फ्रांस की विदेश नीति - 1919 और 1939 के मध्य
MJPRU-BA-III-History II / 2020
प्रश्न 11. दो विश्व युद्धों के मध्य फ्रांस की विदेश नीति
की विवेचना कीजिए।
अथवा "सन् 1919 के पश्चात् यूरोपीय मामलों में सबसे महत्वपूर्ण
समस्या फ्रांस द्वारा सुरक्षा की माँग से सम्बन्धित थी।" इस कथन के सन्दर्भ
में सन् 1919 और 1939 के मध्य फ्रांस की
विदेश नीति का उल्लेख कीजिए।
अथवा ''प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् फ्रांस द्वारा किए गए सुरक्षा के प्रयासों का
वर्णन कीजिए।
उत्तर - प्रसिद्ध इतिहासकार ई. एच. कार ने लिखा
है कि “सन् 1919 के पश्चात् यूरोपीय
मामलों में सबसे प्रमुख समस्या फ्रांस द्वारा सुरक्षा की माँग से सम्बन्धित
थी।" यह कथन सही है। कारण यह है कि सन् 1919 की वर्साय सन्धि के अन्तर्गत जर्मनी को अपमानित
किया गया था और उसके अनेक क्षेत्र फ्रांस को भी मिल गए थे। इसके बावजूद फ्रांस यह
जानता था कि अभी भी जर्मनी की शक्ति उससे (फ्रांस से) अधिक है। दूसरे शब्दों में, जर्मनी को पराजित करने के बाद भी फ्रांस में
सुरक्षा की भावना का अभाव था। यह बात किसी से छिपी नहीं थी कि जर्मनी को मित्र
राष्ट्रों के सहयोग से ही पराजित किया जा सकता था। इन परिस्थितियों में प्रथम
विश्व युद्ध के पश्चात् फ्रांस की विदेश नीति का मुख्य आधार या सिद्धान्त अपनी
सुरक्षा की गारण्टी की खोज करना था।
फ्रांस द्वारा सुरक्षा की व्यवस्था सुनिश्चित
करने के लिए निम्नलिखित कार्य किए
(1) फ्रांस के प्रधानमन्त्री क्लीमेन्सो ने पेरिस
शान्ति सम्मेलन में फ्रांस की सुरक्षा करने के लिए जर्मनी को इतना कमजोर बनाने के
प्रयास किए कि वह फ्रांस के विरुद्ध सिर न उठा सके । इसी दृष्टि से क्लीमेन्सो ने
उक्त सम्मेलन में माँग की थी कि राइन नदी के दोनों तटों पर से जर्मनी का अधिकार
समाप्त किया जाए और यहाँ स्वतन्त्र राइनलैण्ड स्थापित किया जाए । राइन प्रदेश,जो फ्रांस व जर्मनी की सीमाओं से लगा था, को 15 वर्षों के लिए राष्ट्र संघ को दे दिया गया। परन्तु फ्रांस इससे सन्तुष्ट नहीं
था,क्योंकि वह समझता था कि 15 वर्षों के लिए जर्मनी राइन प्रदेश में
किलेबन्दी कर सकेगा।
(2) फ्रांस ने अपनी सुरक्षा की भावना से ही पेरिस
शान्ति सम्मेलन में राष्ट्र संघ की योजना पर विचार के दौरान यह सुझाव दिया था कि
संघ के पास अपनी एक सेना होनी चाहिए, जिससे वह राष्ट्र संघ के संविधान का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध उचित
कार्यवाही कर सके। यह दूसरी बात है कि अमेरिका व इंग्लैण्ड जैसे देशों ने इस सुझाव
को स्वीकार नहीं किया और इसके स्थान पर यह व्यवस्था की कि आवश्यकता के समय अन्य
सदस्य देश अपने सदस्य देशों को सैनिक सहायता देंगे।
(3) फ्रांस की इच्छा पर अमेरिका व इंग्लैण्ड ने जून, 1919 में उसे आश्वासन
दियो कि जर्मन आक्रमण के विरुद्ध दोनों देश उसकी सहायता करेंगे। परन्तु नवम्बर, 1919 में अमेरिका की
सीनेट ने वर्साय की सन्धि को ठुकरा दिया, फलस्वरूप अमेरिका यूरोपीय राजनीति से अलग हो गया । इस स्थिति में फ्रांस को
