भारत में राष्ट्रवाद का उदय के 12 कारण

प्रश्न 13. 19वीं शताब्दी में भारत में राष्ट्रवाद के उदय के लिए उत्तरदायी कारणों की विवेचना कीजिए। 
अथवा '' भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म के लिए उत्तरदायी कारणों की विवेचना कीजिए।
अथवा "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म परिस्थितियों का परिणाम थान कि व्यक्तियों द्वारा उसका निर्मित होना।" व्याख्या कीजिए।
अथवा '' भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म कब और किन उद्देश्यों से हुआ?
अथवा ''उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारणों को लिखिए

भारत में राष्ट्रवाद के उदय के 12 कारण

कांग्रेस की स्थापना कोई आकस्मिक घटना नहीं थी और न ही इसके जन्म का कोई एक विशेष कारण था। कांग्रेस की स्थापना के लिए वे सब कारण उत्तरदायी हैं जिनके कारण भारत में राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ। यदि कांग्रेस न बनी होती तो कोई और ऐसी संस्था कांग्रेस का स्थान लेतीक्योंकि इसके लिए अनेक कारण उत्पन्न हो चुके थे। इनमें प्रमुख थे

(1) सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलन - 

18वीं और 19वीं शताब्दी में भारत में बहुत से सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन हुए। भारतीय जनता पर इनका व्यापक प्रभाव पड़ा। भारतीय अपने देश की सभ्यता व संस्कृति को पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति की तुलना में श्रेष्ठ समझने लगे। ये आन्दोलन प्रमुख रूप से निम्न थे

(i) ब्रह्म समाज -

'ब्रह्म समाज' के संस्थापक राजा राममोहन राय थे। 1828 ई. में इसकी स्थापना कर राजा राममोहन राय ने सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों को दूर करने के लिए आन्दोलन चलाए।

(ii) आर्य समाज-

'आर्य समाजकी स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 ई. में की थी। उन्होंने भी सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों को दूर करने के लिए महत्त्वपूर्ण प्रयास किए। दयानन्द पहले भारतीय थे जिन्होंने यह नारा लगाया कि 'भारत भारतीयों के लिएहै। निःसन्देह आर्य समाज एक राष्ट्रीय नवजागरण थाजिसे ब्रिटिश सरकार बुरी दृष्टि से देखती थी।

(iii) रामकृष्ण मिशन - 

इस मिशन (संस्था) की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की स्मृति में की थी। रामकृष्ण परमहंस के सिद्धान्तों के अनुसार सभी धर्म सच्चे हैं। इसीलिए उन्होंने विभिन्न धर्मों में समन्वय स्थापित करने के लिए कार्य किया। स्वामी विवेकानन्द ने उनके इस कार्य को आगे बढ़ाया। 1893 ई. में उन्होंने शिकागो में हुए सर्वधर्म सम्मेलन में अपने भाषण के दौरान विश्व के लोगों को यह अनुभव करा दिया कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता श्रेष्ठ व अनुकरणीय हैपाश्चात्य सभ्यता मात्र भौतिकता प्रधान है। स्वामीजी ने भारतीयों में आत्म-विश्वासस्वाभिमान और देशभक्ति की भावना का संचार किया।

(iv) थियोसोफिकल सोसायटी-

यह एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था थी। भारत में इसका प्रचार श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने किया। श्रीमती बेसेण्ट ने भारतीय संस्कृति व हिन्दू धर्म को महान् बताया। उन्होंने हिन्दू धर्म के सुधार व सामाजिक बुराइयों को दूर करने में अपना बहुमूल्य योगदान दिया।

(2) पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव - 

देश में राजनीतिक जागृति उत्पन्न करने में अंग्रेजी शिक्षा ने भी योगदान दिया। देश में बोली जाने वाली विभिन्न भाषाओं के फलस्वरूप राजनीतिक जागृति उत्पन्न नहीं हो रही थी। अंग्रेजी भाषा ने इस कार्य को पूरा किया। इस भाषा के माध्यम से हमें विदेशों के बारे में जानकारी प्राप्त हो गई और हमने यह जाना कि दुनिया के अन्य देश किस प्रकार स्वतन्त्र हुए। राजा राममोहन रायदादाभाई नौरोजीवोमेशचन्द्र बनर्जीफिरोजशाह मेहता और गोपालकृष्ण गोखले भारतीय राष्ट्रीयता के ये सभी सन्देशवाहक अंग्रेजी शिक्षा की ही देन थे। अंग्रेजों ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा अपने हित में लागू की थीताकि उन्हें सस्ते पढ़े-लिखे बाबू मिल सकें और साथ ही अंग्रेजी सभ्यता का विकास भी हो। यद्यपि अंग्रेज अपने उद्देश्य में सफल हुएफिर भी दूसरी ओर भारतीयों के लिए भी अंग्रेजी शिक्षा वरदान सिद्ध हुई।

