भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति का इतिहास- वैदिक काल से आज तक

प्रश्न 16. विभिन्न कालों में भारतीय स्त्रियों की सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डालिए।
अथवा
'' भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति पर एक निबन्ध लिखिए।

उत्तर - भारत में स्त्रियों (महिलाओं) की स्थिति का विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि भारत की जनसंख्या का लगभग आधा भाग स्त्रियों का है। भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति सदैव परिवर्तनशील रही है। स्त्रियों की स्थिति में जितना अधिक उतार-चढ़ाव भारतीय समाज में देखने को मिलता है, उतना अन्य किसी समाज में नहीं। स्त्रियों की वर्तमान स्थिति क्या है तथा उसमें किस प्रकार परिवर्तन हआ है, इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें वैदिक काल, उत्तर वैदिक काल, धर्मशास्त्र काल, मध्यकालीन युग तथा आधुनिक युग में स्त्रियों की स्थिति का अध्ययन करना होगा।

(1) वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति -

वैदिक काल में लड़कों एवं लड़कियों को समान समझा जाता था। उस समय स्त्रियों की स्थिति उनके आत्म-विकास, शिक्षा, विवाह, सम्पत्ति आदि के सम्बन्ध में प्रायः पुरुषों के समान थी। कुछ लोग तो विदुषी कन्या प्राप्त करने के लिए कर्मकाण्ड तक करते थे। यजुर्वेद के अनसार स्त्रियों की उपनयन का अधिकार था। पर्दा प्रथा प्रचलित नहीं थी। विधवा विवाह पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था। पत्नी के रूप में उनकी स्थिति बहुत उच्च थी। अपत्नीक व्यक्ति को यज्ञ करने का अधिकार नहीं था। विवाह वयस्क आय में होते थे। महाभारत के अनुसार, "वह घर घर नहीं, यदि उस घर में पत्नी नहीं।" अथर्ववेद में लिखा है कि "नववधू तू जिस घर में जा रही है वहाँ की तू साम्राज्ञी है। तेरे श्वसुर, सास, देवर और अन्य व्यक्ति तुझे साम्राज्ञी समझते हुए तेरे शासन में आनन्दित हों।"

भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति

(2) उत्तर वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति -

ईसा से 600 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा के 300 वर्ष पश्चात् तक के काल को उत्तर वैदिक काल कहते हैं। इस काल में 'महाभारत' की रचना हुई। महाभारत से स्पष्ट होता है कि इस काल में स्त्रियों को सामाजिक तथा धार्मिक, दोनों प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। लेकिन इस काल में स्त्रियों की उच्च स्थिति अधिक समय तक स्थिर न रह सकी। इस काल में स्त्रियों की शिक्षा में बाधा पहुँची तथा उनकी शिक्षा साधारण स्तर पर आ गई। इसका कारण यह था कि धर्मसूत्रों ने बाल-विवाह का निर्देश दिया। उनके ऊपर धार्मिक संस्कार में भाग लेने पर रोक लगाई गई। 'स्कन्द पुराण' में पतिव्रता स्त्री के लिए कुछ नियमों का उल्लेख किया गया। पद्म पुराण' में पतिव्रता स्त्री को विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार की भूमिका निभाने की बात कही गई। पद्म पुराण के अनुसार, "वह स्त्री पतिव्रता है जो सेवा में दासी की भाँति, सम्भोग में अप्सरा की भाँति, भोजन देने में माँ की भाँति तथा विपत्ति में मन्त्री की भाँति काम करने वाली हो।" 'मनुस्मृति में स्त्रियों के समस्त अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। स्मृतिकारों ने स्त्री को प्रत्येक अवस्था में परतन्त्र बना दिया।

(3) धर्मशास्त्र काल में महिलाओं की स्थिति 

यह काल तीसरी शताब्दी से लेकर 11वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक का है। इस काल में 'पराशर', 'विष्णु' तथा 'याज्ञवल्क्य' संहिताओं की रचना का आधार 'मनुस्मृति' था। इस युग में स्त्रियों की दशा और निम्न हो गई। स्त्रियों के समस्त अधिकारों को समाप्त कर दिया गया तथा विवाह की आयु 12-13 वर्ष कर दी गई। बाल-विवाह होने के कारण स्त्री शिक्षा में अत्यन्त गिरावट आ गई। मनुस्मृति के अनुसार, "स्त्रियों को किसी अवस्था में भी स्वतन्त्र न रखा जाए। बचपन में उन्हें पिता के संरक्षण में, युवावस्था में पति और वद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रखना उचित होगा।" इस काल की रचनाओं में पति भक्ति को ही स्त्री का कर्म मान लिया गया। विधवा पुनर्विवाह पर कठोर पतिबन्ध लगा दिए गए तथा विधवा स्त्री का सती होना सर्वोत्तम माना गया।

