जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक विचार
BA-III-PoliticalScience-II
प्रश्न 13. सम्पूर्ण क्रान्ति (समग्र क्रान्ति) की अवधारणा
के विशेष सन्दर्भ में जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक विचारों का परीक्षण कीजिए।
अथवा '' समाजवाद एवं सर्वोदय के सम्बन्ध में जयप्रकाश नारायण के
विचारों का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा “जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक विचारों का आरम्भ
एक मार्क्सवादी के रूप में हुआ और अन्त एक सर्वोदयी नेता के रूप में।" इस कथन
की व्याख्या कीजिए।
अथवा '' जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रान्ति की अवधारणा का विश्लेषण
कीजिए।
अथवा '' जयप्रकाश नारायण के सर्वोदय तथा दल विहीन लोकतन्त्र सम्बन्धी
विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर - जयप्रकाश नारायण का चिन्तन चिर विकासशील रहा है। प्रारम्भ में वे मार्क्सवादी थे, बाद में गांधीजी के प्रभाव से समाजवादी हुए और अन्त में सर्वोदयी नेता । उन्होंने मार्क्सवाद से सर्वोदयवाद तक की अपनी यात्रा का वर्णन स्वयं अपने शब्दों में किया है "मैं रोटी के लिए सत्ता के लिए सुरक्षा के लिए समृद्धि के लिए, राज्य के गौरव के लिए अथवा अन्य किसी भी वस्तु के लिए स्वतन्त्रता का सौदा नहीं कर सकता।"
प्रारम्भ में जयप्रकाश नारायण को मार्क्सवाद गांधीवाद से कहीं श्रेष्ठ
प्रतीत हुआ,क्योंकि वे रूसी क्रान्ति
द्वारा देख चुके थे कि मार्क्सवाद स्वतन्त्रता, बन्धुत्व और शोषण से मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ व
तीव्रगामी साधन है। किन्तु जब वे अपने प्रवास के बाद भारत लौटे तो उन्होंने
मार्क्सवादी होते हए भी गांधीजी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग
लिया। उनके इस प्रयास की मार्क्सवादियों ने कड़ी आलोचना की और उन्हें पूँजीवादी
तथा प्रतिक्रियावादी घोषित कर दिया। इससे जयप्रकाशजी को बहुत धक्का लगा। लेनिन के
बाद सत्ता के संघर्ष में स्टालिन ने जिस प्रकार रक्त बहाया और लोगों की व्यक्तिगत
स्वतन्त्रता छीनकर हजारों लोगों का कत्ल कर दिया, उससे जयप्रकाशजी सिहर उठे। उनके मन में
मार्क्सवाद के प्रति विरक्ति की भावना घर करने लगी।
रूसी छाप मार्क्सवाद से वे निराश हो गए। उन्होंने देखा कि भारतीय कम्युनिस्टों
की निष्ठा भारत के प्रति कम तथा रूस के प्रति अधिक है। अतः जयप्रकाश नारायण ने एक
समाजवादी दल का संगठन किया । बहुत-से कम्युनिस्ट समाजवादी दल और कांग्रेस के सदस्य
उनके दल में आकार मिल गए तथा उनके दल का उन्मूलन करने की चेष्टा में लग गए। जब
जयप्रकाश नारायण को यह दुश्चक्र मालूम हुआ, तो उन्होंने गद्दार साम्यवादियों को दल से
निष्कासित कर दिया। अब मार्क्सवाद में उनका विश्वास पूरी तरह समाप्त हो गया तथा
समाजवाद के भौतिकवादी आधार में उनकी निष्ठा पूरी तरह समाप्त हो गई। अब वे पूर्णतः
गांधीवादी हो गए और विनोबा जी के प्रभाव से सर्वोदय आन्दोलन के कट्टर समर्थक बन
गए।
जयप्रकाश नारायण की समाजवादी विचारधारा
(1) सामाजिक-आर्थिक समानता -
जयप्रकाश जी समाज में व्याप्त सामाजिक एवं आर्थिक विषमता के
कट्टर विरोधी थे। वे भारत में एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था लाना चाहते थे जिससे मनुष्य
की शक्ति और क्षमताओं को सफल अभिव्यक्ति मिलने के मार्ग में आने वाली बाधाएँ
समाप्त हों, यथासम्भव सामाजिक और आर्थिक
विषमता समाप्त हो, सबको अवसर की समानता प्राप्त हो । उनके समाजवाद का उद्देश्य समाज का
