इंग्लैण्ड की अलगाव की नीति

MJPRU-BA-III-History II / 2022
प्रश्न 5. इंग्लैण्ड की 'शानदार पृथक्करण नीति' से क्या अभिप्राय है ? इसका किस प्रकार परित्याग किया गया ?
 अथवा ''इंग्लैण्ड की 'शानदार पृथक्करण की नीति' क्या थी ? उसे इस नीति का परित्याग क्यों करना पड़ा ?
अथवा ''इंग्लैण्ड की 'शानदार अलगाव की नीति' क्या थी? उसने इस नीति को क्यों अपनाया ?
उत्तर - 

इंग्लैण्ड की शानदार पृथक्करण (अलगाव) की नीति - 

इंग्लैण्ड को दीर्घकाल तक नेपोलियन के साथ युद्धों में व्यस्त रहना पड़ा था । इन युद्धों में इंग्लैण्ड को धन और जन, दोनों की ही विशाल हानि उठानी पड़ी थी। 1815 ई. में इन युद्धों की समाप्ति पर इंग्लैण्ड को शान्ति मिली। इसके उपरान्त इंग्लैण्ड में कुछ इस प्रकार के राजनीतिज्ञों का उदय हुआ जो इंग्लैण्ड को यूरोपीय झगड़ों से दूर रखना चाहते थे । ग्लैडस्टोन और लॉर्ड सैलिसबरी तो अपनी शान्तिप्रिय नीति के परिणामस्वरूप अनेक युद्धों को टालने में सफल रहे । उन्होंने युद्ध की नीति का परित्याग कर शान्ति वार्ता की नीति का अनुसरण किया। उनकी इस शान्तिपूर्ण नीति को ही विद्वानों ने 'शानदार पृथकत्व' की संज्ञा दी है। परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि इंग्लैण्ड ने यूरोपीय घटनाओं में रुचि लेना बन्द कर दिया था। जर्मनी के उत्थान तथा इटली के एकीकरण के समय वह अत्यन्त सावधानी से परिस्थिति का अध्ययन करता रहा।
इंग्लैण्ड की अलगाव की नीति


19वीं शताब्दी के प्रारम्भ से जर्मनी और इंग्लैण्ड में आपसी सम्बन्ध बहुत अच्छे थे। जर्मनी के राष्ट्रीय एकता के संग्राम के दिनों में ब्रिटेन का रुख अत्यन्त सहानुभूतिपूर्ण रहा। इसलिए जब 1882 ई. में जर्मनी, ऑस्ट्रिया और इटली को मिलाकर बिस्मार्क ने त्रिगुट की स्थापना की, तब भी ब्रिटेन में कोई भय उत्पन्न नहीं हुआ। इसका प्रमुख कारण यह था कि बिस्मार्क के समय में दोनों देशों के सम्बन्ध हमेशा की तरह अच्छे बने रहे । उसका विश्वास था कि जर्मनी और ब्रिटेन में विरोध होने का कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है। 
बिस्मार्क इस बात को अच्छी तरह जानता था कि ब्रिटेन के सामूहिक आधिपत्य पर आघात पहुँचाने से ही ब्रिटेन और जर्मनी के सम्बन्ध खराब हो सकते हैं। इसलिए बिस्मार्क ने ब्रिटेन के विश्वव्यापी साम्राज्य को नुकसान नहीं पहुँचाने तथा उसके सामुद्रिक प्रभुत्व को चुनौती नहीं देने की नीति का अवलम्बन किया। जर्मनी एक स्थल शक्ति था और ब्रिटेन जल शक्ति । 
बिस्मार्क का कहना था कि 'थल के चूहे' और 'जल के चूहे' के मध्य संघर्ष होना असम्भव है । वह ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता था जिससे ब्रिटेन जर्मनी का विरोधी हो जाए। लेकिन इस समय तक जर्मनी में असाधारण गति से औद्योगिक प्रगति हो रही थी और जर्मनी के लिए हर हाल में उपनिवेश कायम करना आवश्यक हो गया था। इसलिए बिस्मार्क के प्रयास से प्रशान्त महासागर तथा अफ्रीका में जर्मनी के कुछ उपनिवेश कायम भी हुए। 
जर्मनी के औपनिवेशिक लालच को देखकर ब्रिटेन को कुछ घबराहट अवश्य हुई थी, किन्तु बिस्मार्क की कूटनीति ने ब्रिटेन की इस शंका को केवल दूर ही नहीं कर दिया, बल्कि जर्मनी के लिए उसने ब्रिटेन की सहानुभूति भी प्राप्त कर ली। 1884 ई. में बर्लिन में एक सम्मेलन हुआ,जहाँ औपनिवेशिक मसले पर दोनों देशों के मध्य एक समझौता हो गया। इस समझौते का आधार अत्यन्त ठोस था। जर्मनी से ब्रिटेन को पूरी सहानुभूति हो गई। 1885 ई. में ब्रिटिश संसद में बोलते हुए प्रधानमन्त्री ग्लैडस्टोन ने कहा था, "जर्मनी एक औपनिवेशिक शक्ति बनना चाहता है,तो मैं यही कहूँगा कि ईश्वर उसको सफलता दे।"
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इससे स्पष्ट होता है कि ब्रिटेन में जर्मनी के प्रादुर्भाव से किसी तरह के भय का संचार नहीं हुआ। यही कारण है कि शक्तिशाली जर्मनी के प्रादुर्भाव से ब्रिटेन की नीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और न ऐसे परिवर्तन की आवश्यकता ही समझी गई । इंग्लैण्ड को अपने सामुद्रिक बेड़े पर पूरा विश्वास था कि कोई भी यूरोपीय देश उस पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता। 1891 ई.के पश्चात् तक ब्रिटेन अपनी 'शानदार पृथक्करण की नीति' का अवलम्बन करता रहा।

