फ्रांस के राष्ट्रपति - शक्ति एवं कार्य

B. A. II, Political Science II

प्रश्न 18. फ्रांस के राष्ट्रपति की शक्तियों एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।

अथवा '' फ्रांसीसी राष्ट्रपति की शक्तियों व उसकी स्थिति की व्याख्या कीजिए।

उत्तर - फ्रांस के तृतीय तथा चतुर्थ गणतन्त्र के संविधान में राष्ट्रपति मात्र संवैधानिक प्रधान था, जो अपने देश के सर्वोच्च पद को सुशोभित मात्र करता था। उसके पास अपनी कोई वास्तविक शक्ति नहीं थी। इस पद की निर्बलता के कारण ही ऑग ने उसे यरोपीय राजनीति की एक विलक्षणता' कहा था। अतः अनेक कमियों को दूर कर राष्ट्रपति को वास्तविक प्रधान बनाने हेतु जनरल दि गॉल ने एक नये संविधान का निर्माण किया, जिसे 4 अक्टूबर,1958 को लागू किया गया, जिसे पंचम गणतन्त्र अथवा नवीन संविधान के रूप में जाना जाता है। इस संविधान में दि गॉल ने इस बात पर जोर दिया कि देश में एकता तथा स्वच्छ शासन के निर्माण हेतु एक शक्तिशाली राष्ट्रपति का होना नितान्त आवश्यक है,जो न कि तृतीय तथा चतुर्थ संविधान के समान संवैधानिक प्रधान हो, वरन् संवैधानिक तथा व्यावहारिक, दोनों ही प्रधान हो । अत: नवीन संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

फ्रांस के राष्ट्रपति की शक्तियाँ एवं कार्य

फ्रांस के राष्ट्रपति के पद की शक्तियों और कार्यों का अध्ययन निम्नलिखित । शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

france ke rashtrapati ki shaktiya in hindi;

(1) कार्यपालिका की शक्तियाँ

संविधान के अनुच्छेद 5 के अनुसार राष्ट्रपति का यह कर्त्तव्य है कि वह यह देखे कि संविधान का उचित सम्मान किया जाता है या नहीं। संविधान राष्ट्रपति को राष्ट्र की स्वतन्त्रता, राष्ट्रीय क्षेत्र की एकता और समाज के समझौतों व सन्धियों के सम्मान के प्रति उत्तरदायी बनाता है।

सन् 1946 के संविधान में प्रधानमन्त्री और मन्त्रिमण्डल के निर्माण की शक्ति संसद के हाथ में थी। राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमन्त्री पद के लिए मनोनीत व्यक्ति को राष्ट्रीय सभा में आकर उसका विश्वास प्राप्त करना अनिवार्य था। इसके विपरीत पंचम गणतन्त्र के वर्तमान संविधान में मंन्त्रिमण्डल की नियुक्ति वस्तुतः एकमात्र राष्ट्रपति के हाथ में आ गई है और प्रधानमन्त्री के लिए अब यह आवश्यक नहीं रहा है कि वह अपनी नियुक्ति के बाद राष्ट्रीय सभा का विश्वास प्राप्त करे। इसके अतिरिक्त मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद के सदस्य भी नहीं होते और राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सिफारिश पर मन्त्रिमण्डल के अन्य सदस्यों को पदच्युत भी कर सकता है। राष्ट्रपति ही मन्त्रिमण्डलीय बैठकों का सभापतित्व करता है।

