मौर्यकालीन स्थापत्य एवं कला का विकास


प्रश्न 6. मौर्यकालीन स्थापत्य एवं कला के विकास पर प्रकाश डालिए। MJPRU-B.A. III, History III
उत्तर - भारतीय कला के इतिहास का प्रादुर्भाव सिन्धु घाटी सभ्यता से होता है, किन्तु सिन्धु घाटी सभ्यता के पश्चात् कलात्मक कृतियाँ मौर्य काल की ही मिलती हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता व मौर्य काल के मध्य के युग को भारतीय कला का अन्धकार युग माना जाता है। इस अन्धकार युग के पश्चात् मौर्य काल भारतीय कला के स्वर्णिम काल के रूप में उदित हुआ। मौर्य शासकों ने कला के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया और अपने संरक्षण में कला को प्रश्रय दिया। मौर्यकालीन वैभव, आत्म-विश्वास और शक्तिशाली राजसत्ता का प्रतिबिम्ब तत्कालीन कला में भी झलकता है। यही कारण है कि अनेक विद्वान् भारतीय कला का इतिहास मौर्य काल से ही मानते हैं।
मौर्यकालीन स्थापत्य एवं कला का विकास

बी. जी. गोखले ने भी इसी मत को स्वीकार करते हुए लिखा है, "मौर्य काल से पूर्व की भारत की कला का इतिहास भाषा की दृष्टि से एक सादे पृष्ठ और पुरातत्व की दृष्टि से एक खाली अलमारी की भाँति है।"
श्री लूनिया के अनुसार, "मौर्य कला भारतीय कला के इतिहास में युग-प्रवर्तक है। हमारे पास ऐसे कोई प्राचीन अवशिष्ट स्मारक नहीं जिनका सम्बन्ध मौर्यों से पूर्व की भारतीय कला से हो । मौर्य सम्राट् असाधारण निर्माता थे।"....
चन्द्रगुप्त के भवन, राजप्रासाद और स्मारक लकड़ी के होने के कारण नष्ट हो गए। अशोक के पाषाण स्मारक ही काल के क्रूर हाथों से बच पाए हैं और भारतीय सभ्यता की सबसे पूर्व की कला के उन नमूनों में से हैं जिनकी अब तक  खोज हो पाई है। अशोक के पूर्व के भवन प्राय: लकड़ी के ही बनाए जाते थे। साधारणतया पाषाण का प्रयोग अशोक के राज्यकाल से प्रारम्भ होता है। अशोकयुगीन भारतीय पाषाण कृतियों की विशिष्टता कला के सुविकसित रूप की  ओर संकेत करती है, जिसके लिए अनेक सदियों पूर्व से ही शिल्पियों का सतत् प्रयास होता रहा होगा। भास्कर कला ने जो पूर्णता इस युग में प्राप्त की, उससे प्रकट होता है कि इस कला के निरन्तर और सतत् विकास का सुदीर्घ युग रहा होगा। वस्तुतः कतिपय यूरोपीय विद्वानों की तो यह धारणा हो चली थी कि मौर्य युग के पश्चात् भारतीय कला का इतिहास उसके पतन का ही इतिहास है। मौर्य काल में कला के निम्नलिखित स्मारक बने