इंग्लैण्ड द्वारा शानदार अलगाव की नीति अपनाने के कारण

इंग्लैण्ड ने निम्नलिखित कारणों से 'शानदार अलगाव की नीति' का अवलम्बनकिया

(1) इंग्लैण्ड की शक्तिशाली जल शक्ति-

इंग्लैण्ड की शक्तिशाली जल सेना शानदार अलगाव की नीति का अनुसरण करने का सबसे प्रमुख कारण थी। क्रीमिया युद्ध में इंग्लैण्ड को धन और जन की विशाल हानि उठानी पड़ी। इस घटना ने इंग्लैण्ड के राजनीतिज्ञों को यह विचार करने के लिए बाध्य कर दिया कि यूरोपीय समस्याओं में सम्मिलित होने के लिए एक शक्तिशाली स्थल सेना के साथ-साथ विशाल धनराशि की भी आवश्यकता है। ऐसी स्थिति में इंग्लैण्ड के राजनीतिज्ञों को इतना धन व जन लगाना बिल्कुल निरर्थक प्रतीत हुआ। ग्लैडस्टोन तथा लॉर्ड सैलिसबरी के विचार में इंग्लैण्ड के हितों की रक्षा के लिए समुद्री बेड़े को शक्तिशाली बनाए रखना पर्याप्त था और वे यूरोपीय संघर्षों में सम्मिलित होना केवल धन व जन की बर्बादी ही समझते थे।

(2) यूरोपीय राष्ट्रों की संरक्षण नीति-

औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड के उद्योगों में अनेक प्रकार की वस्तुओं का निर्माण होता था और इस माल की खपत यूरोपीय देशों में की जाती थी। औद्योगिक क्रान्ति का प्रभाव अन्य यूरोपीय देशों पर भी पड़ा और उन्होंने अपने देश के उद्योगों की रक्षा के लिए संरक्षण की नीति का अनुकरण किया। उन्होंने इंग्लैण्ड में निर्मित माल पर आयात कर में वृद्धि कर दी। इसके परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड में बने माल के मूल्य में वृद्धि हो गई और यूरोपीय देशों 19 में उसकी खपत कम हो गई । व्यापारिक लाभ न देखकर इंग्लैण्ड ने उसके प्रति रुचि लेनी कम कर दी। इस कारण भी इंग्लैण्ड के राजनीतिज्ञों ने यूरोप के प्रति उदासीनता का रुख अपनाया।