अपनी सुरक्षा के लिए राष्ट्र संघ के संविधान की धारा 10 का सहारा था, जिसमें कहा गया था कि "राष्ट्र संघ के सभी सदस्य यह प्रतिज्ञा करते हैं
कि वे बाहरी आक्रमण की स्थिति में - संघ की राजनीतिक स्वतन्त्रता और क्षेत्रीय
अखण्डता की सुरक्षा व सम्मान करेंगे।" इससे अलग संविधान की धारा 16 में भी व्यवस्था थी कि राष्ट्र संघ आक्रमणकारी
देशों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करेगा। परन्तु अमेरिका के राष्ट्र संघ के सदस्य न
बन सकने के कारण राष्ट्र संघ के इन उपबन्धों का कोई महत्त्व नहीं रहा और फ्रांस
अपनी सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील रहा।
फ्रांस द्वारा सुरक्षा के प्रयास
फ्रांस ने अपने को जर्मनी से असुरक्षित देखते
हुए जर्मनी की सीमा से जुड़े छोटे राज्यों
से सैनिक सन्धियाँ करना प्रारम्भ किया। फ्रांस ने 7 सितम्बर, 1920 को बेल्जियम के साथ
एक सैनिक समझौता किया। सितम्बर, 1920 में ही फ्रांस ने पोलैण्ड के साथ एक सैनिक
समझौता किया। इसी प्रकार जनवरी, 1924 में चेकोस्लोवाकिया से, जून, 1926 में रूमानिया से तथा फरवरी, 1927 में यूगोस्लाविया
के साथ भी फ्रांस ने सैनिक समझौते किए। इन समझौतों के कारण यूरोप के मानचित्र में
लघु गुट' का उदय हुआ,जो हिटलर के उत्कर्ष तक प्रभावी बना रहा।
सुरक्षा के सामूहिक प्रयास
उपर्युक्त समझौतों व प्रयासों के अलावा भी
फ्रांस की सुरक्षा के लिए यूरोपीय देशों ने कुछ प्रयास किए,जो स्वयं उनके भी हित में थे
(1) जेनेवा प्रोटोकॉल -
यह योजना राष्ट्र संघ की
देखरेख में बनी.। निःशस्त्रीकरण की समस्या से सम्बन्धित इस योजना पर जून, 1924 में जेनेवा में एक
अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। इसमें ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री मैक्डोनाल्ड ने कहा
था कि राष्ट्र संघ को मजबूत बनाने के लिए सामूहिक प्रयास किए जाने चाहिए। परन्तु
इंग्लैण्ड में सत्ता परिवर्तन हो जाने के कारण कंजरवेटिव पार्टी के प्रधानमन्त्री
चेम्बरलेन ने जेनेवा प्रोटोकॉल को स्वीकार नहीं किया और कहा कि इंग्लैण्ड का यह
नैतिक दायित्व नहीं है कि वह विश्व के किसी भाग में अशान्ति होने पर सैनिक सहयोग
करे। अतः जेनेवा प्रोटोकॉल असफल रहा।
(2) लोकार्नो समझौता -
स्विट्जरलैण्ड के लोकार्नो
नगर में हुए अक्टूबर, 1925 के इस सम्मेलन में
जर्मनी के प्रतिनिधियों को भी बुलाया गया था। इस सम्मेलन में राइन प्रदेश की
सुरक्षा से सम्बन्धित एक समझौते पर फ्रांस,इंग्लैण्ड,बेल्जियम,जर्मनी, "इटली, पोलैण्ड तथा चेकोस्लोवाकिया ने हस्ताक्षर किए थे। इसी समझौते के द्वारा जर्मनी
को राष्ट्र संघ का सदस्य बनाया गया । जर्मनी की खोई हुई प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई
और फ्रांस व जर्मनी की कटुता में कमी हुई। यह समझौता फ्रांस की सुरक्षा की माँग और
जर्मनी द्वारा वर्साय सन्धि में संशोधन की माँग के मध्य एक समन्वयक था।
(3) केलॉग-ब्रिआँ समझौता-
फ्रांस के विदेश मन्त्री
