मार्क्स के विचारों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए
प्रश्न 08. "मार्क्स वैज्ञानिक समाजवाद का पिता है।" इस कथन के प्रकाश में मार्क्स के योगदान को समझाइए।
अथवा ''मार्क्सवाद के मूल सिद्धान्तों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
अथवा ''मार्क्स को प्रथम वैज्ञानिक समाजवादी क्यों कहा
जाता है ? मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद सम्बन्धी प्रमुख सिद्धान्तों का आलोचनात्मक
परीक्षण कीजिए।
अथवा ''राजनीतिक चिन्तन को मार्क्स का क्या योगदान है
? स्पष्ट कीजिए।
अथवा ''मार्क्स के मूल सिद्धान्त संक्षेप में बताइए।
क्या कार्ल मार्क्स को 'प्रथम वैज्ञानिक समाजवादी विचारक' कहना उचित है ?
अथवा ''मार्क्स के समाजवाद को वैज्ञानिक क्यों कहा
जाता है ?
उत्तर -
कार्ल मार्क्स पहला समाजवादी विचारक नहीं था, अपितु उससे पूर्व भी रॉबर्ट ओवन, सेण्ट साइमन, फोरियर, थॉमस मूर आदि समाजवादी विचारक हुए थे। वे आदर्श कल्पनाओं को लेकर चले। उन्हें आशा थी कि आदर्श समाज व्यवस्था की स्थापना की जा सकती है। उनका दृष्टिकोण मानवतावादी था, उन्होंने उच्च वर्गों से निर्धनों की सहायता करने की अपील की। कार्ल मार्क्स ने इनको 'स्वप्नलोकीय विचारक' कहकर पुकारा। कार्ल मार्क्स ने अपने वैज्ञानिक समाजवाद की व्याख्या 'Communist Manifesto' में की।
मार्क्स की अपनी स्वतन्त्र विचारधारा है, जिसे विकसित करने
के लिए उसने विभिन्न साधनों का यथासम्भव अवलम्बन लिया है। प्रो. जोड ने लिखा है,
"मार्क्स प्रथम समाजवादी लेखक है जिसके कार्य को वैज्ञानिक
कहा जा सकता है। जिस प्रकार के समाज को वह चाहता था, उसने
उसकी न केवल रूपरेखा ही प्रस्तुत की है वरन् उन स्तरों का वर्णन भी किया है जिनके
अनुसार उसका विकास अनिवार्य है।"
लास्की ने कहा है, "मार्क्स ने समाजवाद को एक
षड्यन्त्र के रूप में पाया और उसे एक आन्दोलन रूप में छोड़ा।" उसने इसे एक क्रमबद्ध दर्शन का रूप प्रदान करके अपने उद्देश्य की प्राप्ति
के लिए एक निश्चित कार्यक्रम प्रस्तुत किया है। इसलिए जिस रूप में मार्क्स ने
समाजवाद का चित्रण किया है, वह विचारधारा उन्हीं के नाम पर 'मार्क्सवाद'
के नाम से प्रसिद्ध हो गई है। यह विचारधारा अनेक सिद्धान्तों के
आधार पर निर्मित हुई है, इसलिए मार्क्स के समाजवाद को 'वैज्ञानिक समाजवाद' कहा जाता है।
मार्क्स के प्रमुख विचार अथवा सिद्धान्त –
माक्र्स अपने जिन विचारों के कारण विश्वभर में
प्रसिद्ध हैं, वे निम्न प्रकार हैं -
(1)
वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त–
कार्ल मार्क्स के दर्शन में वर्ग-संघर्ष की
धारणा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। मार्क्स वर्ग-संघर्ष को सामाजिक परिवर्तन का
मुख्य साधन मानता है और आदिकाल से लेकर आज तक विश्व समाज में जितने भी परिवर्तन
हुए हैं, उन्हें उसी का प्रतिफल सिद्ध करता है। इस तथ्य को प्रातपादित करते हुए
मार्क्स तथा ऐंजिल्स की संयुक्त रचना 'Communist Manifesto' में घोषित किया गया है कि "अब तक के सभी
समाजों का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास रहा है।"
वर्ग-संघर्ष के मूल कारणों पर प्रकाश डालते हुए मार्क्स
ने कहा है कि आजीविका के आधार पर समाज को दो बड़े वर्गों में विभक्त किया जा
सकता है-पंजीपति वर्ग तथा श्रमजीवी वर्ग।