(3) इंग्लैण्ड में सामाजिक तथा राजनीतिक आन्दोलन - 

इंग्लैण्ड की जनता अपने सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकारों को पाने के लिए प्रयत्नशील थी। आयरलैण्ड की समस्या भी गम्भीर रूप धारण कर रही थी। इसके साथ ही इंग्लैण्ड अपने साम्राज्य-विस्तार के कार्य में भी व्यस्त था । इस प्रकार अपनी आन्तरिक समस्याओं में व्यस्त होने के कारण इंग्लैण्ड के राजनीतिज्ञ यूरोपीय झगड़ों में पड़कर अपनी समस्याओं में वृद्धि करना नहीं चाहते थे।

(4) यूरोप में विषम राजनीतिक वातावरण - 

इस समय यूरोप का राजनीतिक वातावरण बड़ा ही विषम था। यूरोपीय राष्ट्रों की भी किसी-न-किसी कारण से इंग्लैण्ड से शत्रुता थी। फ्रांस और इंग्लैण्ड की शत्रुता का कारण उपनिवेश थे। जर्मनी की शक्ति में निरन्तर वृद्धि होने के कारण इंग्लैण्ड उससे मित्रता करने में कतराता था, क्योंकि यदि इंग्लैण्ड और जर्मनी में मित्रता हो जाती, तो फिर जर्मनी की शक्ति को रोकने वाला कोई नहीं रहता और फिर जर्मनी यूरोप में अपनी मनमानी करता रहता। इस प्रकार इंग्लैण्ड ने यूरोपीय झगड़ों से दूर रहने में ही अपना हित समझा।

(5) यूरोपीय राष्ट्रों की गुटबन्दियाँ - 

1868 ई.से सन् 1902 तक ग्लैडस्टोन तथा लॉर्ड सैलिसबरी इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री रहे । इन दोनों ने अपने प्रधानमन्त्रित्व काल में 'शानदार अलगाव की नीति' का पूर्ण रूप से पालन किया। यद्यपि इन दोनों प्रधानमन्त्रियों को यह ज्ञात था कि यूरोपीय देश युद्ध की तैयारी कर रहे हैं, फिर भी उन्होंने उसकी उपेक्षा कर दी। रूस तथा फ्रांस ने पारस्परिक मित्रता करके द्विराज्य सन्धि की स्थापना की। इटली, ऑस्ट्रिया और जर्मनी ने मिलकर त्रिराज्य सन्धि बनाई । इंग्लैण्ड के किसी भी गुट में सम्मिलित हो जाने पर शक्ति सन्तुलन के बिगड़ जाने की सम्भावनाएँ थीं। अतः उसने इन गुटबन्दियों से दूर रहने में ही अपना हित समझा और अपनी 'शानदार अलगाव की नीति' का अनुसरण किया।

इंग्लैण्ड द्वारा शानदार अलगाव की नीति का परित्याग करने के कारण

इंग्लैण्ड की जनता के विचार में 'शानदान अलगाव की नीति' शानदार न होकर दुर्बल तथा कायरतापूर्ण नीति थी। अतः वहाँ पर उसके विरुद्ध जनमत तैयार हो रहा था। अतः इंग्लैण्ड को बाध्य होकर इस नीति का परित्याग करना पड़ा,क्योंकि इसका कारण यह था कि इस समय रूस और जर्मनी की शक्ति में तीव्र गति से वृद्धि हो रही थी। निम्नलिखित कारणों से इंग्लैण्ड को 'शानदार अलगाव की नीति' का परित्याग करना आवश्यक हो गया-

(1) बर्लिन-बगदाद रेलवे - 

जर्मनी धीरे-धीरे अपनी जल शक्ति में वृद्धि कर रहा था। जर्मनी ने टर्की में भी अपने प्रभाव का प्रसार करना आरम्भ कर दिया था। उसने बर्लिन-बगदाद रेलवे लाइन बिछाने की तैयारी भी आरम्भ कर दी थी। इससे इंग्लैण्ड के लिए अपने उपनिवेशों तथा पूर्वी साम्राज्य के प्रति चिन्तित होना स्वाभाविक हो गया था और उसने अलगाव की नीति का परित्यागं करने का निश्चय किया।

