जे. एस. मिल के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार - आलोचनात्मक

 B. A. II, Political Science I 

प्रश्न 13. "जे. एस. मिल  एक रिक्त (खोखली) स्वतन्त्रता और काल्पनिक व्यक्तिवाद के सन्देशदाता थे। उन्होंने अधिकारों का कोई स्पष्ट सिद्धान्त नहीं दिया, जिसके द्वारा स्वतन्त्रता का विचार एक ठोस अर्थ प्राप्त कर सकता।" (बार्कर') के इस कथन  की व्याख्या कीजिए।

अथवा "जॉन स्टुअर्ट मिल खोखली स्वतन्त्रता का अग्रदूत था।" (वार्कर)  विवेचना कीजिए।

अथवा '' जे. एस. मिल  के स्वतन्त्रता के सम्बन्ध विचारों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

उत्तर- जे. एस. मिल  ने स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में अपने विचार अपनी पुस्तक On Liberty' में प्रस्तुत किए हैं। व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा व्यक्तिवाद की वद्धि हेतु जे. एस. मिल  ने व्यक्तिवादी राज्य को न्यायासंगत बतलाया।

जे. एस. मिल  के चिन्तन में व्यक्ति का स्थान ,

जे. एस. मिल  व्यक्ति की स्वतन्त्रता का पुजारी है और उसका सम्पूर्ण राजनीतिक चिन्तन व्यक्ति पर आधारित है। जे. एस. मिल  व्यक्ति को सामाजिक प्राणी मानता है, लेकिन साथ ही वह विश्वास व्यक्त करता है कि व्यक्ति समाज के हित में स्वेच्छा से योग नहीं करता। व्यक्तियों के हितों को व्यक्ति ही समझ सकता है, न कि समाज ।
जे. एस. मिल  के स्वतन्त्रता के सम्बन्ध विचार


वह अपने सर्वोत्तम रूप को जानता है और वही उसे सर्वोत्तम ढंग से प्राप्त कर सकता है। जे. एस. मिल  के अनसार व्यक्ति का पूर्ण विकास तभी सम्भव है जब उसे अपने लिए आवश्यक परिस्थितियों को स्वयं ही निर्धारित करने का अधिकार दे दिया जाए। जे. एस. मिल  की धारणा थी कि व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के ध्येय प्राप्ति में राज्य और समाज के द्वारा कुछ बाधाएँ उपस्थित की जाती हैं, जिनका निराकरण आवश्यक है। जे. एस. मिल  के अनुसार इन बाधाओं के निराकरण की शक्तियाँ ही स्वतन्त्रता है। समाज के समान ही राज्य को अधिकार नहीं है कि वह व्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन करे। वह व्यक्ति के जीवन में केवल आत्म-रक्षा के लिए ही हस्तक्षेप कर सकता है।

जे. एस. मिल  की स्वतन्त्रता का स्वरूप

स्पष्ट है कि जे. एस. मिल  ने स्वतन्त्रता का समर्थन इसलिए किया है क्योंकि उसका विश्वास है कि स्वतन्त्रता के अभाव में कोई आत्मविश्वासी नहीं हो सकता। जे. एस. मिल  ' के अनुसार स्वतन्त्रता के दो प्रकार हैं---

(1) विचारों की स्वतन्त्रता, और

(2) कार्यों की स्वतन्त्रता।

(1) विचारों की स्वतन्त्रता

जे. एस. मिल  के अनुसार समाज और राज्य को ऐसा कोई अधिकार नहीं है कि वह व्यक्ति की वैचारिक स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाए। जे. एस. मिल  इस स्वतन्त्रता का इतना भक्त था कि उसी के शब्दों में कहा जा सकता है, "यदि एक व्यक्ति के अतिरिक्त सम्पूर्ण मानव जाति एकमत हो जाए, तो भी मानव जाति को उसे जबरदस्ती चुप करने का अधिकार नहीं है, जिस प्रकार यदि उसके पास शक्ति हो तो उसे मानव जाति को चुप करने का अधिकार नहीं होता है।"

संक्षेप में, जे. एस. जे. एस. मिल  ने वैचारिक स्वतन्त्रता के पक्ष में निम्न तर्क दिए