सन् 1946 के संविधान में राष्ट्रपति के प्रत्येक कार्य पर किसी-न-किसी मन्त्री के प्रति-हस्ताक्षर आवश्यक थे। परिणामतः राष्ट्रपति की शक्ति औपचारिक अधिक हो गई थी और मन्त्रियों की वास्तविक । परन्तु वर्तमान संविधान के अन्तर्गत कार्यपालिका शक्तियों को दो भागों में विभाजित कर दिया गया। एक भाग में कार्यों के लिए राष्ट्रपति को मन्त्रियों के परामर्श के अनुसार कार्य करना अनिवार्य है अर्थात् इस भाग के कार्यों के लिए सम्बन्धित मन्त्री के प्रति हस्ताक्षर होने चाहिए। दूसरे भाग में कुछ ऐसे कार्य हैं जिनमें राष्ट्रपति को मन्त्रियों के परामर्श के अनुसार कार्य करना अनिवार्य नहीं है। इन कार्यों से सम्बन्धित आदेशों के लिए यह आवश्यक नहीं है कि प्रधानमन्त्री या विभागीय मन्त्री अपने प्रति हस्ताक्षर करें। ऐसे कार्यों में प्रधानमन्त्री की संकटकालीन शक्तियाँ,जनमत संग्रह के ढंग,सभा को भंग करने, संवैधानिक परिषद् के संगठन, प्रधानमन्त्री की नियुक्ति आदि से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण अधिकार सम्मिलित हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि संविधान ने राष्ट्रपति के अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों को मन्त्रिमण्डल से स्वतन्त्र करके तथा मन्त्रिमण्डल के अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों को राष्ट्रपति के नियन्त्रण में रखकर राष्ट्रपति को अत्यन्त शक्तिशाली बना दिया है।

संविधान राष्ट्रपति को नियुदितयों के क्षेत्र में और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण अधिकार प्रदान करता है । राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल द्वारा स्वीकृत अध्यादेशों और आज्ञप्तियों पर हस्ताक्षर करता है। वह विभिन्न राजदूतों, विशेष दूतों (Envoys) तथा प्रदूतों (Consuls) की नियुक्ति करता है और विदेशों से आने वाले राजदूतों के परिचय-पत्र स्वीकार करता है।

(2) व्यवस्थापन सम्बन्धी शक्तियाँ-

राष्ट्रपति को संसद के दोनों सदनों को सन्देश भेजने का अधिकार है। उसे दोनों सदनों में पढ़ा जाता है, लेकिन उन पर वाद-विवाद नहीं किया जा सकता। राष्ट्रपति अपने सन्देशों को पढ़े जाने के लिए संसद का विशेष सत्र आहूत कर सकता है।

पंचम गणतन्त्र के संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति के द्वारा विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए लौटाने का अधिकार है। इस सम्बन्ध में संविधान में कहा गया है कि संसद से पारित होने पर विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा और राष्ट्रपति 15 दिन के भीतर उसे कानून घोषित करेगा। इस अवधि में वह विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है, जिस पर संसद अनिवार्यतः विचार करेगी।

राष्ट्रपति की एक महत्त्वपूर्ण विधायी शक्ति विधेयक को सीधे जनमत संग्रह के लिए भेजना है, जिसके आधार पर राष्ट्रपति जनता की सहमति से अपनी इच्छानुसार कार्य का निर्माण कर सकता है। संविधान की धारा 11 के अनुसार राष्ट्रपति कुछ विशेष विषयों से सम्बन्धित विधेयकों को मन्त्रिमण्डल अथवा संसद के दोनों सदनों के संयुक्त प्रस्ताव पर जनमत संग्रह के लिए भेज सकता है और जनमत संग्रह में बहुमत द्वारा विधेयक का समर्थन किए जाने पर वह सामान्य विधि की भाँति उसकी घोषणा करता है।

राष्ट्रपति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विधायी शक्ति राष्ट्रीय सभा को भंग करने से सम्बन्धित है, लेकिन इस सम्बन्ध में दो प्रतिबन्ध हैं

(i) एक बार घटन किए जाने पर एक साल के अन्दर राष्ट्रीय सभा का दूसरी बार विघटन नहीं किया जा सकता।

(ii) संकटकाल में राष्ट्रीय सभा का विघटन नहीं किया जा सकता। विघटन के अधिकार का प्रयोग आजकल दो उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है-राष्ट्रीय सभा एवं मन्त्रिमण्डल के मध्य उत्पन्न हुए विवाद की समाप्ति के लिए और स्वयं केवल राष्ट्रीय सभा से समर्थन प्राप्त प्रधानमन्त्री के मध्य उत्पन्न हुए विवाद को दूर करने के लिए।