(1) राजप्रासाद - 

मौर्ययुगीन शासकों के राजप्रासाद अत्यन्त विशाल और भव्य होते थे। पाटलिपुत्र नगर के मध्य में स्थित चन्द्रगुप्त मौर्य के राजप्रासाद के सम्बन्ध में एरियन ने लिखा है कि चन्द्रगुप्त का राजभवन एशिया के प्रसिद्ध सूसा (Susa) और एकवेतन (Ekbatan) के भवनों से कहीं अधिक शानदार था। यह प्रासाद वर्तमान पटना के समीप कुम्रहार नामक ग्राम के पास था। कुम्रहार में इस प्रासाद के सभा भवन के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनसे इसकी भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। सभा भवन में अनेक पाषाण स्तम्भ थे, जिनमें से अब तक करीब 40 स्तम्भ मिले हैं। इस सभा भवन के फर्श व छत्त काष्ठ (लकड़ी) के थे। सभा भवन की लम्बाई 140 फीट व चौड़ाई 120 फीट थी। प्रासाद में सुरक्षा आदि की भी व्यवस्था थी। राजा का शयनागार इस प्रकार से बनाया गया था कि न तो वहाँ अग्नि का भय था और न ही सर्प आदि प्रवेश कर सकते थे। राजप्रासाद के भवन भी बलुआ पत्थर के बने हुए थे तथा उन पर चमकदार पॉलिश की गई थी। चीनी यात्री फाह्यान ने मौर्य प्रासाद के विषय में लिखा है, "यह प्रासाद मानव कृति नहीं है, वरन् देवों द्वारा निर्मित है। प्रासाद के स्तम्भ पत्थरों से बने हुए हैं और उन पर अद्वितीय चित्र बने हुए हैं।" इस राजप्रासाद की प्रशंसा करते हुए डॉ. विन्ध्येश्वरी प्रसाद सिंह ने लिखा है, "पाषाण स्तम्भों से सुशोभित यह मौर्यकालीन सभा भवन भारतीय पुरातत्त्व की दृष्टि से सबसे प्राचीन है। इसके स्तम्भ अत्यन्त सुन्दर, सुडौल, सुस्निग्ध और गोलाकार हैं। भारतीय स्थापत्य कला मौर्य काल में ही कितनी प्रगति कर चुकी थी, इस सभा भवन के अवशेषों से इसका अनुमान लगाया जा सकता है।"

(2) नगर-निर्माण -

मौर्य सम्राट अशोक ने अनेक नगरों की स्थापना की। उसने कश्मीर में श्रीनगर व नेपाल में ललितपट्टन की स्थापना की थी। नगरों की सुरक्षा के लिए ऊँची-ऊँची दीवारें बनवाई गई थीं। इनमें बुर्ज और विशाल द्वार 24 8 0-DineshKnowledge FLLS,2020 होते थे। मौर्यों की राजधानी पाटलिपुत्र के विषय में मेगस्थनीज ने लिखा है कि इसका निर्माण एक समानान्तर चतुर्भुज के रूप में किया गया था, जिसकी लम्बाई 8 मील और चौड़ाई 1 मील थी। नगर के चारों ओर लकड़ी की दीवार बनी हुई थी, जिसके बीच-बीच में तीर चलाने के लिए छिद्र बने हुए थे। दीवार के चारों ओर एक खाई थी, जो 60 फीट गहरी और 600 फीट चौड़ी थी। नगर में आने-जाने के लिए 64 प्रवेश द्वार थे। दीवारों पर 570 वुर्ज थे। यह नगर गंगा व सोन नदियों के संगम पर स्थित था तथा सुव्यवस्थित ढंग से बसा हुआ था।