(i) विचारों पर प्रतिबन्ध लगाने का अर्थ सत्य पर प्रतिबन्ध लगाना है और सत्य पर प्रतिबन्ध का अर्थ समाज का पतन होना है।

(ii) सच्चाई विचारों की अभिव्यक्ति द्वारा पुष्ट होती है।

(iii) सत्य के अनेक पक्ष होते हैं । सामान्यतया एक पक्ष सत्य के एक पहलू को ही देखता है और दूसरा पक्ष दूसरे पहलू को।

(iv) यदि कोई व्यक्ति आंशिक सत्य बोलता है, यहाँ तक कि मिथ्या भाषण भी करता है, तो भी राज्य को उसके विचार स्वातन्त्र्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए | समाज अथवा जनता स्वयं झूठी बात को समझकर उसका समर्थन नहीं करेगी |

(v) यदि किसी व्यक्ति का विचार गलत हो , तो व्यक्त होने मे क्या हानि है ? इससे तो समाज द्वारा स्वीकृत सत्य का रूप अधिक निखरेगा।

(vi) तर्क बुद्धि से सत्य की परख होती है, ज्ञान का विकास होता है  और मिथ्या एवं अन्धविश्वासी परम्पराओं की समाप्ति होती है। इसी प्रकार जे. एस. मिल  के अनुसार किसी भी व्यक्ति को किसी भी दशा में विचार करने से रोकना अनुचित है, क्योंकि विचार की अभिव्यक्ति को रोकन विलक्षण दोष यह है कि ऐसा करना मानव जाति की आने बाली तथा वर्तमान नस्लों को लूटना है। स्वतन्त्रता को छीनने के भयंकर परिणाम के उदाहरण मे जे. एस. मिल  सुकरात और ईसा मसीह की हत्या का उल्लेख करता हुआ कहता है

"क्या कभी मानव जाति भूल सकती है कि किसी जमाने में सकरात नाम का एक मनुष्य था, जिसकी राज्याधिकारियों से स्मरणीय टक्कर हुई थी।" इस प्रकार जे. एस. मिल  ने इस बात पर बल दिया है कि एक ऐसे लोकमत की वृद्धि होनी चाहिए आसहिष्णु हो, जो अपने मतभेदों को महत्त्व देता हो और जो नये विचारकों का स्वागत करने के लिए तैयार हो।

जे. एस. मिल  सनकी व्यक्तियों को भी विचार की स्वतन्त्रता देने के पक्ष में है। उसका कहना था कि जिनको एक जमाने में सनकी समझा गया था, वे आज महान् व्यक्ति माने जाते हैं। इसलिए यदि किसी समाज में दस सनकी व्यक्ति हो, तो हो सकता है कि नौ सनकियों का समाज पर कोई प्रभाव न पड़े, किन्तु दसवाँ बिल्कुल नई विचारधारा प्रतिष्ठित करने वाला हो। यदि समाज में पूरे समाज के विरुद्ध एक ही व्यक्ति भिन्न मत रखने वाला हो, तो भी उसे पूर्ण स्वतन्त्रता जे. एस. मिल नी चाहिए।

विचार तथा भाषण की स्वतन्त्रता व्यक्ति के विकास के लिए नितान्त आवश्यक है। वह लिखता है, "इस बात का कोई विरोध नहीं करेगा कि बचपन मे बच्चों की शिक्षा-दीक्षा ऐसी हो जिससे वे मानव के संचित ज्ञान का जान सके और उससे लाभ उठा सकें। परन्तु वयस्क होने पर प्रत्येक मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि वह अनुभवों को अपने ही तरीके से प्रयुक्त करे। उसे यह

अधिकार होना चाहिए कि वह संचित अनुभवों का कौन-सा अंग अपने चरित्र और परिस्थितियों के लिए प्रयुक्त करे।"

वास्तव में जे. एस. मिल  की विचार सम्बन्धी स्वतन्त्रता का आधार उपयोगिता का सुखदाई सिद्धान्त ही था। जब व्यक्ति भाषण विचार की स्वतन्त्रता का प्रयोग करेगा, तो वह सुख अनुभव करेगा। उसे यह अनुभूति होगी कि समाज में उसका आदर होता है और महत्त्व भी है। साथ ही इस अधिकार के सदुपयोग द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास भी कर सकेगा और उस आदर्श जीवन की ओर अग्रसर हो सकेगा, जो जीवन का लक्ष्य है।

