भारत में समाचार-पत्र तथा पत्रकारिता का इतिहास - 1550 ई.
प्रश्न 15. आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद के अभ्युदय में प्रेस की
भूमिका का परीक्षण कीजिए।
अथवा ''ब्रिटिश सरकार की प्रेस के प्रति नीति
की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
अथवा ''भारत में समाचार-पत्र तथा पत्रकारिता के विकास का विवरण दीजिए।
अथवा ''आधुनिक भारत में प्रेस व मुद्रण कला
के क्रमिक विकास का विवरण दीजिए।
भारत में समाचार-पत्र तथा पत्रकारिता के विकास
उत्तर - भारत में समाचार-पत्रों का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। भारत में छापाखाना उद्योग को स्थापित करने का श्रेय पुर्तगालियों को दिया जाता है। कुछ पुर्तगाली धार्मिक मिशनरियों ने धर्म के प्रचार हेतु यूरोप से दो प्रेस मँगवाए, जो 1550 ई. में भारत पहुँचे। भारत में सर्वप्रथम प्रेस गोवा में लगाया गया और ईसाई धर्म की पुस्तकें मलयालम भाषा में छपी, जो सेण्ट फ्रांसिस जेवियर ने लिखी थीं।
भारत में पहली पुस्तक 1557 ई. में छपी। दूसरा प्रेस 1578 ई. में तमिलनाडु के निनेवेली जिले के पौरीकील नामक स्थान पर स्थापित किया गया। इससे भी मिशनरियों की धार्मिक पुस्तकें ही प्रकाशित होनी आरम्भ हुईं। तीसरा प्रेस मालाबार के विपिकोटा में पादरियों ने 1602 ई. में स्थापित किया। 1616 ई. में पुर्तगालियों ने बम्बई में एक प्रेस स्थापित की। इसके पश्चात् 1679 ई. तक पुर्तगालियों द्वारा फिर किसी प्रेस की स्थापना का पता नहीं चलता, परन्तु इसी वर्ष त्रिचूर के दक्षिण में अम्बलकाड में एक और प्रेस लगाया गया, जिससे 'कोचीन-तमिल शब्दकोश' प्रकाशित हुआ, जो एक साहित्यिक कार्य था।
ईसाई पादरियों से उत्साहित होकर भारतीयों ने भी अपने धर्मग्रन्थ मुद्रित और प्रकाशित करने का साहस किया। 1662 ई. में भीमजी पारिख ने गवर्नर-जनरल से प्रार्थना की कि हिन्दू धर्मग्रन्थ छापने के लिए बम्बई में छापाखाना लगाने की अनुमति दी जाए।
इस कार्य हेतु उन्होंने मुद्रण विशेषज्ञ हेनरी वालेस को इंग्लैण्ड से बुलाया। 1772 ई. में तंजौर जिले के तिनकोवर नामक स्थान पर डेनमार्क के पादरियों ने एक प्रेस खोला। इसमें पहले रोमन टाइप में छपाई होती थी। इस प्रेस में सर्वप्रथम 'न्यू टेस्टामेण्ट' तमिल भाषा में छपी। र भारत में सबसे पहला समाचार-पत्र निकालने का प्रयास ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एक असन्तुष्ट कर्मचारी विलियम वोल्ट्स ने 1776 ई. में किया, लेकिन वह असफल रहा। 1772 ई. में अंग्रेजों ने मद्रास में एक छापाखाना स्थापित किया और 1779 ई. में कलकत्ता में भी एक छापाखाना खोला, जो चार्ल्स विलकिन्स के प्रबन्धाधीन था। परन्तु यह एक आश्चर्य था कि 1780 ई. से पूर्व भारत में कोई समाचार-पत्र नहीं निकलता था। यूरोपीय समाज केवल इंग्लैण्ड से निकलने वाले समाचार-पत्रों पर ही निर्भर था। भारत में प्रथम समाचार-पत्र निकालने का श्रेय जेम्स ऑगस्टस हिक्की को दिया जाता है, जिसने पहली बार 1780 ई. में 'बंगाल गजट' का प्रकाशन किया।