पूँजीपति उत्पादन के साधनों भूमि,
पँजी कच्चा माल, कारखाने आदि पर स्वामित्व
रखकर अपना जीवन निर्वाह करता है और श्रमजीवी अपना श्रम बेचकर। दोनों को एक-दुसरे
की आवश्यकता है फिर भी दोनों के हितों में विरोध है। इसी कारण इनमें संघर्ष
अनिवार्य है। पंजीपति अधिक से अधिक लाभ कमाना चाहता है, इस
कारण वह मजदूरों को कम-से कम मजदूरी देना चाहता है। दूसरी ओर मजदूर अधिक-से-अधिक
मजदूरी लेना चाहता है। अतः दोनों में संघर्ष आरम्भ हो जाता है। किन्तु इसमें
मजदरों की स्थिति कुछ कारणों से निर्बल होती है। कुछ समय तक कारखाना बन्द करने पर
पूँजीपतियों के लिए भूखा मरने की स्थिति उत्पन्न नहीं हो सकती है। अत: वे मजदूरों
का शोषण और उत्पीड़न अच्छी तरह से कर सकते हैं। शहरों में एक साथ रहने और संगठन
बनाने के कारण मजदूरों में जागृति उत्पन्न हो जाती है। वे पूँजीपतियों के शोषण और
अत्याचार का विरोध करने लगते हैं। इस प्रकार पूँजीपति और मजदूरों में शाश्वत
संघर्ष छिड़ जाता है। इसमें पूँजीवाद का पतन और मजदूरों की विजय होना निश्चित है।
(2) द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद-
स्टालिन ने मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद
सम्बन्धी सिद्धान्त के बारे में लिखा है,
"यह द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इसलिए कहा जाता है क्योंकि
प्राकृतिक घटनाचक्र के प्रति उसे समझने तथा हृदयंगम करने का उसका दृष्टिकोण
द्वन्द्वात्मक है और उसकी प्राकृतिक घटनाचक्र की व्याख्या की मान्यता भौतिकवादी
है।" मार्क्स द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में विश्वास
करता था, जिसके अनुसार जगत् में परिवर्तन या विकास भौतिक
पदार्थों में निहित आन्तरिक विरोध के द्वारा होता है, जिसका
क्रम है-वाद, प्रतिवाद और समवाद।
यद्यपि मार्क्स द्वन्द्व को ही विकास प्रक्रिया का
आधार मानता है, परन्तु वह उसका प्रयोग हीगल से सर्वथा भिन्न रूप में करता है। हीगल जहाँ
विचार को द्वन्द्ववाद का मूल तत्त्व मानता है, वहीं मार्क्स
पदार्थ को द्वन्द्ववाद का आधार मानता है। इस प्रकार मार्क्स ने भौतिकवादी दृष्टिकोण
अपनाया है। मार्क्स कहता है कि "यह मनुष्य की चेतना
नहीं है जो उसके अस्तित्व का निश्चय करती है, वरन् उसके
सर्वथा विपरीत उसका यह सामाजिक अस्तित्व है, जो उसकी चेतना
का निश्चय करता है।" मार्क्स
कहता है कि धर्म, सत्य, नीति, न्याय आदि अमूर्त विचारों की अपेक्षा व्यक्ति पर भौतिक विषयों का अधिक
प्रभाव पड़ता है।
मार्क्स ने हीगल के द्वन्द्वात्मक के सिद्धान्त को
ग्रहण किया है, परन्तु कुछ संशोधन के साथ। स्वयं मार्क्स ने कहा है, "मैंने हीगल के द्वन्द्वात्मक तर्क को सिर के बल खड़ा पाया, मैंने उसे सीधा कर पैरों के बल खड़ा कर दिया।"
(3) ऐतिहासिक भौतिकवाद –
मार्क्स मानव इतिहास में होने वाले विभिन परिवर्तनों और
घटनाओं के बारे में बताता है कि सभी परिवर्तन भौतिक अथवा आर्थिक कारणों से होते
हैं। अत: मार्क्स का यह सिद्धान्त इतिहास की आर्थिक अथवा भौतिकवादी व्याख्या के
नाम से जाना जाता है। मार्क्स ने लिखा है कि "सभी सामाजिक,
राजनीतिक तथा बौद्धिक सम्बन्ध, सभी धार्मिक
एवं कानूनी पद्धतियाँ, सभी बौद्धिक दृष्टिकोण, जो इतिहास के विकास-क्रम में जन्म लेते हैं, वे सब
जीवन की भौतिक अवस्थाओं से उत्पन्न होते हैं।"