(2) कार्यों की स्वतन्त्रता-

विचारों की स्वतन्त्रता का अपना कोई महत्त्व नहीं जब तक इस स्वतन्त्रता के साथ व्यक्ति को अपने विचारों के अनुकूल कार्य करने और समुदाय बनाने की स्वतन्त्रता प्राप्त न हो। किन्तु कार्य की स्वतन्त्रता में एक विशेष परिस्थिति का ध्यान रखना आवश्यक है। हमारे कार्यों का प्रभाव दूसरे व्यक्तियों पर भी पड़ता है, इसलिए समाज या अन्य व्यक्ति अपनी आत्म-रक्षा के हित में दूसरे के कार्यों पर आपत्ति कर सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि कार्य स्वतन्त्रता की सीमा उस जगह निश्चित की जा सकती है जहाँ दूसरे को बाधा पहुँचती हो। इसलिए जे. एस. मिल  कहता है, "उसे दूसरे के रास्ते में बाधक नहीं बनना चाहिए। यदि वह अपने से सम्बन्धित कार्यों को करता है, तो उन्हीं कार्यों पर, जिन पर विचार की स्वतन्त्रता दी गई है, उसे विचारों को अपनी जवाबदेही पर । कार्यान्वित करने की अनुमति जे. एस. मिल नी चाहिए।" _

इसके पश्चात् जे. एस. मिल  इस बात पर विचार करता है कि मनुष्य को कार्य की कितनी स्वतन्त्रता जे. एस. मिल नी चाहिए और उस पर कितना सामाजिक नियन्त्रण वांछनीय है। वह राज्य के हस्तक्षेप पर विचार करने के लिए मनुष्य के कार्यों को दो वर्गों में रखता है-

(i) वे कार्य जो व्यक्ति की आत्मा से सम्बन्धित हैं, और

(ii) वे कार्य जो दूसरों से सम्बन्धित हैं। 

जे. एस. मिल  का विचार है कि जब तक कोई व्यक्ति ऐसे कार्य करता है जिनका प्रभाव केवल उसी पर पड़ता है, तब तक राज्य हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं रखता है। उदाहरण के लिए, प्रथम कार्यों में, मैं किस प्रकार के मकान में रहना चाहता हूँ, क्या पहनना चाहता हैं अथवा क्या खाना चाहता हूँ, ये ऐसे विषय हैं जिनका सम्बन्ध केवल मुझसे ही है। ऐसे कार्यों को राज्य मर्यादित नहीं करेगा। दूसरे के कार्यों में, सड़क पर शराब पीने या भरी सड़क पर तेज घोड़ा दौड़ाने पर राज्य को हस्तक्षेप करने का अधिकार है। संक्षेप में, राज्य को तभी हस्तक्षेप करना चाहिए जब व्यक्ति दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करता है। जे. एस. मिल  का कथन है, "सभ्य समाज के किसी भी सदस्य पर उसकी इच्छा के विरुद्ध सत्ता का प्रयोग केवल एक ही उद्देश्य से किया जा सकता है और वह दूसरे को हानि से बचाना है।"

जे. एस. मिल  के इस अध्ययन से पता चलता है कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के आन्तरिक तथा बाह्य दो पक्ष होते हैं । आन्तरिक पक्ष केवल व्यक्ति विशेष से ही सम्बन्धित होता है और राजकीय हस्तक्षेप से मुक्त है। बाह्य पक्ष के अन्तर्गत समाज से सम्बन्ध स्थापित करता है और यहाँ सीमित रूप से हस्तक्षेप वांछनीय है।

डेविसन के अनुसार जे. एस. मिल  के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचारों को संक्षेप में निम्न प्रकार रखा जा सकता है

(1) व्यक्ति की भावनाओं तथा इच्छाओं को उचित स्थान दिया जाए। बौद्धिकता द्वारा इनका पूर्ण अपहरण नहीं करना चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं है कि बौद्धिकता को किसी प्रकार घटाया जा रहा है।

(2) सार्वजनिक और सामाजिक कल्याण की दृष्टि से व्यक्ति के दृष्टिकोण सभी समुचित महत्त्व दिया जाए। इससे मानव-कल्याण में वृद्धि होगी और लोगों को आगे बढ़ने के लिए उत्साह बढ़ेगा।