(4) मध्य काल में महिलाओं की स्थिति -

11वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर 18वीं शताब्दी तक के समय को मध्य काल कहते हैं। इस काल में स्त्रियों की दशा और भी दयनीय हो गई। इसका प्रमुख कारण मुगल साम्राज्य की स्थापना थी। ब्राह्मणों ने हिन्दू धर्म की रक्षा, स्त्रियों के सतीत्व तथा रक्त की शुद्धता बनाए रखने के लिए स्त्रियों के लिए धर्म सम्बन्धी नियम कठोर कर दिए। ऊँची जातियों में भी उच्च शिक्षा समाप्त हो गई। लड़कियों के विवाह की आय 8-9 वर्ष रह गई तथा पर्दा प्रथा को और अधिक प्रोत्साहित किया गया। बाल्यावस्था से ही उन्हें गृहस्थी का भार सँभालना पड़ा। इस काल में विधवाओं का पुनर्विवाह पूर्ण रूप से समाप्त हो गया और सती प्रथा अपनी चरम सीमा पर पहँच गई। उनके समस्त अधिकार छीन लिए गए तथा स्त्री की स्थिति एक दासी के समान रह गई। इस युग में केवल स्त्रियों के सम्पत्ति पर अधिकार के सम्बन्ध में कुछ सुधार हुआ। मिताक्षरा और दायभाग के अनुसार स्त्री को अपने पति की सम्पत्ति का कुछ भाग मिल सकता था। जिन लड़कियों के भाई नहीं होते थे, उन्हें पिता की सम्पत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त था।

(5) आधुनिक काल में महिलाओं की स्थिति 

स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व तक स्त्रियों की स्थिति में बहुत कम सुधार हुआ। वे अनेक प्रकार की निर्योग्यताओं की शिकार थीं। उन्हें शिक्षा प्राप्त करने तथा नौकरी करने का अधिकार नहीं था। परिवार में पुत्री, पत्नी अथवा विधवा के रूप में उसकी स्थिति दयनीय थी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् से स्त्रियों की स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन आए हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् अनेक सामाजिक अधिनियम पारित किए गए हैं, जिनमें हिन्दू विधवा अधिनियम (1955), हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम (1956), हिन्दू नाबालिग और संरक्षकता अधिनियम (1956), हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम (1956), दहेज निरोधक अधिनियम (1961) आदि प्रमुख हैं। इन अधिनियमों ने स्त्रियों की निर्योग्यताओं को दूर करने व उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्रदान करने में महत्त्वपर्ण भमिका निभाई है। इन अधिनियमों के फलस्वरूप स्त्रियों को अपना जीवनसाथी चुनने की स्वतन्त्रता मिल गई है। स्त्रियों को बच्चा गोद लेने तथा विधवाओं को पुनर्विवाह की स्वीकृति मिल गई है। कुछ विशेष परिस्थितियों में स्त्रियों को पृथक् रहने पर भरण-पोषण का अधिकार प्राप्त हुआ है। स्त्रियों को पुरुषों के समान सम्पत्ति के अधिकार से परिवार में उनकी स्थिति अधिक सम्मानपूर्ण हो गई है। पुरुषों की भाँति स्त्रियों को भी तलाक का अधिकार मिल गया है। स्त्रियों को सामाजिक तथा मानसिक सुरक्षा प्राप्त हुई है।

आर्थिक क्षेत्र में भी स्त्रियां पुरुषों पर निर्भर नहीं हैं। वे सरकारी कार्यालयों, निजी कम्पनियों, उद्योगों, शिक्षण संस्थाओं, चिकित्सालयों आदि में काम करके अपनी आजीविका अर्जित कर रही हैं।

विगत कुछ वर्षों में भारत में स्त्री शिक्षा का उल्लेखनीय प्रसार हुआ है। आज लड़कियों कला, विज्ञान और वाणिज्य के साथ-साथ व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा भी ग्रहण कर रही हैं। स्त्री शिक्षा के प्रसार से बाल-विवाह में कमी आई है तथा पर्दा प्रथा भी लगभग समाप्त हो चुकी है।

वर्तमान में स्त्रियों की राजनीतिक चेतना में वृद्धि हुई है और स्त्रियाँ राजनीति में सक्रिय भाग ले रही हैं। विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र भारत में महिलाओं का राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री व मुख्यमन्त्री जैसे उच्च पदों के लिए निर्वाचित होना उनकी राजनीतिक चेतना को स्पष्ट करता है।

- आज स्त्रियाँ अपने सामाजिक अधिकारों के प्रति काफी जागरूक हो चुकी हैं। वे स्वयं को घर की चहारदीवारी तक सीमित नहीं रखती। स्त्रियों ने सामाजिक कुरीतियों और रूढ़ियों को चुनौती देना आरम्भ कर दिया है। आजकल अन्तर्जातीय विवाह भी होने लगे हैं तथा प्रेम विवाहों व विलम्ब विवाहों की संख्या भी बढ़ती जा रही है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वर्तमान युग की नारी अब जाग्रत हो चुकी है। वह मध्य युग की नारी की भाँति कूपमण्डूक और अबला नहीं है। आज उसके अधिकार क्षेत्र में पर्याप्त वृद्धि हो चुकी है तथा वह नारी शक्ति का पर्याय बन गई है। अब वह पुरुष की दासी नहीं रह गई है, वरन् पुरुष की जीवन सहचरी बनकर प्रत्येक क्षेत्र में कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चल रही है। उसे पुरुषों के समान जीवन के सभी क्षेत्रों में पूर्ण एवं समान अधिकार प्राप्त हैं।

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