(3) न्यायिक शक्तियाँ-

राष्ट्रपति को न्यायिक शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। सामान्यत: संविधान की व्याख्या का अधिकार न्यायपालिका को प्रदान किया जाता है, लेकिन पंचम गणतन्त्र के संविधान द्वारा यह अधिकार राष्ट्रपति को प्रदान किया गया है । संविधान में कहा गया है कि गणतन्त्र का राष्ट्रपति यह देखेगा कि संविधान का सम्मान हो। अपने निर्वाचन के द्वारा वह सार्वजनिक शक्तियों की नियमित कार्यशीलता एवं राज्य की निरन्तरता को सुनिश्चित करेगा। वह देखेगा कि राष्ट्रीय स्वतन्त्रता तथा राज्य क्षेत्र की अखण्डता बनी रहे और समुदाय के समझौते तथा सन्धियों का सम्मान हो।

राष्ट्रपति को न्यायिक क्षेत्र में कुछ अन्य शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। संविधान के अनुसार राष्ट्रपति न्यायिक स्वतन्त्रता का संरक्षक है। राष्ट्रपति ही न्यायपालिका की. उच्च परिषद् का सभापतित्व करता है और उसके सभी सदस्यों की नियुक्ति करता है। वह संवैधानिक परिषद् के 1/3 सदस्यों और अध्यक्ष की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति द्वारा ये सभी नियुक्तियाँ उच्च न्यायिक परिषद् की मन्त्रणा के आधार पर

की जाती हैं। राष्ट्रपति को क्षमादान का अधिकार प्राप्त है, जिसका प्रयोग वह उच्च * न्यायिक परिषद् की मन्त्रणा के आधार पर करता है।

(4) संकटकालीन शक्तियाँ-

वर्तमान संविधान में राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का उल्लेख किया गया है। संविधान की धारा 16 के अनुसार, “यदि गणतन्त्र की संस्थाओं को गम्भीर और तात्कालिक संकट उत्पन्न हो जाए अथवा राष्ट्र की स्वतन्त्रता, क्षेत्र की अखण्डता या अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों की क्रियान्विति खतरे में पड़ जाए और यदि संविधान द्वारा नियुक्त सार्वजनिक अधिकारियों के कार्य-संचालन में बाधा पहुँचती हो, तो राष्ट्रपति इन परिस्थितियों के समाधान हेतु आवश्यक कार्यवाही कर सकता है।"

'संविधान में कहा गया है कि राष्ट्रपति एक सन्देश द्वारा राष्ट्र को इन परिस्थितियों से अवगत कराएगा। संकटकाल की घोषणा के साथ ही संसद का अधिवेशन स्वतः ही प्रारम्भ हो जाएगा और संकटकाल में राष्ट्रीय सभा भंग नहीं होगी और न संसद की बैठक स्थगित हो सकेगी। संकटकालीन स्थिति उत्पन्न हुई है अथवा नहीं, इसका निर्णय राष्ट्रपति अपने विवेक के आधार पर करेगा और संकटकालीन अवस्था में शासन के संचालन का उत्तरदायित्व राष्ट्रपति पर ही होगा। राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों पर सबसे प्रमुख आपत्ति यह है कि कोई राष्ट्रपति व्यक्तिगत अधिकार के लिए जानबूझकर इसका दुरुपयोग कर सकता है. और यहाँ तक कि यह धारा सरकार को उलटने के लिए कानूनी आवरण का कार्य कर सकती है। लेकिन प्रो. ऐरोन की मान्यता है कि राष्ट्रपति संविधान की धारा 16 के अन्तर्गत तानाशाह नहीं बन सकता, क्योंकि यदि वह ऐसा करने का प्रयत्न करे. तो उस पर महाभियोग लगाया जा सकता है।

राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति

राष्ट्रपति की उपर्युक्त शक्तियों को देखते हुए स्पष्ट हो जाता है कि पंचम गणतन्त्र के तहत उसे चतुर्थ गणतन्त्र से अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं तथा राष्ट्रपति को राष्ट्र तथा कार्यपालिका का प्रधान पद देने के पश्चात् भी उसकी शक्तियों में अत्यधिक वृद्धि हुई है। अब राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् का निर्माणकर्ता है तथा उसी के द्वारा प्रधानमन्त्री तथा अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति की जाती है। अब मन्त्रिमण्डल के लिए यह आवश्यक नहीं रह गया है कि वह राष्ट्रीय सभा का विश्वास प्राप्त करे तथा मन्त्रिपरिषद् के सदस्य संसद के सदस्य नहीं हो सको। उसी प्रकार मन्त्रिपरिषद् के निर्माण में राष्ट्रपति कहाँ तक प्रभावशाली है, वह सन् 1973 में देखा जा चुका है।

