अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा का अर्थ

B.A. III, Political Science III  

प्रश्न 9. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा की भूमिका की विवेचना कीजिए।
अथवा ''अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा का क्या अर्थ है ?
विचारधारा के सम्बन्ध में मॉर्गन्थाऊ के दृष्टिकोण की विवेचना कीजिए। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।

उत्तर--वर्तमान समय में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधाराओं का विशिष्ट स्थान है। 20वीं शताब्दी को विचारधाराओं की शताब्दी कहा जाता है । समय-समय पर विश्व की दो सर्वोपरि शक्तियाँ दो विभिन्न और परस्पर विरोधी विचारधाराओं की समर्थक रही हैं। उनका सदैव यह प्रयास रहा है कि विश्व के अधिकांश देश उनकी विचारधारा के अनुयायी और पोषक बनें। सोवियत रूस कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित साम्यवादी विचारधारा का प्रचार करने के लिए जितना कटिबद्ध रहा है संयुक्त राज्य अमेरिका उतना ही अधिक इसका कट्टर विरोधी है।

विचारधारा का अर्थ और परिभाषाएँ

विचारधारा का अर्थ विचारों के ऐसे समूह से है जो किन्हीं घटनाओं की व्याख्या करता है। इसका स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा जा सकता है कि यह अमूर्त विचारों की एक ऐसी पद्धति है जो वास्तविक तथ्यों की व्याख्या करती है। यह एक ऐसे कार्यक्रम को प्रस्तुत करती है जो उस सामाजिक व्यवस्था की प्राप्ति के लिए होते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि विचारधारा का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है। पहले अर्थ के अनुसार यह विश्व की घटनाओं की समुचित व्याख्या करने का एक आधार प्रस्तुत करती है ।

What is the meaning of ideology in international politics

 जो व्यक्ति इस विचारधारा को मानते हैं, वे इसे फेलाना और इसकी रक्षा करना अपना पवित्र कर्तव्य समझते हैं। उदाहरण के लिए, चीन साम्यवादी विचारधारा का प्रचार करना अपना महान उत्तरदायित्व समझता है और उसके लिए निरन्तर प्रयत्नशील है।

प्रश्न 8. सामूहिक सुरक्षा से आप क्या समझते हैं सामूहिक सुरक्षा और शक्ति सन्तुलन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

विचारधारा के दूसरे अर्थ के अनुसार इसे किसी देश की वास्तविक विदेश नीति के लक्ष्यों का प्रचार करने और शक्ति प्राप्त करने का साधन समझा जाता है। विचारधारा का लक्ष्य शक्ति प्राप्त करना होता है और इसलिए किए जाने वाले प्रयासों का औचित्य विचारधारा के आधार पर कानूनी तथा नैतिक और मानवीय शब्दावली के आधार पर सिद्ध किया जाता है। प्रत्येक राष्ट्र के लिए अपने राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करना आवश्यक और महत्त्वपूर्ण होता है और इसे पाने के लिए ये विचारधाराओं का उपयोग करते हैं।

पैडलफोर्डलिंकन के अनुसार, “विचारधारा आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्यों तथा लक्ष्यों से सम्बन्धित विचारों का निकाय है,जो इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कार्यों की योजना तैयार करती है।"

स्नाइडर और विल्सन के शब्दों में, एक विचारधारा जीवन, समाज और शासन के प्रति निश्चित विचारों का वह समूह है जिनका प्रचार मुख्यतया योजनाबद्ध,सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक नारों के प्रतिपादन के रूप में अथवा युद्धकालीन नारों के रूप में, निरन्तर उपदेशात्मक रूप में इस प्रकार किया गया है कि वह एक विशिष्ट समाज, समुदाय, दल अथवा राष्ट्र के विशिष्ट विश्वास ही बन गए हैं।"

विचारधाराओं का वर्गीकरण और विभिन्न रूप

वर्तमान समय की विचारधाराओं को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है। पहली उदारवाद की विचारधारा है, यह व्यक्ति की स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र पर बड़ा बल देती है। ब्रिटिश विचारक लॉक ने उपर्युक्त सिद्धान्तों का सारगर्भित प्रतिपादन किया था और उस समय से यह पश्चिमी जगत् की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक पद्धति का आधार बनी हुई है। इसके सर्वथा विपरीत व्यक्ति के समूचे जीवन को राज्य द्वारा नियन्त्रित किए जाने पर बल देने वाली विचारधारा पूर्णाधिकारवाद (Totalitarianism) है। इसके विविध रूप मुसोलिनी का फासिज्म', हिटलर का 'राष्ट्रीय समाजवाद' तथा मार्क्स का 'साम्यवाद' हैं। ये सभी राज्य को सर्वोपरि और सर्वोच्च समझते हुए व्यक्ति के अधिकारों को उसकी तुलना में नगण्य समझते हैं। लोकतन्त्र में जहाँ प्रत्येक मनुष्य की गरिमा को विशेष महत्व दिया जाता है और राज्य को मानवीय कल्याण बढ़ाने का साधन माना जाता है, वही पूर्णाधिकारवादी विचारधारा में राज्य को असाधारण महत्त्व देते हुए व्यक्ति के अधिकारों की उपेक्षा की जाती है।