उसने गवर्नर-जनरल, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों और कम्पनी के कर्मचारियों के दोषों को प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया, जिसके कारण 1782 ई. में उसके समाचार-पत्र को बन्द करा दिया गया। परन्तु उसके पश्चात् भारत में कई समाचार-पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ--1784 ई. में 'कलकत्ता गजट', 1785 ई. में 'ओरिएण्टल मैगजीन ऑफ कलकत्ता', 1788 ई. में 'मद्रास कैरियर', 1789 ई. में 'बम्बई हैरॉल्ड' आदि। इन समाचार-पत्रों ने कम्पनी या उसके अधिकारियों के कार्यों की आलोचना से अपने को अलग रखा। प्रारम्भ में इन समाचार-पत्रों में कोई पारस्परिक प्रतिस्पर्धा नहीं थी। वे पारस्परिक समझौते द्वारा अलग-अलग दिन भी प्रकाशित कर दिए जाते थे, यद्यपि उनका प्रकाशन स्थल एक ही होता था। इनकी प्रतिलिपियों की संख्या भी अधिक नहीं होती थी। अधिकांशत: इनका वितरण अंग्रेज़ों या ऐंग्लो-इण्डियन तक ही सीमित था।
1799 ई. में लॉर्ड वेलेजली ने इन समाचार-पत्रों पर कुछ अंकुश
लगाए। उसे फ्रांसीसी आक्रमण का भय था, इस कारण वह नहीं चाहता था कि कोई ऐसा समाचार छपे जिससे भारतीय नरेशों और नागरिकों
की दृष्टि में कम्पनी की प्रतिष्ठा कम हो। उसने निश्चित किया कि प्रत्येक समाचार-पत्र
की प्रतिलिपि पर उसके मालिक, सम्पादक
और मुद्रक का नाम दिया जाना चाहिए तथा प्रत्येक समाचार की प्रतिलिपि छपने से पहले सरकार
के सेक्रेटरी को देनी चाहिए। कानून तोड़ने वालों के लिए देश निकाला दिए जाने की व्यवस्था
की गई। 1807 ई. में इस कानून के
अन्तर्गत पुस्तकों, मैगजीन,
पोस्टर आदि को भी सम्मिलित कर लिया गया।
1818 ई. में ब्रिटिश व्यापारी जेम्स
सिल्क बकिंघम ने 'कलकत्ता जनरल'
का सम्पादन किया। बर्किंघम ही पहला प्रकाशक
था जिसने प्रेस को जनता के प्रतिबिम्ब के रूप में प्रस्तुत किया तथा उन्हें ही आधुनिक
प्रेस का जन्मदाता माना जाता है।
20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारतीयों ने भी समाचार-पत्रों के प्रकाशन की दिशा में कदम बढ़ाया। 1816 ई. में गंगाधर भट्टाचार्य ने 'बंगाल गजट' नामक एक साप्ताहिक समाचार-पत्र अंग्रेजी में निकालना प्रारम्भ किया। 1818 ई. में मार्शमैन की देखरेख में स्थानीय भाषा बंगाली में सबसे पहले समाचार-पत्र "दिग्दर्शन' का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। परन्तु वह अधिक समय तक नहीं चल पाया। उसी वर्ष मार्शमैन द्वारा आरम्भ किया गया एक साप्ताहिक पत्र समाचार दर्पण' काफी समय तक प्रकाशित होता रहा। 1821 ई. में राजा राममोहन राय के प्रोत्साहन से एक साप्ताहिक पत्र 'संवाद कौमुदी' आरम्भ हुआ।
स्वयं राजा राममोहन राय ने फारसी भाषा में
'मिरात-उल-अखबार' और अंग्रेजी में 'ब्रह्मनिकल मैगज़ीन' का प्रकाशन प्रारम्भ किया। उनके विचारों का विरोध करने
के लिए कुछ लोगों ने 1822 ई. में
'समाचार चन्द्रिका' नामक एक समाचार-पत्र प्रारम्भ किया। इस प्रकार
प्रादेशिक भारतीय भाषाओं में भी समाचार-पत्र और पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ हुआ। प्रारम्भ
में इन पत्रों में धार्मिक और सामाजिक चर्चा अधिक की जाती थी, परन्तु बाद में इनमें राजनीतिक समस्याएँ और अंग्रेज
अधिकारियों से सम्बन्धित चर्चाएँ भी छपनी प्रारम्भ हुईं।
1823 ई. में जॉन एडम्स ने 'अनुज्ञप्ति नियम अधिनियम' (The
Licensing Regulation Act) पारित किया।
इस अधिनियम के अनुसार सरकार ने निश्चर किया कि प्रत्येक समाचार-पत्र के प्रकाशन के
लिए सरकार से अनुमति ली जाए ऐसा न करने वाले के लिए ₹400 जुर्माना और उसके प्रेस को जब्त करने के व्यवस्था की
गई। गवर्नर-जनरल को अधिकार दिया गया कि वह किसी भी समर किसी भी समाचार-पत्र के छापने
के अधिकार को समाप्त कर सकता था। राज राममोहन राय ने इन कानूनों का विरोध किया,
परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला।
ब्रिटिश शासनकाल में लॉर्ड विलियम बेण्टिंक ऐसा पहला गवर्नर-जनरल थ जिसने प्रेस की स्वतन्त्रता के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया। इसके पश्चात कार्यवाहक गवर्नर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ ने समाचार-पत्रों पर से प्रतिबन्ध हटाकर उन्हें मुक्ति दिलाई। उन्हें भारतीय समाचार-पत्रों का मुक्तिदाता भी कहा जाता है। प्रतिबन्धों के हटने के परिणामस्वरूप 1856 ई. तक भारत में समाचार-पत्रों का अत्यधिक विकास हुआ और उनकी संख्या में बहुत वृद्धि हुई। इसी समय बम्बई से गुजराती भाषा में दो समाचार-पत्रों 'रफ्त-गोफ्तार' और 'अखबार-ए-सौदागर' का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इनमें से 'रफ्त-गोफ्तार' का सम्पादन उदारवादी नेता दादाभाई नौरोजी ने किया था। 1857 ई. में विद्रोह के कारण सरकार ने समाचार-पत्रों पर पुनः कुछ प्रतिबन्ध लगाए। समाचार-पत्रों को पुनः लाइसेंस (अनुज्ञा-पत्र) लेने के लिए बाध्य किया गया। सरकार को उनके लाइसेंसों को समाप्त करने का असीमित अधिकार दिया गया। परन्तु 1857 ई. कों लाइसेंसिंग कानून केवल एक वर्ष के लिए था। इस कारण 1867 ई. के रजिस्ट्रेशन कानून के द्वारा लाइसेंस व्यवस्था को स्थायी किया गया।
1870 ई. में सरकार ने प्रेस सम्बन्धी नियमों को कुछ और कठोर किया और उनको 'भारतीय दण्ड संहिता' में सम्मिलित कर लिया। इसके अतिरिक्त इसी समय में सरकार का समर्थन करने हेतु अंग्रेजों द्वारा कुछ समाचार-पत्र आरम्भ किए गए। इनमें 1861 ई. में बम्बई से 'टाइम्स ऑफ इण्डिया', 1865 ई. में इलाहाबाद से 'पॉयनियर', 1868 ई. में मद्रास से 'मद्रास मेलं', 1875 ई. में कलकत्ता से 'स्टेट्समैन' और 1876 ई. में लाहौर से 'सिविल एण्ड मिलिटरी गजट' आदि प्रमुख थे। .. 1857 ई. के विद्रोह के पश्चात् भारत में नस्लवाद की भावना तीव्र हो गई। सरकार समर्थक तथा स्वदेश समर्थक समाचार-पत्रों की संख्या में वृद्धि हुई। भारतीयों ने अंग्रेजी भाषा में भी समाचार-पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ किया और उनमें से कुछ का स्वरूप राष्ट्रीय होने लगा। भारतीयों द्वारा अंग्रेजी में छापा गया प्रथम और प्रमुख समाचार-पत्र 'हिन्दू पैट्रियट' था।
बंगाली भाषा के समाचार-पत्रों में 'अमत बाजार पत्रिका', 'शोम प्रकाश', 'बंगवासी' और 'संजीवनी' प्रमुख थे। 'अमृत बाजार पत्रिका' को 1878 ई. से अंग्रेजी भाषा में भी छापा गया। मद्रास में 'हिन्द' अंग्रेजी भाषा में छपने वाला प्रमुख समाचार-पत्र बना। 1878 ई. में लाहौर से 'दिव्यन' का प्रकाशन आरम्भ हुआ। 1879 ई. में झण्डयन हेरॉल्ड' का प्रकाशन प्रारम्भ हआ, जो उत्तर प्रदेश का प्रमुख समाचारपत्र बना। महाराष्ट्र में मराठी भाषा में 'केसरी', 'इन्द्रप्रकाश', 'नेटिव ओपीनियन' और 'दीनबन्धु' तथा अंग्रेजी में साप्ताहिक पत्र के रूप में 'मराठा' अत्यन्त लोकप्रिय हुए। हिन्दी भाषा में उत्तर प्रदेश का साप्ताहिक समाचार-पत्र "हिन्दुस्तान' प्रमुख था, जिसे पं. मदनमोहन मालवीय और पं. प्रतापनारायण मिश्र का सहयोग प्राप्त हुआ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना और सन् 1905 में बंगाल-विभाजन से उत्पन्न असन्तोष ने भी समाचार-पत्रों को लोकप्रिय बनाने तथा उनकी संख्या में वृद्धि करने में सहायता दी।
महात्मा गांधी ने गुजराती भाषा में 'नवजीवन' और अंग्रेजी में 'यंग इण्डिया' का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इसके पश्चात् भी विभिन्न प्रादेशिक