सामंजस्यपूर्ण सन्तुलित विकास करना था। इसीलिए वे उत्पादन के साधनों पर समाज के
नियन्त्रण के पक्षधर थे।
(2) राष्ट्रीयकरण -
सामाजिक-आर्थिक न्याय और समाजवादी समाज की स्थापना उत्पादन के साधनों के समाजीकरण
द्वारा ही सम्भव होती है। सन 1934 में जयप्रकाश नारायण ने समाजीकरण पर बहुत जोर दिया। सन् 1940 में उन्होंने रामगढ़
कांग्रेस में एक प्रस्ताव रखा, जिसका उद्देश्य बड़ी उत्पादन इकाइयों पर सामूहिक स्वामित्व स्थापित करना था।
उन्होंने यह भी कहा कि परिवहन,जहाजरानी तथा भारी एवं आधारभूत उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए।
(3) भारतीय संस्कृति पर आधारित समाजवाद-
जयप्रकाश नारायण का मार्क्सवाद से मोह भंग हो चुका था। अब वे
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में विश्वास नहीं करते थे। समाजवाद के प्रमुख तत्त्वों को
अपनाते हुए भी वे भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक थे। भारतीय संस्कृति का यह
सिद्धान्त कि 'मिल-बाँटकर खाना चाहिए' उन्होंने अपना आदर्श बनाया।
(4) विकेन्द्रीकृत एवं सहकारी व्यवस्था -
मार्क्सवाद में सत्ता ऊपर से थोपी हुई होती है। वहाँ शक्ति चोटी से चलती है और
फिर कम्यून या ग्राम इकाइयों में फैलती है। जयप्रकाश नारायण इसके विरोधी थे। उनका
मत था सत्ता और शक्ति छोटी इकाई से बड़ी इकाई की तरफ प्रसारित होनी चाहिए। वे
राज्य शक्ति का पूर्ण विकेन्द्रीकरण चाहते थे, जो साम्यवाद में असम्भव है। वे चाहते थे कि
गाँवों में स्वावलम्बी एवं स्वायत्तशासी इकाइयाँ स्थापित की जाएँ। भूमि कानूनों
में सुधार कर केवल जोतने वाले किसानों को भूमि का स्वामित्व प्रदान किया जाए। इसी
सन्दर्भ में जयप्रकाश नारायण ने सहकारी खेती का भी समर्थन किया। भूमि जोतने वाले
लोगों का जो शोषण होता है, वे उसके विरुद्ध थे। उनकी मान्यता थी कि खेतिहर मजदूरों का शोषण तब तक समाप्त
नहीं हो सकता जब तक कि सहकारी खेती या सामूहिक कार्य योजना कार्यान्वित नहीं की
जाएगी। सहकारी ऋण व्यवस्था तथा सहकारी हाट व्यवस्था के भी वे पक्षधर थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मार्क्सवाद में प्रचण्ड आस्था रखने वाले जयप्रकाश
नारायण ने जब यह देखा कि भारतीय कम्युनिस्ट केवल रूसी एजेण्ट मात्र हैं, उनको भारतीय संस्कृति एवं
अध्यात्म में कोई विश्वास नहीं है, वे भारतीय राष्ट्रवाद के पोषक भी नहीं हैं, वरन् रूसी साम्यवादी
साम्राज्यवाद के प्रचारक और समर्थक हैं, तो उनका पन विकल वेदना से भर उठा और वे
गांधीवादी बन गए। उनका समाजवाद ईमानदार समाजवाद है। उन्होंने भारतीय संस्कृति और
भारतीय राष्ट्रवाद में आस्था रखते हुए विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था, सहकारी व्यवस्था और
राष्ट्रीयकरण का समर्थन किया। इसके विपरीत रूसी साम्यवाद पूर्ण राष्ट्रीयकरण में
विश्वास करता है । यह स्वतन्त्रता' शब्द पर व्यक्ति के सन्दर्भ में बिल्कुल विश्वास नहीं करता जबकि जयप्रकाश
नारायण सभी प्रकार की स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक थे।
जयप्रकाश नारायण और समग्र क्रान्ति
बिहार में जन-आन्दोलन का प्रारम्भ कर जयप्रकाश
नारायण समग्र क्रान्ति की ओर मुड़े, जिसके द्वारा वह केवल समाज की बाह्य संरचना में
ही परिवर्तन नहीं वरन् मानवीय चेतना को भी परिवर्तित करना चाहते थे। जयप्रकाश
नारायण चाहते थे कि समाजवाद लाने के लिए समग्र क्रान्ति की आवश्यकता है । जयप्रकाश
नारायण की मान्यता थी कि सभी वर्गों के लोगों को इस क्रान्ति में भाग लेना है।