उपर्युक्त विचारधाराओं के अतिरिक्त धर्म, राष्ट्रीयता, उपनिवेशवाद का विरोध भी वर्तमान समय की महत्त्वपूर्ण विचारधाराएँ हैं।

विचारधारा के सम्बन्ध में मॉर्गेन्थाऊ का दृष्टिकोण

मॉर्गेन्थाऊ ने विचारधारा का विश्लेषण विदेश नीति के सन्दर्भ में किया है। वे स्पष्ट लिखते हैं कि कुछ विशेष प्रकार की विचारधाराएँ कुछ विशेष प्रकार की अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों से जुडी हई होती हैं । इस दृष्टि से वे तीन प्रकार की विचारधाराएं मानते हैं

(1) यथास्थिति की विचारधारा-

यथापूर्व स्थिति की नीति में विश्वास करने वाले राष्ट्र अपने व्यवहार को विचारधाराओं के आवरण में छिपाना नहीं चाहते। उनका मत है कि जो देश यथापूर्व स्थिति की नीति अपनाता है, वह उस शक्ति की रक्षा का प्रयत्न करता है,जो उसको प्राप्त है। यह बात विशेष रूप से तब होती है जब भूभागीय यथापूर्व स्थिति का संरक्षण नैतिक या कानूनी आक्षेप से मुक्त हो। स्विट्जरलैण्ड, डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन जैसे देश अपनी विदेश नीति को यथापूर्व स्थिति में बनाए रखने वाली नीति के रूप में व्यक्त कर सकते हैं, क्योंकि इनकी यथापूर्व स्थिति को न्यायोचित मान लिया गया है।

(2) साम्राज्यवाद की विचारधारा

साम्राज्यवादी नीति को सदैव ही एक विचारधारा की आवश्यकता होती है। उसे यह प्रमाणित करना होता है कि वह जिस यथास्थिति को पलट देना चाहता है, उसे वह पलट देने लायक है और इसके बाद शक्ति का जो नये सिरे से वितरण किया जाएगा, वह नैतिक एवं न्यायपूर्ण होगा। साम्राज्यवाद को विचारधारा की सबसे अधिक आवश्यकता है, क्योंकि उसे राज्यों को जीतने के लिए विद्वानों की आवश्यकता होती है,जो उसके औचित्य का प्रतिपादन कर सकें। जब सभ्यता की दृष्टि से उन्नत कोई देश अपने से निर्बल किसी राष्ट या जाति के कार्यों पर अपना आधिपत्य स्थापित करता है, तो अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के लिए किए गए कार्यों पर उच्च सिद्धान्तों का बढ़िया मुलम्मा चढ़ाता है, ताकि उसका स्वार्थपूर्ण उद्देश्य जनता की दृष्टि से पूर्ण रूप से छिपा रहे। प्रायःनिर्बल जातियों पर विजय प्राप्त करना उच्च शक्तिशाली राष्ट्रों का पवित्र दायित्व बताया जाता है।

प्रबल राष्ट्रों के साथ संघर्ष में कमजोर राज्यों का समाप्त होना अनिवार्य है और यह समाज के लिए लाभकर है। कमजोर और घटिया दर्जे की जातियों का कर्तव्य है कि वह शक्तिशाली जातियों की सेवा करती रहें। यह प्रकृति का अटल विधान है।

(3) अस्पष्ट विचारधाराएँ-

ये विचारधाराएं आक्रमणकारी उद्देश्यों आक्रमणकारी उद्देश्यों की पूर्ति के ने के लिए प्रयोग में लाई जा सकती हैं अतः इन्हें अस्पष्ट विचारधारा कहा जाता है। अस्पष्ट विचारधाराओं में विचारधाराएँ प्रमुख हैं

 (i)राष्ट्रीय आत्म-निर्णय की विचारधारा -

राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के सिद्धान्त कल्पना अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने की थी। उन्होंने मध्य यरोप समहों की विदेशी आधिपत्य की मुक्ति को उचित ठहराया था। वैचारिक दष्टि से यह सिद्धान्त साम्राज्यवाद का विरोधी था। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध से पहले कि इस सिद्धान्त का लाभ अपने साम्राज्य का विस्तार करने में उठाया था। इस मिटा के आधार पर उसने पोलैण्ड और चेकोस्लोवाकिया के जर्मन अल्पसंख्यकों को उकसाया।

(ii) संयक्त राष्ट संघ की विचारधारा -

संयुक्त राष्ट्र संघ को द्वितीय विश्व यद्ध की विजय के उपरान्त स्थापित यथापूर्व स्थिति की रक्षा के क्षेत्र में संगठित किया गया था। किन्तु यह पाया गया कि विभिन्न राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र संघ की विचारधारा की अपने-अपने ढंग से व्याख्या करने लगे। प्रत्येक राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र संघ का पूर्ण पोषक दृष्टिगोचर होता है और सभी राष्ट्र विदेश नीति के पक्ष में चार्टर की धाराओं की दुहाई देते हैं । इन नीतियों के विरोधाभासी होने के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ का सन्दर्भ अपनी स्वयं की नीति को न्यायसंगत प्रमाणित करने के लिए और साथ ही उन नीतियों के वास्तविक चरित्र को ढकने के लिए वैचारिक साधन बन जाता है।