(3) समाज की ऐसी परम्पराओं का विरोध होना चाहिए जिनसे विचार और भाषण की स्वतन्त्रता में बाधा पड़ती है। जे. एस. मिल  ऐसे कानून को भी हटा देने के पक्ष में है।

जे. एस. मिल  के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचारों की आलोचना

जे. एस. मिल  के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचारों की आलोचना करते हुए प्रो. बार्कर ने कहा है कि "जे. एस. मिल  की स्वतन्त्रता खोखली और नकारात्मक है। वह केवल यही प्रतिपादित करती है कि व्यक्ति की स्वाधीनता पर राज्य का अंकुश या प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए।" उसकी यह मान्यता है कि राज्य या समाज के जितने कम प्रतिबन्ध होंगे, वैयक्तिक स्वतन्त्रता उतनी ही अधिक होगी, राज्य के प्रतिबन्ध जितने अधिक होंगे, स्वाधीनता उतनी कम होगी। व्यक्ति की स्वतन्त्रता और राज्य का नियन्त्रण परस्पर विरोधी वस्तुएँ हैं। 

इस धारणा का आधार सम्भवतया रूसो का यह क्रान्तिकारी कथन है कि "व्यक्ति स्वतन्त्र पैदा हुआ है, किन्तु वह सर्वत्र जंजीरों में जकड़ा हुआ है।" जे. एस. मिल  इन जंजीरों को काटने पर बल देकर स्वतन्त्रता क निषेधात्मक रूप का ही प्रतिपादन करता है और यह भूल जाता है कि स्वतन्त्रता का भावनात्मक पक्ष भी है और वास्तविक स्वाधीनता तथा राज्य के नियन्त्रण में पारस्परिक विरोध नहीं है। सुव्यवस्था और स्वतन्त्रता एक-दूसरे के सहायक और पूरक हैं। यदि राज्य का नियन्त्रण समाप्त हो जाए, तो अराजकता उच्छृखलता की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। उसमें न तो शान्ति सम्भव होगी न स्वतन्त्रता। अत: स्वतन्त्रता की सत्ता के लिए राज्य का नियन्त्रण आवश्यक है।

जे. एस. मिल  ने व्यक्ति के स्व सम्बन्धी और घर सम्बन्धी कार्यों में जो भेद किया है, वह वैज्ञानिक और तथ्य प्रधान नहीं है। यथार्थत: व्यक्ति का कोई भी कार्य ऐसा नहीं होता जिसका स्वयं उसी पर प्रभाव पड़ता हो और समाज के अन्य व्यक्ति पर प्रभाव न पड़े। प्रत्येक कार्य का एक सामाजिक पहलू होता है।

विचार तथा भाषण की निरपेक्ष स्वतन्त्रता का तर्क भी गलत है। यदि विचार की स्वतन्त्रता पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होगा, तो समाज की दशा बड़ी अस्त-व्यस्त हो जाएगी और किसी भी सर्वमान्य निर्णय तक पहुँचना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। इसी कारण जे. एस. मिल  को सनकियों की स्वतन्त्रता का पक्षधर कहा जाता है।

इसी प्रकार जे. एस. मिल  का यह कथन भी कि '' सभी सत्य तर्क के द्वारा प्रमाणित हो सकते हैं निराधार है। कुछ ऐसे भी विचार हैं जो तर्क से परे हैं। जे. एस. मिल  उनकी महत्ता न समझा सका।

इसी प्रकार किसी देश के केवल पिछड़ेपन के आधार पर ही व्यक्ति को स्वतन्त्रता का अधिकार न देना गलत है। क्या केवल इसी तर्क के आधार पर व्यक्ति को विकास का अवसर न दिया जाए। वास्तव में जे. एस. मिल  के विचारों में काफी दोष हैं।

उपर्युक्त दोषों के बावजूद जे. एस. मिल  का स्वतन्त्रता का दर्शन अपने आप में बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। विशेषतया उसके द्वारा विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का जो सशक्त समर्थन किया गया है, सम्पूर्ण राजनीतिक दर्शन में उसकी कोई समता नहीं है।

 

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