समग्र क्रान्ति को सफल बनाने के लिए नवीन विचारधारा की आवश्यकता है,क्योंकि इसके लिए किया गया
संघर्ष, मार्क्स के वर्ग-संघर्ष से
भी अधिक व्यापक रूप में होगा। जयप्रकाश नारायण के अनुसार समग्र क्रान्ति के
सन्दर्भ में मिश्रित अर्थव्यवस्था अति आवश्यक है। इस क्रान्ति में जयप्रकाश नारायण
ने युवा शक्ति के योगदान को विशेष महत्त्व दिया । जयप्रकाश नारायण के
शब्दों में, “युवा पीढ़ी के
उत्साह और आदर्शों को रचनात्मक कार्यों में प्रवृत्त करना कोई बुरी बात नहीं है,परन्तु साधन तथा साध्य के सम्बन्धों को ध्यान में रखते हुए
यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि युवा पीढ़ी को क्रान्ति के लिए प्रत्येक प्रकार
के साधनों को प्रयुक्त करने को अनुमति दे दी जाए।”
समग्र क्रान्ति का कार्यक्रम
6 मार्च, 1975 को दिल्ली में समग्र क्रान्ति की माँग
को लेकर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक विशाल जुलूस निकाला गया। साम्यवादी दल
को छोड़कर अन्य सभी दलों ने इसे पूर्ण समर्थन दिया। इस प्रदर्शन के बाद लोकसभा
अध्यक्ष को एक ज्ञापन प्रस्तुत किया गया, जिसमें निम्नलिखित माँगें की गई
(1) बिहार तथा गुजरात में शीघ्र ही नये
चुनाव कराए जाएँ।
(2) आवश्यक वस्तुओं की सस्ते दर पर आपूर्ति सुनिश्चित की जाए।
(3) मूल्यों में स्थिरता हो।
(4) न्यूनतम मजदूरी की गारण्टी हो।
(5) आर्थिक असमानताएँ दूर हों।
(6) प्रभावकारी भूमि सुधार लागू किए जाएँ।
(7) भूमिहीनों को भूमि तथा खेतिहर मजदूरों को उचित मजदूरी मिले।
(8) पूर्ण रोजगार का आश्वासन हो।
(9) विधि के शासन की स्थापना के लिए
प्रजातान्त्रिक अधिकार और नागरिक स्वतन्त्रता सुलभ हो।
(10) स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनावों की
व्यवस्था हो।
(11) मतदाताओं को अपने प्रतिनिधियों को
वापस बुलाने का अधिकार दिया जाए और मतदाता की आयु 21 वर्ष के बजाय 18 वर्ष की जाए।
(12) भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए
लोकपाल की नियुक्ति की जाए तथा अन्य उपाय अपनाए जाएँ।
समग्र क्रान्ति के उद्देश्य-
समग्र क्रान्ति के निम्नलिखित उद्देश्य थे
(1) लोकतन्त्र की समुचित व्यवस्था -
समग्र क्रान्ति का उद्देश्य जनता को अधिक जागरूक, कर्त्तव्यपरायण तथा
जनप्रतिनिधियों को अधिक उत्तरदायी बनाना था। उन्होंने यह भी विचार व्यक्त किया कि
जनता को वास्तविक लोकतन्त्र प्रदान करना है । इसके लिए सत्ता पर प्रभावपूर्ण
नियन्त्रण की आवश्यकता होगी।
(2) सत्ता का विकेन्द्रीकरण -
जयप्रकाश नारायण का यह भी विचार था कि जनता के अधिकारों की
सुरक्षा के लिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण होना आवश्यक है। उन्होंने यह भी कहा कि
अर्थव्यवस्था पूँजीपतियों तथा नौकरशाही,दोनों के नियन्त्रण से मुक्त होनी चाहिए।
(3) न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना-
समग्र क्रान्ति का उद्देश्य समता तथा सामाजिक न्याय पर आधारित
ऐसी न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना करना था जो अन्याय,शोषण तथा उत्पीड़न के
विरुद्ध संघर्ष कर सके।
(4) जनशक्ति को जाग्रत करना-
समग्र क्रान्ति की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि जनता में
राजनीतिक तथा सामाजिक चेतना जाग्रत की जाए तभी वह जनशक्ति के रूप में उभरकर सामने
आएगी।
(5) स्वयंसेवकों की भूमिका -
जयप्रकाश नारायण का यह भी विचार था कि जनता में समग्र क्रान्ति
का आह्वान स्वयंसेवकों द्वारा किया जाएगा तथा राष्ट्रीय पुनर्रचना का कार्य