(3) लॉर्ड लिटन की साम्राज्यवादी नीति -

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने लिखा है कि "राजनीतिक प्रगति के विकास में बुरे शासक प्राय: अनजाने में जनता के लिए  वरदान बन जाते हैं।" नि:सन्देह लिटन का शासन (लिटन 1876 से 1880 ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल रहा) राष्ट्रीय चेतना के लिए उत्तरदायी था। लिटन का समस्त शासनकाल दमनपूर्ण व भारत विरोधी रहा। लिटन के निम्नलिखित कार्यों ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का विकास किया

(i) 1877 ई. में जबकि दक्षिण भारत में भयंकर अकाल पड़ रहा थाउस समय महारानी विक्टोरिया को 'केसर-ए-हिन्दव भारत की महारानी घोषित करने के लिए लिटन ने दिल्ली में शानदार दरबार करके पानी की तरह पैसा बहाया।

(ii) 1878 ई. में लिटन ने 'वर्नाक्यूलर प्रेस एक्टपारित कराकर भारतीय समाचार-पत्रों पर कठोर सरकारी नियन्त्रण लगा दिया।

(iii) लिटन ने 'शस्त्र अधिनियमपारित करके भारतीयों को निहत्था कर दिया। हथियारों के लिए लाइसेंस आवश्यक कर दिया गयापरन्तु केवल भारतीयों के लिए।

(iv) लिटन ने ब्रिटेन के हित में विदेशी सूती कपड़े पर लगा आयात कर हटा दियाजिससे भारत में उसका माल सस्ता बिक सके और भारतीय उद्योग-धन्धे नष्ट हो जाएँ।

इस प्रकार लिटन के प्रतिगामी कार्यों ने भारतीयों को निद्रावस्था से जगा दिया।

(4) नौकरियों में भेदभाव -

भारतीयों को उच्च पदों से अलग रखने के लिए "इण्डियन सिविल सर्विस' (I.C.S.) की परीक्षाएँ केवल इंग्लैण्ड में होती थींजिसमें 21 वर्ष के नवयुवक बैठ सकते थे। 1877 ई. में यह उम्र घटाकर 19 वर्ष कर दी गईजिससे भारतीय लोग आई. सी. एस. न बन सकें। इसके बावजूद भी जब सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और अरविन्द घोष जैसे भारतीय इस परीक्षा में सफल हो गएतब भी उन्हें पद नहीं दिया गया। इससे भी भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत हुई ,

(5) जातीय भेदभाव

अंग्रेजों की जातीय भेदभाव की नीति ने भी भारतीयों के हृदय में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध घृणा की भावना उत्पन्न कर दी। अंग्रेज लोग भारतीयों को हीन व घृणा की भावना से देखते थे। अंग्रेजों के दिमाग में तीन बातें थीं

(i) एक यूरोपीय का जीवन कई भारतीयों के जीवन के बराबर है।

(ii) भारतीयों पर केवल भ्रम व आतंक से ही शासन किया जा सकता है।

(iii) भारत में अंग्रेज लोकहित के लिए नहींनिजी लाभ के लिए आए हैं।

(6) भारत का आर्थिक शोषण-

अंग्रेजों ने हर प्रकार से भारत का आर्थिक शोषण किया। स्वतन्त्र व्यापार की नीति अंग्रेजों द्वारा अपने हित में शुरू की गई थी। भारत का धन खिंच-खिंचकर इंग्लैण्ड पहुँचने लगा। विदेशी वस्तुओं के. स्थान के लिए भारत के उद्योगों व दस्तकारियों को एक-एक करके नष्ट कर दिया गयाजिसके फलस्वरूप देश में दरिद्रता का साम्राज्य फैल गया। इससे भी राष्ट्रीय असन्तोष का जन्म हुआ।

(7) भारतीय समाचार-पत्र और साहित्य-

भारतीय भाषाओं और भारतीय विचारधारा वाले पत्रों ने राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रोत्साहन दियाशासन की त्रुटियों व दमन की नीति का भण्डाफोड़ किया। इन समाचार-पत्रों में अमृत बाजार पत्रिकाकेसरीमराठाहिन्दूट्रिब्यून आदि प्रमुख थे। भारतीय साहित्य ने भी राष्ट्रीयता के विकास में सहयोग किया। बंकिमचन्द्र ने 'वन्दे मातरम्' की रचना द्वारा भारतीयों में एक नया जीवन फूंक दिया।