(3) गुफाएँ

 मौर्य काल में वास्तुकला के अन्तर्गत एक नवीन शैली का प्रादुर्भाव हुआ, जिसका जन्मदाता अशोक था। अशोक ने भिक्षुओं के निवास के लिए पाषाणों को काटकर गुफाओं का निर्माण करवाया । इस क्षेत्र में अशोक का  अनुसरण उसके पौत्र दशरथ ने भी किया। उसने भी गुफाओं का निर्माण करवाया। इन गुफाओं की चमक उल्लेखनीय है। गया के समीप अशोक ने बाराबर की पहाड़ियों में चार गुफाओं का निर्माण करवाया। इन गुफाओं में प्राचीनतम गुफा 'दुदामा' है, जिसमें अशोक का एक अभिलेख भी है, जिससे ज्ञात होता है कि यह गुफा अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 12वें वर्ष में भिक्षुओं को समर्पित कर दी थी। इस गुफा में दो कमरे हैं। एक कक्ष गोल है, जिसकी छत अर्द्ध-वृत्ताकार है, उसके बाहर का मुखमण्डप आयताकार है, किन्तु छत गोलाकार है। अशोक द्वारा बनवाई गई एक अन्य गुफा 'कर्ण चौपाल' है। यह आयताकार है तथा इसकी छत मेहराबदार है।
अशोक के पौत्र दशरथ ने नागार्जुनी पहाड़ियों में तीन गुफाओं का निर्माण करवाया, जिनमें उसके लेख भी हैं। इनमें सबसे प्रमुख व बड़ी 'गोपी गुफा' है। यह एक लम्बे कमरे के समान है, जिसकी छत मेहराबदार है। गोपी गुफा 40 फीट 5 इंच लम्बी, 17 फीट 2 इंच चौड़ी6 फीट 6 इंच ऊँची है। नागार्जुनी पर्वत की शेष दो गुफाएँ छोटे कमरों के समान हैं। इन सभी गुफाओं में मौर्यकालीन स्तम्भों के समान ही चमक है, जिससे इनका मौर्यकालीन होना प्रमाणित होता है।

(4) स्तूप व चैत्य - 

स्तूप गोल आकृति के आधार पर स्थित पाषाण अथवा ईंटों का ठोस गुम्बद के आकार का होता था। बुद्ध या अन्य महान् बौद्ध सन्तों के अवशिष्ट स्मारकों पर समाधि बनाना अथवा किसी पवित्र स्थान को चिरस्मरणीय बनाना स्तूप निर्माण का प्रमुख उद्देश्य होता था। अतएव स्तूप को एक धार्मिक पवित्रता प्राप्त हो गई थी। अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने अफगानिस्तान और भारत में लगभग 84,000 स्तूपों का निर्माण करवाया था। सातवीं शताब्दी में जब ह्वेनसांग भारत आया, तो उसने भ्रमण करते हुए अशोक के नौ सौ वर्षों बाद भारत और अफगानिस्तान में अनेक स्तूप देखे थे। उसने तक्षशिला, श्रीनगर, थानेश्वर, मथुरा, कन्नौज, कौशाम्बी, श्रावस्ती, वाराणसी, वैशाली, गया, कपिलवस्तु, कुशीनगर आदि में अशोक द्वारा निर्मित स्तूप देखे थे। परन्तु आज उनमें से बहुत से नष्ट हो चुके हैं। इनमें से कुछ, जो बाद में विस्तृत किए गए थे और जिनके चतुर्दिक बाड़ (Railing) लगाई गई थी, आज भी विद्यमान हैं। इनमें से सर्वाधिक प्रसिद्ध मध्य प्रदेश में विदिशा से कुछ दूर भोपाल के निकट साँचो का विशाल स्तूप है। इस वर्तमान स्तूप का व्यास 36-50 मीटर, ऊँचाई 23-25 मीटर और विशाल पाषण की चतुर्दिक बाड़ 3.30 मीटर ऊँची है। सर जॉन मार्शल के अनुसार अशोक द्वारा ईंटों का बनवाया हुआ मूल स्तूप का स्वरूप वर्तमान स्तूप का सम्भवतः आधे से अधिक नहीं था। मूल स्तूप को बाद में विस्तृत किया गया और शुंग काल में तोरण द्वार जोड़े गए। प्राचीन छोटी बाड़ के स्थान पर वर्तमान में पाषाण की बाड़ बनवाई गई। अशोक के मूल स्तूपों की भी यही दशा हुई। बोधगया में अशोक ने एक चैत्य (बौद्ध मन्दिर) का निर्माण करवाया था। उसके नष्ट हो जाने पर बाद में वहाँ बौद्ध मन्दिर निर्मित किया गया, जो आज भी विद्यमान है।