भाषाओं में तथा अंग्रेजी में अनेक समाचार-पत्रों का प्रकाशन हुआ, जिन्होंने भारतीय जनमत के निर्माण में बहुत सहयोग
दिया।
भारतीय भाषाओं में छपने वाले और भारतीयों द्वारा प्रकाशित समाचार-पत्रों पर सरकार निरन्तर प्रतिबन्ध लगाती रही। इस दिशा में सबसे महत्त्वपूर्ण कानून 1878 ई. का 'वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट' था। सन् 1908 में सरकार ने एक अन्य कानून 'The Newspaper Act' बनाया। सन् 1910 में एक अन्य कानून "Indian Press Act' के द्वारा समाचार-पत्रों से सुरक्षा धन (Security) लेने और जब्त करने की व्यवस्था को पुनः आरम्भ किया गया।
इतना होने पर भी 20वीं शताब्दी
के दूसरे और तीसरे दशक में समाजवादी और साम्यवादी विचारों से प्रभावित अनेक नवीन समाचार-पत्रों
का प्रकाशन प्रारम्भ हआ। समाजवादियों ने 'कांग्रेस सोशलिस्ट' का प्रकाशन
प्रारम्भ किया, जबकि साम्यवादी
विचारधारा का नेतृत्व 'न्यू स्पार्क',
'नेशनल फ्रण्ट' और 'पीपल्स वार' आदि ने किया। सन्
1921 में तेजबहादुर सपू के नेतृत्व
में समाचार-पत्रों की स्थिति पर विचार करने के लिए एक समिति गठित की गई। इसकी रिपोर्ट
के आधार पर सन् 1908 तथा सन् 1910 के कानून समाप्त कर दिए गए।
महात्मा गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ किए जाने पर सरकार ने समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता पर पुनः प्रतिबन्ध लगाए। इस सम्बन्ध में सन् 1930 में एक अध्यादेश जारी किया गया और सन् 1931 में एक अन्य कानून 'Indian Press (Emergency Powers) Act' पारित किया गया, जिसके द्वारा सरकार ने समाचार-पत्रों के प्रकाशन पर अंकुश लगाने तथा उनके प्रकाशन को रोकने के सम्बन्ध में विस्तृत अधिकार प्राप्त किए। सन् 1932 के एक अन्य प्रेस कानून द्वारा इन अधिकारों में और वृद्धि की गई। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सरकार ने भारत रक्षा कानून के अन्तर्गत विशेष अधिकार प्राप्त किए और समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता को पूर्णतया नष्ट कर दिया। इसके पश्चात् सन् 1947 में एक समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही भारत में प्रेस की स्वतन्त्रता को पुनः स्थापित किया जाना सम्भव हुआ। परन्तु साम्प्रदायिक दंगों के कारण भारत सरकार को प्रेस की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाने की पुनः आवश्यकता अनुभव हुई और उसने सन् 1951 में एक प्रेस कानून बनाया। इस प्रेस कानून ने प्रेस द्वारा सुरक्षा धन जमा करने, उस धन को जब्त करने, आपत्तिजनक समाचार को छापने से रोकने, प्रेस को बन्द कर देने आदि के सम्बन्ध में सरकार को विस्तृत अधिकार प्रदान किए, यद्यपि हानिग्रस्त प्रेस को एक ज्यूरी मण्डल से न्याय माँगने का अधिकार भी दिया गया। अखिल भारतीय समाचार-पत्र सम्पादक मण्डल तथा सम्पादकों की अखिल भारतीय फेडरेशन ने इस कानन का विरोध किया। भारत सरकार को उनकी मांगों को स्वीकार करना पड़ा और सन् 1952 में उसने न्यायाधीश जी. एस. राजाध्यक्ष के सभापतित्व में एक प्रेस कमीशन की नियुक्ति की। इस कमीशन ने सन् 1954 में अपनी रिपोर्ट दी। इसके पश्चात् सरकार ने प्रेस को स्वतन्त्र बनाए रखने के लिए विभिन्न नियम बनाए, परन्तु उनका उद्देश्य भी प्रेस को नियन्त्रण में रखना था।
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