मार्क्स के अनुसार इतिहास की घटनाओं को मुख्यत: उत्पादन
प्रणाली निर्धारित करती है। उसने मानव जाति के इतिहास को उत्पादन सम्बन्धों में
परिवर्तन के आधार पर निम्न छह भागों में विभाजित किया है
-
(i) आदिम साम्यवादी युग -
मार्क्स के मतानुसार मानव इतिहास का प्रारम्भिक युग आदिम
साम्यवादी युग था। इस युग में सम्पत्ति का जन्म नहीं हुआ था। मनुष्य जंगली जानवरों
का शिकार करके तथा फल-फूल खाकर अपने जीवन का निर्वाह करता था। सब समान थे और कोई
किसी का शोषण करने की स्थिति में नहीं था।
(ii) दास युग -
इस युग में धीरे-धीरे कृषि और पशुपालन प्रथा का
प्रारम्भ हुआ। कुछ लोगों ने भूमि पर अपना अधिकार कर लिया तथा जिन लोगों के पास
भूमि नहीं थी, उन्हें अपना दास बनाकर उनसे बलपूर्वक काम लेना प्रारम्भ कर दिया। समाज
स्वामी और दास, दो वर्गों में विभाजित हो गया।
(ii)
सामन्तवादी युग -
जब उत्पादन के साधनों में और प्रगति हुई, तो भूमि के स्वामी
बड़े-बड़े जागीरदार बन गए और 'स्वामी-दास' के स्थान पर 'सामन्तकिसान' नाम से नवीन सम्बन्ध स्थापित हुए। किसान जमीन के मालिक नहीं थे, वे पूर्णतया सामन्तों के अधीन होते थे।
(iv) पूँजीवादी युग-
औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप यूरोप में बड़े-बड़े
कल-कारखाने स्थापित हुए,
जिनके मालिक पूंजीपति कहलाते थे। उत्पादन का कार्य श्रमिकों
द्वारा किया जाता था, जो गरीब होते थे। पूँजीपति उनका शोषण
करते थे।
(v) सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व -
पूँजीपतियों द्वारा श्रमिक वर्ग का निरन्तर शोषण करने
से श्रमिक वर्ग संगठित होकर क्रान्ति द्वारा पूँजीपतियों को समाप्त कर देगा और
श्रमिक अर्थात् सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित हो जाएगी।
(vi) साम्यवादी युग -
मार्क्स ने भविष्यवाणी की थी कि पूँजीवाद के समाप्त होने पर
श्रमिक वर्ग ही शेष रहेगा। उनके हित समान होंगे और एक वर्ग विहीन समाज स्थापित हो
जाएगा, जिसमें किसी का कोई शोषण नहीं होगा।
(4) अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त -
मार्क्स के अनुसार श्रम भी एक वस्तु है और उसका मूल्य भी किसी
दूसरी वस्तु के समान निश्चित होता है। इस सिद्धान्त के द्वारा मार्क्स यह सिद्ध
करता है कि पूँजीपति श्रमिकों का शोषण करते हैं। पूँजीपति श्रमिक को उतनी ही
मजदूरी देते हैं जितने में वह जीवित मात्र रह सके। अमिक द्वारा उत्पन्न मूल्य के
अधिकांश भाग को पूँजीपति स्वयं हड़प जाता है। इसी भाग को मार्क्स 'अतिरिक्त मूल्य' कहता है। मास के
शब्दों में, "यह उन दो मूल्यों का अन्तर है जिसे
मजदूर उत्पन्न करता है और जिसे वह वास्तव में पाता है। दूसरे शब्दों में, यह वह मूल्य है जिसे पूँजीपति श्रमिक के उस श्रम से प्राप्त करता है जिसके
लिए उसने श्रमिक को कुछ नहीं दिया। मैक्सी ने स्पष्ट करते हुए लिखा है,
"यह वह मूल्य है जिसे पूँजीपति श्रमिकों के खून-पसीने की कमाई
पर पथ कर के रूप में वसूल करता है।"
यदि अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त को और अधिक स्पष्ट किया जाए तो मार्क्स के अनुसार वितरण मूल्य और श्रमिकों को दिए वेतन के मध्य जो अन्तर है, वही अतिरिक्त मूल्य है। उदाहरण के लिए, एक वस्तु के उत्पादन में श्रम, कच्चा माल, मशीनों की घिसाई, प्रबन्ध आदि मिलाकर ₹ 200 लगते हैं और पूँजीपति उसे ₹300 में बेचता है, तो ₹ 100 पूँजीपति को बिना किसी श्रम के मिले। यही ₹100 अतिरिक्त मूल्य है। मार्क्स के अनुसार यह अतिरिक्त मूल्य वस्तुतः श्रमिकों के श्रम का फल है, अत: न्यायानुसार यह श्रमिकों को ही मिलना चाहिए।
