रेस के नेताओं का यह मत था कि भारत का विभाजन भस्थायी होगा। भौगोलिक, आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक कारणों से पाकिस्तान आधिक दिनों तक अपना 'पृथक् अस्तित्व नहीं बनाए रख सकेगा। आचार्य जे. बी. कृपलानी ने माउण्टबेटन योजना को स्वीकार करने के उपरान्त कांग्रेस के सम्मुख कहा था, "शक्तिशाली, सुखी और लोकतान्त्रिक भारत अपने बिछड़े बच्चों को फिर अपनी गोद में ले सकता है, क्योंकि जिस स्वतन्त्रता को हमने प्राप्त किया है, वह भारत की एकता के बिना अधूरी है।" शायद पाकिस्तान के निर्माण को भारत की राजनीतिक समस्या के एक अस्थायी हल के रूप में स्वीकार कर लिया।

(7) भारत की एकता को जबरदस्ती बनाए रखने का प्रयत्न अनुचित था -  

कांग्रेस के नेताओं का विचार था कि मुस्लिम लीग कांग्रेस से किसी बात में सहयोग नहीं करेगी। ऐसी स्थिति में मुसलमानों को भारतीय संघ में रहने के लिए विवश करना बुद्धिमत्ता नहीं होगा। यदि मुस्लिम लीग के समर्थकों को भारत में रहने के लिए विवश किया जाता, तो भारत सदैव कमजोर रहता और राजनीतिक एकता अधिक समय तक स्थिर नहीं रह पाती। सरदार पटेल के शब्दों में, "यदि
शरीर के एक अंग में विष का संचार हो जाए, तो उसे तुरन्त शरीर से अलग कर देना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि सारा शरीर इससे पीड़ित हो जाए और फिर उपाय करना सम्भव न रहे।"

(8) लॉर्ड माउण्टबेटन का प्रभाव - 

लॉर्ड माउण्टबेटन जैसे प्रभावशाली वायसराय ने भारत के विभाजन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने अपने चातुर्यपूर्ण प्रभाव और तर्कों से पं. जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल को, जो भारत-विभाजन के विरोधी थे, विभाजन के पक्ष में कर लिया। मौलाना आजाद लिखते हैं, "पं. नेहरू, जो भारत-विभाजन के प्रबल विरोधी थे, एक महीने के भीतर इतने बदल गए कि यदि वे विभाजन योजना के समर्थक नहीं थे तो कम-से-कम इसके विरुद्ध भी नहीं थे। इस कठिन कार्य में लॉर्ड माउण्टबेटन को अपनी पत्नी से बहुत सहायता मिली। उन्होंने नेहरूजी को अपने पति से अधिक प्रभावित किया।" लॉर्ड माउण्टबेटन ने न केवल नेहरू और सरदार पटेल को समझाया कि विभाजन के अलावा और चारा नहीं है, वरन् जिन्ना को भी छोटा पाकिस्तान स्वीकार करने को तैयार किया।

(9) कांग्रेस के नेताओं का सत्ता के प्रति आकर्षण

कुछ इतिहासकारों का मत है कि कांग्रेस के नेताओं का सत्ता के प्रति आकर्षण भी भारत-विभाजन के लिए किसी सीमा तक उत्तरदायी था। माइकेल ब्रेचर ने लिखा है, "कांग्रेस के नेताओं के सामने सत्ता के प्रति आकर्षण भी था। इन नेताओं ने अपने राजनीतिक जीवन का अधिकांश भाग ब्रिटिश सरकार के विरोध में व्यतीत किया था और स्वाभाविक रूप से सत्ता के लिए आकर्षित हो रहे थे। कांग्रेसी नेता सत्ता का रसास्वादन कर चुके थे और विजय की घड़ी में इससे पृथक् होने के इच्छुक नहीं थे।"
'उपर्युक्त कारणों ने भारतीय इतिहास में विभाजन की महानतम दुर्घटना को जोड़ा। गांधीजी के अनुसार यह एक आध्यात्मिक दुर्घटना और 32 वर्षों के सत्याग्रह का लज्जाजनक परिणाम था। इस प्रकार मुहम्मद अली जिन्ना ने 'द्विराष्ट्र सिद्धान्त' देकर अखण्ड भारत को खण्डित किया। इसके अतिरिक्त सन् 1946-47 के मध्य भारत साम्प्रदायिक दंगों की विभीषिका से जलने लगा और अंग्रेजों की उदासीनता बराबर बनी रही। इस प्रकार अराजकता और गृह युद्ध की स्थिति को देखते हुए राष्ट्रीय नेताओं ने देश के विभाजन को स्वीकार कर लिया।
इन परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए पं. नेहरू का यह मत सही प्रतीत होता है कि "हालात की मजबूरी थी और यह महसूस किया गया कि जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं, उसके द्वारा गतिरोध को दूर नहीं किया जा सकता है। अतः हमको देश का विभाजन स्वीकार करना पड़ा।"

क्या भारत-विभाजन अनिवार्य था ?

भारत का विभाजन और पाकिस्तान का निर्माण भारत के राजनीतिक इतिहास की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना है। मौलाना आजाद ने अपनी पुस्तक 'India Wins Freedom' में यह मत व्यक्त किया है कि यदि पं. नेहरू और सरदार पटेल जैसे राष्ट्रीय नेताओं ने लॉर्ड माउण्टबेटन के प्रभाव में आकर उनकी बँटवारे सम्बन्धी योजना को स्वीकार न किया होता, तो भारत-विभाजन से बचा जा सकता था। महात्मा गांधी ने तो भारत-विभाजन के कुछ दिनों पूर्व कहा था, "भारत का विभाजन मेरे शव पर होगा। जब तक मैं जिन्दा हूँ, भारत के दो टुकड़े नहीं होने दूंगा। मैं यथासम्भव कांग्रेस को भी भारत का विभाजन स्वीकार नहीं करने दूंगा।" यह ठीक है कि सर्वप्रथम पं. नेहरू और सरदार पटेल ने माउण्टबेटन योजना को स्वीकार किया और फिर किसी प्रकार उस पर गांधीजी की स्वीकृति प्राप्त कर ली। सत्य यह है कि पं. नेहरू और सरदार पटेल ने भी परिस्थितियों के दबाव के कारण ही भारत का विभाजन स्वीकार किया। तत्कालीन परिस्थितियों में भारतीय समस्या के हल का विभाजन के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। इन्द्र विद्या वाचस्पति ने लिखा है, "यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि उस समय अनिवार्य समझकर कांग्रेस के नेताओं ने विभाजन के साथ स्वाधीनता को स्वीकार किया। यदि वे स्वीकृति न देते, तो क्या परिणाम होता, इस प्रश्न का उत्तर इतिहास की सीमा से बाहर है।"


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