(8) विश्व के क्रान्तिकारी आन्दोलन-

विश्व के क्रान्तिकारी राष्ट्रीय आन्दोलनों से भी भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरणा मिली। फ्रांस के क्रान्तिकारियों ने विश्व को स्वतन्त्रतासमानता और भ्रातृत्व का सन्देश दिया। अमेरिका के स्वतन्त्रता युद्ध से भी भारतीयों को प्रेरणा मिली। 1861 से 1871 ई. के मध्य इटली जर्मनीरूमानियासर्बिया आदि का एकीकरण हुआ था। इन घटनाओं से भारतीयों में यह भावना जाग्रत हुई कि संगठित आन्दोलन द्वारा वे भी स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकते हैं।

(9) इल्बर्ट विधेयक वाद-विवाद-

वायसराय लॉर्ड रिपन, जो कि उदारवादी व योग्य शासक थाफौजदारी दण्ड विधान में प्रचलित जातीय भेदभाव को समाप्त करने का निश्चय किया। इस उद्देश्य से वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् व कानूनी सदस्य पी. सी. इल्बर्ट ने 1883 ई. में एक बिल पेश किया। इस बिल का उद्देश्य भारतीय मजिस्ट्रेटों को यूरोपीय अपराधियों के मुकदमे सुनने का अधिकार देना था। परन्तु भारत में रहने वाले अंग्रेजों ने इसे अपना अपमान समझा और उनके तीव्र विरोध के कारण यह बिल पास न हो सका। परन्तु इससे भारतीयों की आँखें खुल गईं। हेनरी कॉटन ने ठीक ही लिखा है, "इस बिल के विरोध में किए गए यूरोपीय आन्दोलन ने भारत की राष्ट्रीय विचारधारा को जितनी एकता प्रदान कीउतनी तो बिल पारित होकर भी नहीं हो सकती थी।"

 (10) दूरसंचार व आवागमन के साधन - 

यद्यपि अंग्रेजों ने रेलसड़कडाक व तार का विकास अपने हित के लिए किया थापरन्तु इन साधनों के द्वारा भारतीयों को आपस में मिलने व ब्रिटिश साम्राज्य की अपूर्णताओं की समीक्षा करने का अवसर मिला।

(11) ऐतिहासिक अनुसन्धान - 

यूरोप के अनेक विद्वानोंजैसे-सर चार्ल्स विलकिन्ससर विलियम जोंसमैक्समुलरविल्सनमोनियर विलियम्सकीथ आदि ने संस्कृत का गहन अध्ययन किया और भारतीय संस्कृति व सभ्यता का गुणगान किया। इन अनुसन्धानों ने भारतीयों के स्वाभिमान को जाग्रत कर दिया।

(12) राजनीतिक एकता

ग्रीफिथ्स के अनुसार, “ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत | भारतीयों पर एक कुशल और शक्तिशाली शासन का प्रभाव पड़ाजिसके के फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में एकरूपता उत्पन्न हुई। जातिभाषाधर्मसामाजिक स्थितियोविशेषताओं से यद्यपि पृथकत्व जारी रहाफिर भी एक शासन के अधीन राजनीतिक संघ ने भारतीयों को एकता के सूत्र में बाँधना प्रारम्भ किया ,

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट है कि ब्रिटिश सरकार की नीतियों तथा विभिन्न सामाजिक व धार्मिक आन्दोलनों के फलस्वरूप अखिल भारतीय स्तर पर एक राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा। इन परिस्थितियों में कांग्रेस की स्थापना का विचार सर्वप्रथम एक अवकाश प्राप्त अंग्रेज अधिकारी ए. ओ. ह्यूम के मस्तिष्क में उत्पन्न हुआ। उन्होंने मार्च, 1883 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों के नाम एक पत्र लिखकर अपनी इस इच्छा को व्यक्त किया था। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन तथा ए. ओ. ह्यूम की बिशेष इच्छा थी कि भारतीय बुद्धिजीवियों की एक ऐसी संस्था स्थापित की जाए जो इंग्लैण्ड की भाँति सरकार के विरोधी दल का कार्य करे। वे चाहते थे कि भारत के राजनीतिज्ञ प्रतिवर्ष सम्मेलन करके सरकार को शासन की त्रुटियों की जानकारी दें तथा उसे सुधार के लिए सुझाव भी दिया करें। ह्यूम के प्रयासों से दिसम्बर, 1885 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। इसका प्रथम अधिवेशन 28 दिसम्बर, 1885 को गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज, बम्बई में हुआ। इस सम्मेलन की अध्यक्षता कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील श्री वोमेशचन्द्र बनर्जी ने की थी। इस सम्मेलन में भारतीयों के अतिरिक्त अंग्रेज अधिकारी भी उपस्थित हुए।

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