(5) राज्य विषयक सिद्धान्त -
मार्क्स का मत है कि आदिम साम्यवादी अवस्था में समाज के
सदस्यों के मध्य हितों में कोई संघर्ष नहीं था, इसलिए सम्पूर्ण समाज आपस में मिलकर
अपने मामलों का प्रबन्ध स्वयं कर लेता था तथा राज्य का कोई अस्तित्व नहीं था। आगे
चलकर दास युग में स्थिति में परिवर्तन आ गया। इस समय भूमिपति और भू-दास, दो वर्ग बन गए। इन दोनों के हित एकदूसरे के विरोधी थे। मार्क्स की यह
धारणा है कि राज्य का जन्म इतिहास की प्रक्रिया में उस समय होता है जबकि समाज ऐसे
दो विरोधी गुटों में विभक्त हो जाता है जिनके हित परस्पर विरोधी होते हैं और
जिनमें कोई सामंजस्य स्थापित नहीं हो सकता।
"Communist
Menifesto' में कहा गया है कि "राज्य बुर्जुआ वर्ग की
एक कार्यकारिणी समिति है।" सम्पन्न आर्थिक वर्ग
राज्य को हिंसक शक्ति के द्वारा अपने आर्थिक हितों की रक्षा करता है। यहीं से
राज्य का प्रारम्भ होता है। इस प्रकार राज्य का निर्माण एक वर्ग द्वारा दूसरे
वर्गों पर आधिपत्य स्थापित करने और नियन्त्रण रखने के उद्देश्य से किया गया। स्वयं
मास के शब्दों में, "राज्य केवल एक यन्त्र है,
जिसकी सहायता से एक वर्ग दूसरे वर्ग का शोषण करता है।"
(6) क्रान्ति का सिद्धान्त -
मार्क्स क्रान्ति की अनिवार्यता में विश्वास करता है।
शान्तिपूर्ण तथा वैध तरीकों से साम्यवादी परिवर्तन सम्भव नहीं है। निम्नलिखित
कारणों से मार्क्स क्रान्ति को अपरिहार्य मानता है
(i)
पूँजीवाद के आन्तरिक विरोध का निवारण करने के लिए क्रान्ति अनिवार्य
है।
(ii)
पूँजीपतियों के संगठित विरोध का सामना श्रमजीवी संगठित होकर
क्रान्ति के द्वारा ही कर सकते हैं।
(iii)
श्रमजीवियों के लिए सत्ता पाने का एकमात्र उपाय सशस्त्र क्रान्ति का
अवलम्बन है।
मार्क्स के विचारों की आलोचना मार्क्स के विचारों ने विश्व
में क्रान्ति उत्पन्न कर दी। मार्क्स के अनेक प्रशंसक और अनुयायी हैं, फिर भी उनका कोई
सिद्धान्त ऐसा नहीं है जिसकी आलोचना न हुई हो। मार्क्स के विचारों की आलोचनाएँ
मुख्यत: निम्नलिखित हैं -
(1) मार्क्स का द्वन्द्वात्मक-
भौतिकवाद अस्पष्ट एवं जटिल है यद्यपि मार्क्स के दर्शन
का आधार द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है,
परन्तु यह स्पष्ट नहीं है। वेपर के शब्दों में, "द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की धारणा अत्यन्त गूढ़ एवं अस्पष्ट है। यद्यपि
मार्क्स और ऐंजिल्स के समस्त लेखन का यह आधार है, परन्तु इसे
कहीं भी स्पष्ट नहीं किया गया है।"
(2) मार्क्स आवश्यकता से अधिक भौतिकवादी है-
मार्क्स का दार्शनिक आधार विशुद्ध रूप से भौतिक है। मार्क्स
धर्म, ईश्वर,
नैतिकता व हृदय परिवर्तन जैसी बातों में बिल्कुल विश्वास नहीं करता
है।
(3) मार्क्स द्वारा दी गई इतिहास की आर्थिक व्याख्या एकपक्षीय है—
मानव का इतिहास केवल आर्थिक जीवन का इतिहास नहीं है।
इस सम्बन्ध में प्रो. अमल दत्त का कथन है कि “यद्यपि आर्थिक
तत्त्वों का राजनीति पर प्रभाव महत्त्वपूर्ण है, परन्तु हमें
पहले से यह नहीं मान लेना चाहिए कि प्रत्येक स्थिति में उसका प्रभाव निर्णयात्मक
या सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होगा।"
(4) मार्क्स का वर्ग-
संघर्ष का सिद्धान्त न केवल अनुचित है, वरन् झूठा भी है-मार्क्स
की आलोचना न केवल इसलिए की जाती है कि वह वर्ग-संघर्ष पर आवश्यकता से अधिक बल देता
है, वरन् उसकी वर्ग-संघर्ष सम्बन्धी भविष्यवाणियाँ भी झूठी
निकलीं। इंग्लैण्ड, जो औद्योगिक क्रान्ति का केन्द्र रहा,
वहाँ आज तक क्रान्ति नहीं हुई। कारण यह है कि पूँजीपतियों ने स्वयं
को समयानुसार बदल लिया। मार्क्स विरोध का पक्षधर है, जबकि
सहयोग समाज का मूल आधार है। क्रान्ति श्रमिक वर्ग के स्थान पर बुद्धिजीवी वर्ग से
प्रारम्भ होती है। अन्त में लास्की का कहना ठीक है कि "वर्ग-संघर्ष में पूँजीवाद के विघटन से साम्यवाद की उत्पत्ति न होकर किसी
अराजकता की स्थापना सम्भव है, जिससे एक ऐसे एकतन्त्रीय शासन
की स्थापना हो जो साम्यवादी सिद्धान्तों से किसी प्रकार सम्बन्धित न हो।"
(5) अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त त्रुटिपूर्ण है—
मार्क्स यह भूल गया कि श्रम ही वस्तु के मूल्य का अन्तिम
निर्धारक नहीं है। भूमि,
पूँजी, साहस व संगठन भी उत्पादन के अन्य साधन
हैं। यह कहना ठीक होगा कि मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त किसी भी रूप में
मूल्य का सिद्धान्त नहीं है। यह वास्तव में शोषण का सिद्धान्त है, जिसके द्वारा यह चेष्टा की गई है कि साधन-सम्पन्न वर्ग सदैव ही साधनहीन
वर्ग के श्रम पर जीवित रहता है। इस प्रकार मार्क्स का यह सिद्धान्त राजनतिक और
सामाजिक नारेबाजी है।
(6) मार्क्सवाद हिंसात्मक है—
मार्क्स की आलोचना उसके हिंसात्मक साधनों के कारण भी की जाती
है।
(7) सर्वहारा वर्ग का अधिनायक –
तन्त्र व्यक्तिगत अधिनायक तन्त्र में भी बदल सकता
है-इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि रूस और चीन में क्रमशः स्टालिन व माओ का उनके
जीवनकाल में एकछत्र राज्य रहा।
(8) मार्क्स की राज्य सम्बन्धी धारणा गलत है—
राज्य न तो केवल पूँजीपतियों के हित का साधन है और न
वह हिंसा पर आधारित है,
जैसा कि मार्क्स कहता है। मार्क्स की यह धारणा भी सही नहीं है 👇कि
कालान्तर में राज्य लुप्त हो जाएगा।
मार्क्स के विचारों का महत्त्व यद्यपि मार्क्स के विचारों की
बहुत आलोचना की गई है और बहुत-से लोग उसके विचारों को स्वीकार नहीं करते, फिर भी संसार पर
जितना प्रभाव मावर्स के विचारों का पड़ा, शायद ही किसी दूसरे
विचारक का पड़ा हो। कारण यह है कि कोई भी देश (साम्यवादी देशों को छोड़कर जहाँ
मार्क्स द्वारा बताए गए रास्ते के अनुसार प्राथमिक लक्ष्य पूरा कर लिया गया है)
ऐसा नहीं है जहाँ वर्ग-भेदन हुआ हो, अन्धविश्वास व शोषण न
हो। अत: इन देशों के श्रमिकों ने मार्क्स को अपना देवदूत माना तथा उसके बताए गए
रास्ते को पूर्ण रूप से अथवा आंशिक रूप से अपनाया। आज विश्व में श्रमिकों की दशा
में जो उल्लेखनीय सुधार हुआ है, उसका बहुत बड़ा श्रेय
मार्क्स को ही है। कैटलिन ने लिखा है कि "मार्स ने समाजवादी आन्दोलनों के लिए वह किया है जो मैकियावली ने राज्य
सिद्धान्त के लिए किया।" उसने समाज में वास्तविक
परिवर्तन लाने के लिए ठोस योजना प्रस्तुत की।
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कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
Very good
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