(5) स्तम्भ -

अशोक द्वारा बनवाए गए स्तम्भ मौर्यकालीन कला के सर्वोत्तम नमूने हैं, जो कि उसने 'धम्म' के प्रचार के लिए बनवाए थे। उत्तर प्रदेश में सारनाथ, प्रयाग, कौशाम्बी तथा नेपाल की तराई में लुम्बिनी और निग्लिवा में अशोक के बनवाए स्तम्भ मिले हैं। इन स्थानों के अतिरिक्त साँची, लौरिया, नन्दनगढ़ आदि स्थानों पर भी अशोक के स्तम्भ हैं। ये स्तम्भ एकाश्मक (Monolith) हैं तथा चुनार के बलुआ पत्थर से निर्मित हैं। प्रत्येक स्तम्भ की ऊँचाई 40-50 फीट है। चुनार की चट्टानों से पत्थरों को काटकर निकालना, उन्हें स्तम्भों का स्वरूप देना तथा विशाल स्तम्भों को देश के विभिन्न भागों में पहुँचाना, निस्सन्देह शिल्पकला तकनीक का एक अनुपम उदाहरण है। इस विषय में
डॉ. स्मिथ ने लिखा है, "इन स्तम्भों का निर्माण, स्थानान्तरण और स्थापना मौर्ययुगीन शिल्प आचार्यों तथा शिला तक्षकों की बुद्धि और कुशलता के अद्भुत प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।" यही कारण है कि स्मिथ ने आगे लिखा है कि अशोक के समय में कला श्रेष्ठता के उच्चतम शिखर पर पहुँच गई थी। अशोककालीन इन  स्तम्भों पर अत्यधिक चमकीली पॉलिश है। ये स्तम्भ इतने चमकौले हैं कि अनेक विद्वानों ने इन स्तम्भों को धातु का बना हुआ समझा। भण्डारकर महोदय ने लिखा । कि " ऐसे विशालकाय पाषाण खण्डों को सच्चा काटकर, साफ करके, उनके गन्दर गोल स्तम्भ बनाना और उसे दर्पण की तरह ऐसा चमका देना कि आधुनिक मिस्त्री भी उस पर विस्मय-विमुग्ध रह जाएँ, कठिन एवं नाजुक कार्य था।"
प्रत्येक स्तम्भ प्रमुखतया निम्न तीन भागों में विभाजित है-(i) मुख्य स्तम्भ, (ii) घण्टाकृति, व (iii) शीर्ष भाग तथा पशु आकृतियाँ
स्तम्भों का कुछ भाग पृथ्वी में गढ़ा हुआ है तथा उस भाग पर मोर बने हुए हैं। पृथ्वी के ऊपर का भाग गोल तथा ऊपर की ओर क्रमश: गोलाई कम होती गई है। स्तम्भों की औसत  लम्बाई 40 फीट तथा व्यास 2 फीट 7 इंच के लगभग है।