ब्रिआँ ने एक घोषणा में अमेरिका को अपनी इस नीति को त्यागने का आश्वासन दिया था, जिसका अमेरिका ने स्वागत किया। फलस्वरूप दो
बातों को लेकर पेरिस में समझौते का ड्राफ्ट तैयार हुआ-
(i) युद्ध की नीति का परित्याग किया जाएगा, और
(ii) परस्पर विवादों को आपसी बातचीत द्वारा
शान्तिपूर्ण ढंग से हल किया जाएगा। 27 अगस्त, 1928 को इन मुद्दों पर
समझौते के लिए यह सम्मेलन हुआ। 15 देशों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए । यद्यपि अमेरिका और रूस राष्ट्र संघ
के सदस्य नहीं थे, फिर भी उन्होंने इस
समझौते को स्वीकार कर लिया। यह दूसरी बात थी कि यह समझौता अधिक कारगर सिद्ध नहीं
हुआ, जैसा कि ई. एच. कार ने लिखा है, "यह समझौता कोई
अनुबन्ध पत्र नहीं था, यह तो मात्र
सिद्धान्तों का घोषणा-पत्र था। प्रत्येक राज्य अपने मामलों का स्वयं निर्णायक बन
गया। इस समझौते की व्याख्या करने और इसके प्रभावी क्रियान्वयन हेतु कोई व्यवस्था
नहीं की गई थी।”
(4) निःशस्त्रीकरण सम्मेलन (1932) -
निःशस्त्रीकरण की
समस्याओं का समाधान करने के लिए यह सम्मेलन फरवरी, 1932 में जेनेवा में हुआ था। इसमें जर्मनी के शासक
हिटलर ने माँग की थी कि जर्मनी को अन्य देशों की सैनिक शक्ति के बराबर सेना रखने
का अधिकार दिया जाए। फ्रांस ने इसका विरोध किया। फलस्वरूप सम्मेलन सफल नहीं हो
सका। यही नहीं, हिटलर ने सन् 1933 में राष्ट्र संघ की
सदस्यता से भी त्याग-पत्र दे दिया। सन् 1936 में उसने वर्साय सन्धि व लोकार्नो समझौते का
उल्लंघन करके जर्मन सेना को राइन प्रदेशों में भेज दिया।
(5) फ्रांस के रूस और इटली से सम्बन्ध -
फ्रांस और
रूस, दोनों देशों के साथ हिटलर की शत्रुता थी। हिटलर
रूस में भी अपने साम्राज्य का विस्तार चाहता था। सन् 1932 में फ्रांस और रूस
ने तटस्थता की सन्धि पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद सन् 1934 में फ्रांस ने रूस
को राष्ट्र संघ की सदस्यता दिलाने में सहयोग दिया । सन् 1935 में दोनों देशों के
मध्य एक अनाक्रमण समझौता भी हुआ। फ्रांस ने सन् 1935 में इटली से भी सन्धि की। इसीलिए इटली द्वारा
अबीसीनिया पर आक्रमण करने के समय फ्रांस ने इटली के विरुद्ध राष्ट्र संघ को पूर्ण
सहयोग नहीं दिया। फ्रांस ने इंग्लैण्ड । के प्रति भी तुष्टिकरण की नीति अपनाई। इन
सबसे हिटलर का उत्साह बढ़ता गया और राष्ट्र संघ की प्रतिष्ठा में कमी आती गई।
फ्रांस के ऐसे रवैये से सामूहिक सुरक्षा का सिद्धान्त नष्ट हो गया। हिटलर ने इसका
लाभ उठाते हुए वर्साय की सन्धि को । ठुकराते हुए सन् 1936 में राइन प्रदेश
में अपनी सेनाएँ भेज दीं। कालान्तर में फ्रांस अपनी सुरक्षा के भय से हिटलर के
प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाने लगा।
स्पष्ट है कि फ्रांस हर तरह से अपनी सुरक्षा के
प्रति चिन्तित था और इसी आधार पर उसकी विदेश नीति चलती रही, उस समय तक जब तक कि सन् 1939 में द्वितीय विश्व
युद्ध प्रारम्भ नहीं हुआ।
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