(2) अफ्रीकी संकट (बोअर युद्ध एवं फसोदा संकट) - 

इसी समय अफ्रीका में साम्राज्यवादी संघर्ष से उत्पन्न दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं। 1899 ई. में बोअर युद्ध प्रारम्भ हुआ। ब्रिटिश-डच किसान बोअरों के ट्रांसवाल गणराज्य को अपने दक्षिण अफ्रीकी साम्राज्य में मिला लेना चाहते थे और जब बोअरों ने इसका विरोध किया,तो. संघर्ष प्रारम्भ हो गया। इस युद्ध में यूरोपीय राज्यों, विशेषकर जर्मनी की सहानुभूति बोअर किसानों के साथ थी। इंग्लैण्ड को इस बात से ऐसा आभास होने लगा कि जर्मनी बोअरों को अपने पक्ष में कर रहा है । बोअर युद्ध को लेकर इंग्लैण्ड का विरोध अन्य यूरोपीय राष्ट्र भी कर रहे थे। अतः इंग्लैण्ड को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत बनाए रखने के लिए इस नीति का परित्याग करना आवश्यक था। लगभग इसी समय इंग्लैण्ड में एक और संकट गहराया। सूडान स्थित फसोदा को लेकर सितम्बर, 1898 से मार्च, 1899 के मध्य इंग्लैण्ड और फ्रांस के सम्बन्ध अत्यन्त तनावपूर्ण हो गए । इंग्लैण्ड का साथ देने वाला कोई नहीं था। परन्तु बाद में दोनों के मध्य समझौता हो गया और युद्ध की सम्भावना टल गई। इस स्थिति में इंग्लैण्ड को एक बार फिर कटु अनुभव हुआ और उसे अपनी पृथकता की नीति को त्यागना पड़ा।

(3) जर्मनी की बढ़ती हुई शक्ति

बिस्मार्क ने जर्मनी को प्रशा के नेतृत्व में एकीकरण करने के साथ-साथ उसे एक शक्तिशाली राष्ट्र बना दिया था। इस समय जर्मनी की स्थल सेना सर्वश्रेष्ठ समझी जाती थी। बिस्मार्क के प्रयासों के परिणामस्वरूप जर्मनी भी एक औद्योगिक राष्ट्र बन गया था और वह इंग्लैण्ड का कड़ा प्रतिद्वन्द्वी था। जर्मनी ने विदेशों में अपने उपनिवेश स्थापित करने आरम्भ कर दिए थे। 1882 ई. में उसने इटली और ऑस्ट्रिया के साथ सन्धि करके 'ट्रिपिल एलायन्स' की स्थापना कर ली थी। जर्मनी की शक्ति में निरन्तर वृद्धि से इंग्लैण्ड भी अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा था। अब इंग्लैण्ड अपने लिए इस अलगाव की नीति को हानिकारक समझने लगा था और उसने इस नीति का परित्याग करने का निश्चय किया।

(4) रूस की महत्त्वाकांक्षा -

बाल्कन युद्धों ने रूस और इंग्लैण्ड को एक-दूसरे का शत्रु बना दिया था। 1878 ई. में बर्लिन में रूस को इंग्लैण्ड के कारण ही अपमान सहन करना पड़ा था। अत: उसने पश्चिम के स्थान पर पूर्व की ओर अपना प्रसार करना आरम्भ कर दिया और उसके इस विस्तार से इंग्लैण्ड के भारतीय साम्राज्य के लिए संकट उत्पन्न हो गया था। रूस की निरन्तर बढ़ती हुई शक्ति से भयभीत होकर इंग्लैण्ड ने अलगाव की नीति का परित्याग करने में ही अपना कल्याण समझा।
इस प्रकार 19वीं शताब्दी के अन्त और 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में इंग्लैण्ड की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति बड़ी नाजुक हो गई थी। इंग्लैण्ड में इस विषय पर वाद-विवाद होने लगा। इंग्लैण्ड के उपनिवेश मन्त्री जोसेफ चेम्बरलेन पृथकता की नीति का अन्त करके इंग्लैण्ड को यूरोप के किसी गुट में सम्मिलित करने का समर्थन कर रहे थे । उनका तर्क यह था कि जब तक इंग्लैण्ड यूरोपीय राजनीति में पृथकता की नीति का अवलम्बन करता रहेगा, तब तक इंग्लैण्ड का औपनिवेशिक विस्तार नहीं हो सकता। अन्तत: चेम्बरलेन के विचारों की विजय हुई और ब्रिटिश सरकार ने तटस्थता की नीति का परित्याग करने का निश्चय किया।


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