(6) मूर्तिकला एवं लोक कला-

विभिन्न स्थानों पर हुए उत्खननों से मौर्यकालीन अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनसे पता चलता है कि मौर्य काल में मूर्तियाँ बनाने की कला अत्यन्त विकसित थी। इस विषय में स्मिथ ने लिखा है, "मौर्य काल में पत्थर तराशने की कला पूर्णता को प्राप्त हो चुकी थी और उसके द्वारा ऐसी कृतियाँ निर्मित हुई थीं जैसी सम्भवत: इस 20वीं शताब्दी में भी बनना कठिन है।" ,
मौर्यकालीन मूर्तिकला में पशुओं की विभिन्न मूर्तियों का उल्लेख करना आवश्यक है। इन मूर्तियों के कलाकारों ने अद्भुत कृतियाँ प्रस्तुत की। सारनाथ के स्तम्भ के सिंहों की सजीवता तथा धौली का हाथी मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। पशुओं की मूर्तियों के अतिरिक्त दीदारगंज (पटना) से प्राप्त यक्षिणी की मूर्ति मूर्तिकला का उत्कृष्ट नमूना है। इस चामर ग्राहिणी यक्षिणी की मूर्ति 6 फीट 9 इंच लम्बी है। इस यक्षिणी का मुख अत्यन्त सुन्दर है, अंग-प्रत्यंग सुगठित व मुद्रा दर्शनीय है। इस मूर्ति के अतिरिक्त भी अनेक यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियाँ विदिशा, कलिंग और पश्चिमी सूपरिक आदि स्थानों से प्राप्त हुई हैं। पाटलिपुत्र के भग्नावशेषों में जैन तीर्थंकरों की अनेक मूर्तियाँ मिली है, जो कि खण्डित अवस्था में हैं तथा इनके केवल धड़ ही प्राप्त होते हैं, जिन पर हार, मेखला आदि आभूषण बने हुए हैं। इसी प्रकार मौर्यकालीन मिट्टी के ठीकरों का मूर्तन असाधारण सुन्दर हुआ है। साँचे में ढले ठीकरों पर अभिराम नारीमूर्ति रेखाओं के द्वारा अपनी नैसर्गिक छटा में आकलित हुई है। वह केश की विविध वेणियों का संभार लिए सूक्ष्म परिधान सहित रेखान्वित हुई है। मौर्य काल की ऐसी मूर्तियाँ पटना, अहिच्छत्र, मथुरा, कौशाम्बी, गाजीपुर आदि स्थानों के भग्नावशेषों में बड़ी संख्या में पाई गई हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि मौर्यकालीन मूर्तिकार मूर्तिकला में सिद्धहस्त थे। मूर्तियों की सजीवता व सुन्दरता से प्रमाणित होता है कि इस क्षेत्र में मौर्य काल में अभूतपूर्व उन्नति हुई थी।

(7) प्रेक्षागृह -

मौर्य काल आमोद-प्रमोद के लिए प्रसिद्ध था। विभिन्न प्रकार के उत्सवों और समारोहों के अतिरिक्त लोग अभिनय, नाटक आदि में भी रुचि रखते थे। भास के नाटक और कौटिल्य कृत 'अर्थशास्त्र' में उल्लिखित प्रेक्षागृहों (नाट्य गृहों) से स्पष्ट है कि मौर्य काल में रंगशाला और नाट्य गृहों का निर्माण हो चुका था तथा अभिनय कला विकसित हो चुकी थी। आधुनिक मध्य प्रदेश में सरगुजा की रायगढ़ की पहाड़ियों को काटकर बनाए गए गुह भवनों में प्रेक्षागृहों के नमूने हैं। इनमें ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के कुछ ऐसे शिलालेख हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि गुहा गृहों में नाटक होते थे।

निष्कर्ष - 

मौर्यकालीन कला निस्सन्देह भारतीय संस्कृति की अनमोल धरोहर है। मौर्य कला के अन्तर्गत काष्ठ के स्थान पर पाषाणों के प्रयोग ने कला को स्थायी रूप प्रदान किया है। बौद्ध धर्म के विस्तार में भी मौर्यकालीन कला का प्रमुख योगदान रहा। किन्तु फिर भी मौर्यकालीन कला जन-साधारण पर कोई स्थायी प्रभाव न छोड़ सकी, क्योंकि यह जन-साधारण की कला न होकर मुख्यतया राजकीय कला थी, जिसको सम्राट अशोक का संरक्षण प्राप्त था। यही कारण है कि इतनी गौरवशाली वृत्ति, स्मारक आकृति और सुपरिष्कृत रूप होते हुए भी मौर्य कला भारतीय कला के इतिहास में एक लघु अध्याय के रूप में रह गई। मौर्य कला ने भारतीय कला के विकास में पाषाण के प्रयोग के अतिरिक्त कोई अन्य प्रमुख योगदान नहीं दिया। इसी कारण कामरिश ने लिखा है, "भारतीय - शिल्पकला के क्षेत्र में इसका महत्त्व बहुत कम ही है।" मौर्य स्तम्भों व उनकी पशु आकृतियों के समान ही मौर्य कला निभृत एकान्त में अकेली खड़ी है



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