स्वयंसेवकों की विशाल सेना द्वारा सम्पन्न किया जाएगा।
जयप्रकाश नारायण और दल विहीन लोकतन्त्र
जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक विचारों में दल विहीन लोकतन्त्र की
धारणा भी महत्त्वपूर्ण है । वे दलीय राजनीति के विरुद्ध थे क्योंकि यह समाज में
नैतिक पतन, भ्रष्टाचार और स्वार्थपरता
फैलाती है। जिस दल का बहुमत हो जाता है, वह समस्त शक्ति को अपने हाथों में केन्द्रित
करके लोकतन्त्र के नाम पर स्वेच्छाचारी शासन की स्थापना करता है तथा जनता को
स्वशासन के नाम पर भ्रमित करता है।
केवल सत्तारूढ़ दल ही नहीं, विरोधी दल भी जनहित में कार्य नहीं करते हैं। उनके विचार से लोकतन्त्र की
वास्तविक उपलब्धि हेत राजनीतिक और आर्थिक शक्तियों का विकेन्द्रीकरण आवश्यक है।
इसके लिए उन्होंने पंचायती राज का समर्थन किया।
जयप्रकाश नारायण के सर्वोदय सम्बन्धी विचार जयप्रकाश नारायण उन नेताओं में
सिरमौर थे जिन्होंने भारत में समाजवादी विचारधारा का प्रसार किया। उल्लेखनीय है कि
जयप्रकाश नारायण प्रारम्भ में मार्क्सवादी थे, बाद में गांधीवादी तथा समाजवादी हुए और अन्त में
सर्वोदयी । स्वतन्त्रता के पश्चात् कांग्रेस सरकार द्वारा गांधीजी के सपनों को
पूरा न होते देख और देश की दलगत राजनीति द्वारा लोक स्वराज्य की रूपरेखा न बनती
देख जयप्रकाश नारायण ने विनोबाजी के सर्वोदय का मार्ग अपनाया। सक्रिय राजनीति से
दूर रहकर जयप्रकाश नारायण भूदान, ग्राम दान, ग्राम स्वराज्य और लोकनीति
के समर्थन में नये ढंग से देश के नये समाज के निर्माण के प्रयास में जुट गए।
जयप्रकाश नारायण ने निम्न बुराइयों पर प्रहार किया
(1) लोक शासन को दलीय शासन बनने से
रोकना।
(2) लोकतन्त्र, जो मतदान क्रिया में सिमटकर रह गया
है, उसे आगे बढ़ाना ।
(3) मताधिकार को वास्तविक बनाना।
जयप्रकाश नारायण ने जब सर्वोदयी ढंग से सोचना प्रारम्भ किया, तो वे इस निष्कर्ष पर
पहुँचे कि दलीय प्रथा जनता को शक्तिहीन बना रही है। वे दल विहीन लोकतन्त्र पर बल
देते थे। वे राज्य के उत्तरोत्तर बढ़ते प्रभाव को भी हानिकारक मानते थे। वे चाहते
थे कि विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया नीचे से प्रारम्भ हो, स्वशासन और स्वप्रबन्ध का
कार्यक्रम जनता के समक्ष रखा जाए।
मूल्यांकन -
जयप्रकाश नारायण का राजनीतिक चिन्तन अनवरत् गतिशील रहा है।
प्रारम्भ में वे मार्क्सवाद से प्रभावित रहे, तो आगे चलकर वे गांधीवादी समाजवाद का अनुसरण करते
दिखाई देते हैं। भारत में समाजवादी आन्दोलन को नवीन दिशा देने के लिए उन्हें सदैव
स्मरण किया जाएगा। उन्होंने भारत में समाजवादी आन्दोलन को कांग्रेस के नेतृत्व में
चल रहे राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम से सम्बद्ध कर दिया। समाजवादी होने के नाते
उन्होंने देश की आर्थिक समस्याओं को हल करने को प्राथमिकता दी । वे समाजवाद को
सामाजिक-आर्थिक पुनर्निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त मानते थे। वे दल विहीन
लोकतन्त्र में विश्वास करते थे। उन्होंने ऐसे लोकतन्त्र का मार्ग प्रशस्त किया
जिसमें राजनीतिक दलों की अवसरवादिता के लिए कोई स्थान नहीं था। गांधीजी के शब्दों में, “वे (जयप्रकाश नारायण) कोई साधारण कार्यकर्ता नहीं हैं.बल्कि
उन्हें तो समाजवादी दर्शन के एक अधिकारी विद्वान की संज्ञा दी जानी चाहिए।"
प्रो. विमल प्रसाद ने उन्हें भारतीय 'समाजवादी दर्शन के 'मानस पिता' की संज्ञा दी है।
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