दूसरी ओर विधायी शक्तियाँ भी पर्याप्त शक्ति प्रदान करती हैं। विधायी शक्तियों के अन्तर्गत सन्देश भेजना, संसद का अधिवेशन बुलाना, विधेयक को पुनर्विचार हेतु लौटाना आदि शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। हालांकि इस सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध भी हैं, जिसे आंशिक रूप ही कहा जा सकता है। इसके साथ ही न्याय विभाग, विदेश विभाग आदि में दी जाने वाली शक्तियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नवीन संविधान का राष्ट्रपति अत्यन्त शक्तिसम्पन्न है तथा अब वह बात नहीं है जिसे चतुर्थ संविधान के अन्तर्गत प्रो. ऑग ने कहा था। वर्तमान संविधान के अन्तर्गन राष्ट्रपति की महत्त्वपूर्ण स्थिति को दृष्टिगत करते हुए मॉरिस थोरेज ने लिखा है कि फ्रांस के राष्ट्रपति को 19वीं सदी के सम्राटों से भी अधिक अधिकार प्राप्त हैं।

फ्रांस के पंचम गणतन्त्र के संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति की स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए प्रथम राष्ट्रपति जनरल दि गॉल ने कहा था, “नवीन संविधान के अन्तर्गत हमारे राज्य की केन्द्रीय धुरी गणतन्त्र का राष्ट्रपति है। पहले के समान अब राष्ट्रपति की भूमिका परामर्शवादी और औपचारिक कार्यों तक सीमित नहीं है। संविधान उसे फ्रांस और उसके गणतन्त्र के भाग्य की रक्षा का महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौंपता है। संविधान के अनुसार राष्ट्रपति देश की स्वतन्त्रता और अखण्डता का संरक्षक है। संक्षेप में वह फ्रांस के प्रति उत्तरदायी है। इस उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए उसे पर्याप्त शक्तियाँ प्राप्त होनी चाहिए। अतः संविधान उसे ये व्यापक शक्तियाँ देता है । मन्त्रियों की नियुक्ति और प्रधानमन्त्री का चयन वही करता है और वह ही आज्ञप्तियों और अध्यादेशों के रूप में सभी महत्त्वपूर्ण निर्णय लेता है। वही अधिकारियों और न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ करता है और राष्ट्रीय सुरक्षा तथा वैदेशिक नीति के क्षेत्र में वही प्रत्यक्षतः कार्य करता है। इन सबके अतिरिक्त देश और उसके गणतन्त्र को कोई संकट उत्पन्न हो, तो उस स्थिति का सामना करने के लिए राष्ट्रपति को व्यक्तिगत रूप से सभी अधिकार और कर्त्तव्य प्राप्त हैं।"

राष्ट्रपति की सर्वोच्च स्थिति पर बल देते हुए 31 जनवरी,1964 को दि गॉल ने एक प्रेस सम्मेलन में कहा था कि जनता के द्वारा राज्य की सम्पूर्ण सत्ता स्वयं द्वारा निर्वाचित राष्ट्रपति को प्रदान की गई है और अन्य सभी सत्ताएँ-मन्त्रिमण्डल, लोक सेवाएँ, सैनिक और न्यायिक-अपनी शक्ति राष्ट्रपति से प्राप्त करती हैं तथा उसी पर निर्भर हैं।"

सन् 1964 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री पाम्पिदू ने यह स्पष्ट कर दिया था कि पंचम गणतन्त्र के अन्तर्गत सर्वोच्च शिखर पर दोहरी स्थिति नहीं है और सन् 1970 में पाम्पिदू द्वास नियुक्त प्रधानमन्त्री चेवन डेल्मास ने भी इस स्थिति को दोहराया था। प्रथम चार राष्ट्रपतियों जनरल दि गॉल, जॉर्ज पाम्पिदू, जिस्कार द एस्ते तथा राष्ट्रपति फ्रेंकोइस मित्तराँ द्वारा अपने अधिकारों के सम्बन्ध में अपनाए गए व्यापक दृष्टिकोण से भी राष्ट्रपति पद की सर्वोपरिता नितान्त स्पष्ट हो जाती है।

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