(iii) शान्तिवाद की विचारधारा -

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आणविक युद्धों के भीषण भय ने शान्तिवाद की विचारधारा का प्रबल पोषण किया है। तीसरे आणविक युद्ध की विभीषिका से इस समय सभी देशों के राजनीतिज्ञ इतना वे अपनी विशुद्ध युद्धवादी नीतियों के लिए जनता से कोई समर्थन प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इसे पाने के लिए उन्हें अपनी नीतियों पर शान्तिवाद का मुलम्मा चढ़ाना होता है। इस समय सभी देशों में शान्ति सम्मेलन हो रहे हैं सभी देशों में शान्ति स्थापित करने की तीव्र आकांक्षा उत्पन्न हो चुकी है। इसलिए इस समय यदि काई  देश युद्ध पैदा करने वाली उग्रवादी नीति का अवलम्बन करता है तो वह इस बात का ध्यान रखता है कि उसका यह कार्य शान्तिवाद के नाम पर ही किया जाए। इस प्रकार वह अपने शक्ति विस्तार के उद्देश्यों को शान्तिवाद के मखौटे में प्रस्तुत करता है। इस व्यवस्था का दूसरा कारण यह भी है कि किसी भी देश की शान्तिवादी विदेश नीति को अधिकांश जनता का समर्थन प्राप्त होता है क्योंकि जन-साधारण प्रलयकारी अणु आयुधों के द्वारा किए जाने वाले विध्वंस की आशंका से भयभीत होकर शान्तिवाद का प्रबल समर्थन करता है । इस प्रकार वे सब देशों के समक्ष अपने शान्तिवादी होने का ढोल पीट सकते हैं, इनके इरादे भले ही साम्राज्यवादी हों।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा का महत्त्व (भूमिका)

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा का अत्यधिक महत्त्व है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा राष्ट्रीय शक्ति के उत्प्रेरक का कार्य करती है। यही कारण है कि इसे यथार्थवादी तत्त्व भी माना गया है। राष्ट के भीतर सभी व्यक्तियों को एक सूत्र में बाँधने का उत्तम कार्य विचारधारा ही करती है। विचारधारा से व्यक्तियों में राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना उत्पन्न होती है। यदि कोई राष्ट्र किसी विचारधारा को स्वीकार करता है,तो विचारधारा सरकार को अपने प्रजाजनों का समर्थन प्राप्त करने में सहायक होती है। विचारधारा के महत्त्व के सम्बन्ध में स्नाइडर और विल्सन ने लिखा है कि विचारधारा का प्रचार मुख्यतया योजनाबद्ध, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक नारों के प्रतिपादन के रूप में अथवा युद्धकालीन नारों के रूप में, निरन्तर उपदेशात्मक रूप में इस प्रकार किया गया है कि वह एक विशिष्ट समाज, समुदाय, दल अथवा राष्ट्र के विशिष्ट विश्वास ही बन गए हैं । विचारधारा वह शस्त्र है जो एक राष्ट्र की हिम्मत को बढ़ाकर उसके साथ-साथ उस राष्ट्र की शक्ति को बढ़ा सकते हैं

और अपनी बढ़ती शक्ति के आधार पर अपने प्रतिद्वन्द्वी राष्ट्र का हौंसला भी पस्त कर सकते हैं । अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के चौदह सूत्र, जो उनकी विचारधारा को सशक्त बनाते हैं, ने प्रथम विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों की विजय में बहुत योगदान दिया था। यह मित्र राष्ट्रों की हिम्मत को बढ़ाकर तथा धुरी राष्ट्रों की हिम्मत को कम करके , अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा के महत्त्व को बढ़ाने का अनुपम उदाहरण है।

इस सम्बन्ध में पामर तथा पार्किन्स ने ठीक ही लिखा है, "आजकल विश्व राजनीति में विचारधाराओं का महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि कुछ उदाहरणों में ये राष्टीय शक्ति के साथ सम्बद्ध हो गई हैं। जैसे शक्ति महत्त्वाकांक्षी राष्ट्रों के उद्देश्यों को पूरा करने का साधन बन गई है, वैसे ही अब विचारधाराएँ भी इसका साधन बन गई हैं। किसी प्रकार की शक्ति के बिना कोई भी विचार पद्धति निष्क्रिय और निर्दोष होती है। शक्ति के बिना साम्यवाद केवल एक नपुंसक विचार मात्र है।"

वास्तव में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा वह शक्ति है जो अव्यवस्थित तथा संगठन रहित गतिविधि को एक सुसंगठित, क्रमबद्ध ओजस्वी राजनीतिक आन्दोलन में परिवर्तित कर देती है।

 

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